बाढ़ से विनाश : तां, की फरक पैंदा है!

punjabkesari.in Wednesday, Jul 29, 2020 - 03:19 AM (IST)

गर्मी के मौसम में देश के कई भागों में सूखे की स्थिति बनी हुई थी और मानसून के आते ही भारी वर्षा ने स्थिति को बदल दिया और उत्तर, पश्चिम तथा दक्षिण सभी भागों में भीषण बाढ़ की स्थिति बनी हुई है। बाढ़ से अब तक लगभग 3500 लोग मारे जा चुके हैं और 59 लाख लोग बेघर हो गए हैं। बिहार में 47 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हैं और 3 लाख से अधिक लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं। उत्तर प्रदेश में डेढ़ लाख से अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हैं तो केरल में 1 लाख से अधिक लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं। इसके अलावा पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, आेडिशा, गुजरात और महाराष्ट्र में भारी बारिश हो रही है जिससे वहां पर जनजीवन ठप्प हो गया है। 

बाढ़ की इस समस्या के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है किंतु इसका प्राधिकारियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। बुनियादी प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में कोई इसकी परवाह करता है। बिल्कुल नहीं। बादल फटने, भूस्खलन, अचानक बाढ़ आने जैसी घटनाएं हर साल होती रहती हैं जिनमें हजारों लोग मारे जाते हैं और लाखों लोग बेघर होते जाते हैं तथा करोड़ों की सम्पत्ति बर्बाद हो जाती है। इस पर हमारे नेताआें की प्रतिक्रिया आशानुरूप रहती है। वे हर वर्ष नौटंकी करते हैं, हर कोई घिसी-पिटी बातें करता है।

बाढ़ आने के बाद राहत सामग्री पहुंचाई जाती है। प्रधानमंत्री मुआवजे की घोषणा करते हैं। उसके बाद मुख्यमंत्री भी मुआवजे की घोषणा करते हैं, सरकार आपदा प्रबंधन दल का गठन करती है। राज्य सरकार केन्द्र से राहत सहायता मांगती है, नौकरशाह बाढ़ की स्थिति का विश्लेषण करते हैं। उनके विचार और उनके द्वारा सुझाए गए उपाय भी बाढ़ में बह जाते हैं और हर कोई इस बात पर संतुष्ट होता है कि उन्होंने राष्ट्र के लिए अपने कत्र्तव्यों का पालन कर दिया है। यह हमारा भारत है। 

हमारे राजनेता किसी भी समस्या को हमेशा पैसे के तराजू में क्यों तोलते हैं। कोई समस्या केवल धनराशि स्वीकृत करने से कैसे हल हो सकती है। यह क्यों मान लिया जाता है कि सैंकड़ों करोड़ रुपए मंजूर करने से बाढ़ की समस्या का समाधान हो जाएगा। प्रशासन की उदासीनता के लिए कौन जिम्मेदार है और किसके विरुद्ध कार्रवाई की जाए। यही नहीं हमारे नेतागण बाढ़ को केवल संकट के समय प्राथमिकता क्यों देते हैं। बाढ़ से निपटने के लिए दीर्घकालीन उपाय क्यों नहीं किए गए जबकि सबको पता है कि देश के विभिन्न भागों में हर साल बाढ़ आती है।
बाढ़ के विनाश के बाद भी ‘नेताओं को की फरक पैंदा है।’

2018 में केरल में, 2017 में गुजरात में, 2015 में चेन्नई में, 2014 में उत्तराखंड और श्रीनगर में, 2013 में दिल्ली में और 2005 में मुंबई में भी एेसी ही बाढ़ आई थी। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार देश का लगभग 12 प्रतिशत भाग अर्थात् 40 मिलियन हैक्टेयर भूमि बाढ़ प्रवण है। 68 प्रतिशत सूखा प्रवण, भूस्खलन और हिमस्खलन प्रवण है। 58.6 प्रतिशत भूभाग भूकंप प्रवण है। सुनामी और चक्रवात तटीय क्षेत्रों में आम बात है तथा देश की फिर 5716 कि.मी. लंबी तटीय रेखा में से 5700 कि.मी. तटीय रेखा सुनामी और चक्रवात प्रवण है। इन परिस्थितियों में भारत विश्व के सबसे आपदा प्रवण देशों की श्रेणियों में आता है। 

वस्तुत: आपदा प्रवण के मामले में भारत विश्व में 14वें नंबर पर है और वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक रिपोर्ट 2019 के अनुसार इसका कारण मौसम संबंधी उतार-चढ़ाव है। देश में आने वाली कुल आपदाआें में से 52 प्रतिशत बाढ़ का हिस्सा हैं उसके बाद 30 प्रतिशत चक्रवात, 10 प्रतिशत भूस्खलन, 5 प्रतिशत भूकम्प, 2 प्रतिशत सूखा है। वर्ष 2017 में प्राकृतिक आपदाआें में 2736 लोगों की जानें गई थीं। भारत ने संयुक्त राष्ट्र सेंडाई फ्रेमवर्क फॉर डिजास्टर रिडक्शन पर हस्ताक्षर किए हैं किंतु वास्तव में स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। विश्व गतिशील जलाशय संचालन की आेर बढ़ रहा है जो मौसम भविष्यवाणी पर निर्भर होता है किंतु हमारे बांध प्रबंधक अपनी नौकरियों को जोखिम में डालना नहीं चाहते हैं और भाखड़ा बांध को छोड़कर वे पहले से नियंत्रित जल निकासी का आदेश नहीं देते हैं। 

उदाहरण के लिए पश्चिमी हिमालय में ऐसी अवसरंचना के निर्माण पर बल दिया जा रहा है जिससे इस क्षेत्र के प्राकृतिक वातावरण पर दबाव बढ़ा है। संवेदनशील पर्वतीय पारितंत्र के लिए खतरे की चेतावनी के बावजूद सरकार ने चार धाम राजमार्ग परियोजना का कार्य जारी रखा है। इस परियोजना के अंतर्गत उत्तराखंड में हिन्दुआें के चार प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों को जोड़ा जाएगा। 

सरकारी आपराधिक उदासीनता के इस वातावरण में समय आ गया है कि इसमें सुधार किया जाए। सबसे पहले सरकार को यह स्वीकार करना होगा कि समस्या है। उसके बाद उसे बुनियादी सुझावों को लागू करना होगा और दीर्घकालिक उपाय ढूंढने होंगे। इसके लिए केन्द्र और राज्यों के बीच ठोस समन्वय होना चाहिए। आपदा से पहले और आपदा के बीच राज्य और केन्द्र के बीच सहयोग होना चाहिए। साथ ही आपदा के कारण मौतों को रोकने के लिए बेहतर आपदा प्रबंधन नीति बनाई जानी चाहिए। 

आपदा का सामना करने वाली अवसंरचना पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। बांधों के निर्माण, जल निकासी, नदी तटबंधों की सुरक्षा और नहरों के निर्माण के लिए अधिक धनराशि आबंटित की जानी चाहिए। साथ ही अग्रिम आपदा चेतावनी प्रणाली विकसित की जानी चाहिए। इसके अलावा बांध और नहरों की सुरक्षा मानदंडों की समीक्षा की जानी चाहिए और इनके निर्माण में उच्च सुरक्षा मानदंडों का पालन किया जाना चाहिए।-पूनम आई. कौशिश 
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News