आलोचना के बावजूद चुनावों में सफल रह सकती है ‘आम आदमी पार्टी’

Tuesday, Feb 27, 2018 - 03:37 AM (IST)

हर बार आम आदमी पार्टी (आप) सत्तातंत्र द्वारा बहुत सावधानीपूर्वक बिछाए गए जाल में फंसती है और मीडिया इसके खून का प्यासा हो जाता है तो मुझे यह संदेह होता है कि दर्शकों पर इस घटनाक्रम का प्रभाव वैसा नहीं होता, जैसी समाचार चैनलों को अपेक्षा होती है। बहुत धारदार ढंग से ‘आप’ विरोधी निन्दा-प्रचार चलाया जा रहा है और इससे ‘बेचारे’ व्यक्ति की एक नई छवि उभरनी शुरू हो गई है। 

निश्चय ही आक्रामक एंकरों को यह सिलसिला लाभदायक मालूम पड़ता है, नहीं तो वे ‘आप’ से संबंधित हर छोटी-मोटी हस्ती को चर्चाओं का केन्द्र बिन्दू न बनाते। ‘आप’ को लहूलुहान करके वे अपनी टी.आर.पी. में बढ़ौतरी कर रहे हैं और यह काम वे मुख्य तौर पर संबित पात्रा के फेफड़ों के दम-खम पर अंजाम दे रहे हैं : 

‘‘देखें बुलंद कौन है और पस्त कौन है? संबित पात्रा से जबरदस्त कौन है?’’ ‘आप’ पर इतने फटाफट प्रहार करने के उतावलेपन में समाचार चैनल टी.आर.पी. बढ़ाने के अपने सुस्थापित फार्मूले की सीमाओं से बाहर जा रहे हैं। यह फार्मूला है सिनेमा, क्राइम, क्रिकेट और साम्प्रदायिकवाद से चिपके रहने का। सीमा से बाहर जाने की इस आदत का कारण बहुत सरल सा है: समाचार चैनलों को कंट्रोल करने वाले कार्पोरेट घराने यही चाहते हैं कि राष्ट्रीय राजनीति का खेल भाजपा और कांग्रेस तक ही सीमित रहे क्योंकि कार्पोरेट जगत ने इन दोनों पार्टियों की अच्छी-खासी परवरिश की है। कांग्रेस-भाजपा शासित प्रदेशों में मीडिया घरानों द्वारा कराए गए ओपिनियन पोल कभी भी राष्ट्रीय राजधानी की चुनावी संभावनाओं के बारे में सर्वेक्षण नहीं करवाते, जबकि यहां पर आम आदमी पार्टी ही सबसे प्रमुख दावेदार है।

यही कारण है कि दिल्ली के राजधानी क्षेत्र में सर्वेक्षण स्पांसर करने के लिए कोलकाता आधारित आनंद बाजार पत्रिका (ए.बी.पी. समूह) को आगे आना पड़ा।ए.बी.पी.-नीलसन ने गत सप्ताह प्रकाशित अपने सर्वे में कहा था कि टी.वी. चैनलों पर हो रही आलोचना के बावजूद ‘आप’ राजधानी की 70 में से 48 सीटों पर जीत दर्ज करेगी। ओपिनियन पोल से खुलासा हुआ है कि इसे 47 प्रतिशत वोटरों के मत हासिल होंगे। यह सर्वेक्षण दिल्ली के 28 विधानसभा क्षेत्रों के कुल 5101 मतदाताओं पर आधारित है। इनमें से 35 प्रतिशत का कहना है कि ‘आप’ की कारगुजारी बढिय़ा है, जबकि 15 प्रतिशत ने इसे उत्कृष्ट करार दिया है। 

यदि ‘आप’ की लोकप्रियता 67 सीटों से घटकर 48 सीटों तक आ गई है तो शेष सीटों के बारे में क्या कहा जाए कि वे किस दिशा में जाएंगी? वे निश्चय ही भाजपा की दिशा में जाएंगी। यदि आज ही दिल्ली में चुनाव करवाए जाएं तो भाजपा अपनी विधायक संख्या 3 से बढ़ाकर 22 तक ले जाएगी और कांग्रेस वहीं की वहीं यानी कि शून्य सीट तक ही सिमटी रहेगी। यह ओपिनियन पोल देश के सबसे शक्तिशाली मीडिया घरानों में से एक ए.बी.पी. द्वारा करवाया गया है जिसका मुख्यालय कोलकाता में ही है, जहां तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी से इसको खूब संवाद रचाने का मौका मिलता है। 

ए.बी.पी. ने स्पष्टत: घटनाओं का रुख भांप लिया है। कभी इसके एडीटर-इन-चीफ अवीक सरकार माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और कांग्रेस को परामर्श दिया करते थे कि वे ममता के विरुद्ध एकजुट होकर विधानसभा चुनाव लड़ें। यह एक बहुत बेहूदा नीति थी क्योंकि इसी चुनाव के समानांतर केरल में कांग्रेस और वामपंथी एक-दूसरे के बाल नोचने पर तुले हुए थे। पश्चिम बंगाल में सीताराम येचुरी की नीति का न केवल दिवाला निकल गया बल्कि इसके साथ ही पूरी पार्टी में उनके साथी प्रकाश कारत छा गए और उन्होंने पार्टी को इस बात के लिए राजी कर लिया कि कांग्रेस के साथ देश में कहीं भी चुनावी गठबंधन नहीं किया जाएगा।

‘आप’ और तृणमूल कांग्रेस में सांझी बात यह है कि दोनों ही भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखती हैं। केजरीवाल और ममता एक ऐसा केन्द्रीय गुट हैं, जो 2019 के आम चुनाव के लिए ऐसी पाॢटयों की तलाश कर रहा है जो उन्हीं की तरह कांग्रेस और भाजपा दोनों से समान दूरी बनाए रखती हों। यह स्पष्ट है कि इसी लक्ष्य को लेकर केजरीवाल ने दिग्गज अभिनेता कमल हासन द्वारा लांच की गई नई राजनीतिक पार्टी ‘मक्कल निधि मय्यम’ के उद्घाटन समारोह में हिस्सा लेने के लिए मदुरै की यात्रा की थी। तेलगुदेशम पार्टी नेता चंद्रबाबू नायडू ने भी ऐसे समय पर इस नई तमिल पार्टी के प्रति उत्साह दिखाया है, जब वह अपने लिए नए-नए विकल्पों की तलाश कर रहे हैं। 

यह पूरा सिलसिला अभी प्रारंभिक दौर में ही है लेकिन अंदरखाते बहुत जोर-शोर से गुप्त मीटिंगों का सिलसिला जारी है। ऐसी लगभग प्रत्येक प्राइवेट मीटिंग में अटल रूप में ऐसे दमगजे मारे जाते हैं, जोकि हवा में तलवार चलाने जैसे होते हैं: यह जुंडली आसानी से सत्ता नहीं छोड़ेगी। ऐसे में दिमाग में यह सवाल आता है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी हाथ से सत्ता न जाने देने के लिए क्या करेगी? इस बारे में भी उक्त मीटिंगों में इस प्रकार की हवाबाजी होती है: इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में हेराफेरी की जाएगी; बहुत बड़े स्तर पर साम्प्रदायिक दंगों की साजिश रची जाएगी; राम मंदिर मुद्दे को फिर से आंच दी जाएगी और सीमा पार पाकिस्तान को शायद इतने भयावह दिन देखने पड़ेंगे कि उनकी तुलना में सर्जिकल स्ट्राइक मात्र चुकौटी ही सिद्ध होंगे। 

भाजपा के समझदार लोग पहले ही यह जुगत लड़ा रहे हैं कि मोदी के बाद उनका जीवन कैसा होगा। यह तो साधारण आदमी के भी समझ में आता है कि यू.पी., राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश इत्यादि में जहां भाजपा ने 31 प्रतिशत वोट हिस्सेदारी के साथ निर्णायक बहुमत हासिल किया है, वहां आगामी चुनाव में इसकी जीत का आकार काफी घट जाएगा, जिसके चलते इसे सरकार बनाने के लिए गठबंधन की जरूरत होगी। लेकिन मोदी ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें गठबंधन की राजनीति से कोई खास लगाव नहीं है। 

राहुल गांधी जिस तरह अथक तीर्थयात्री की तरह एक के बाद दूसरे मंदिर में नतमस्तक हो रहे हैं, उससे भाजपा के चुनावी दाव-पेंच बहुत सीमित होकर रह गए हैं। वैसे अपनी इस रणनीति से राहुल मुस्लिमों को खुद से कुछ दूर धकेल रहे हैं। ऐसे में भाजपा सत्ता में आने के लिए वह हथकंडा कारगर ढंग से नहीं अपना पाएगी, जो इसने पिछली बार अपनाया था। अब की बार साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना कुछ अधिक मुश्किल हो गया है। यदि ध्रुवीकरण नहीं हो पाता तो पाकिस्तान के विरुद्ध असाधारण रूप में कड़ी नीति अपनाने का भी भाजपा को क्या लाभ होगा? ऊपर से मतदाताओं को जमीनी स्तर पर विकास नाम की कोई चीज दिखाई नहीं दे रही। ऐसे में 2019 के लिए भाजपा कौन सा चुनावी खेल खेलेगी? 

यह परिदृश्य लगातार विस्तार ले रहा है और 2019 तक ऐसा ही होता रहेगा। तो फिर हर कोई ‘आप’ पर डोरे डालने का प्रयास क्यों कर रहा है, जिसकी सरकार केवल दिल्ली तक ही सीमित है? सच्चाई यह है कि ‘आप’ केवल दिल्ली तक सीमित नहीं है। पंजाब में अपने पहले ही प्रयास दौरान वह मुख्य विपक्षी दल बनने में सफल हुई है। जहां प्रमुख पार्टियों को अनिश्चित भविष्य की आशंका सता रही है, वहीं ‘आप’ ने दिल्ली में गरीब लोगों के लिए शिक्षा व स्वास्थ्य के साथ-साथ बिजली और जलापूर्ति के मामले में असाधारण कारगुजारी दिखाते हुए अपनी पोजीशन अच्छी तरह मजबूत कर ली है। तथ्य यह है कि गरीब और झोंपड़-पट्टियों में आपात आधार पर जलापूर्ति की पाइप लाइनें बिछाई जा रही हैं। 

केजरीवाल के लिए सबसे खतरे की बात तो यह है कि जमीनी स्तर पर जो ठोस काम उन्होंने किया है, उसको कार्यकारी निर्देश और प्रापेगंडे के बूते कहीं पराजय की ओर न धकेल दिया जाए। सुदूर त्रिपुरा में मुख्यमंत्री माणिक सरकार की पोजीशन भी कोई कम डावांडोल नहीं। वह भी कार्पोरेट घरानों की उंगलियों पर नाचने वाली सरकार के लिए त्रिपुरा में उसी तरह की चुनौती बने हुए हैं, जैसी दिल्ली में केजरीवाल प्रस्तुत कर रहे हैं।-सईद नकवी

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