लोकतंत्र किसी की निजी जागीर नहीं

Saturday, Mar 18, 2023 - 05:53 AM (IST)

यह बेहद अफसोस की बात है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने लंदन में भारतीय लोकतंत्र की स्थिति की निंदा की थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी की टिप्पणियों को ‘130 करोड़ साथी भारतीयों का अपमान’ कहा है। केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सही कहा है कि राहुल गांधी ने अपनी टिप्पणियों से पूरे भारत को बदनाम किया है। युवा कांग्रेसी नेता से इसकी उम्मीद नहीं थी। उन्हें शायद इस बात का अहसास नहीं है कि उन्होंने अपनी टिप्पणियों से देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू सहित कांग्रेस नेताओं की एक पीढ़ी को बदनाम कर दिया है।

राहुल गांधी लोकसभा के सांसद हैं। लंदन में उन्होंने कहा था कि भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी तरह से ‘चरमरा’ रही है। इस तरह की जल्दबाजी वाली टिप्पणियों की निश्चित रूप से जरूरत नहीं थी। उनकी ओर से कही गई जो बात समान रूप से खेदजनक है वह यह थी कि विदेशी शक्तियों को भारत के लोकतंत्र को बचाना चाहिए। यह भारतीय लोकतंत्र की ताकत के बारे में उनकी समझ को दर्शाता है या फिर राहुल विदेशी शक्तियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ऐसा कर रहे हैं।

किसी भी तरह से राहुल ने अभी तक अपने नेतृत्व के गुण नहीं दिखाए हैं। हमें सही प्रकार के राजनीतिक नेतृत्व को विकसित करने की जरूरत है। एक व्यक्तिगत कार्य के रूप में नहीं बल्कि एक संस्था के रूप में। यहां यह सवाल उठाया जा सकता है कि क्या लालू प्रसाद यादव लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित होते हुए भी सुझाए गए रोल माडल के अनुरूप हैं? इसका वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करना होगा ताकि हम अपने लोकतांत्रिक कामकाज में कार्यात्मक अंतराल को ठीक से समझ पाएं।

बेशक लोकतांत्रिक संस्थानों से निष्पक्ष होने की अपेक्षा की जाती है। हाल के वर्षों में शासन प्रणाली की विश्वसनीयता को नुक्सान पहुंचा है क्योंकि व्यक्तिगत, पारिवारिक या पक्षपातपूर्ण लाभ के लिए इसका दुरुपयोग किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफलता की कहानी बिल्कुल अलग श्रेणी में आती है जिसका अलग से अध्ययन करने की जरूरत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व्यवस्था का उपयोग करने की कला को इस तरह से जानते हैं कि जहां जनता की नजर में सत्ता की वैधता को कम नहीं किया जा सकता।

उन्होंने शक्ति का उपयोग व्यक्तिगत लाभ के साधन के रूप में नहीं किया है। न ही उन्होंने निहित स्वार्थों द्वारा सरकारी खजाने को संरक्षण और लाभ के साधन के रूप में इस्तेमाल किया है।वास्तव में यह ध्यान रखने की जरूरत है कि भारतीय लोकतंत्र को किसी की जागीर के रूप में नहीं चलाया जा सकता। न ही इसे लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी जैसों द्वारा कमजोर होने दिया जा सकता है। देश के बदलते परिदृश्य में राजनीतिक संस्कृति को अपनी ताकत समाज के जमीनी स्तरीय मूल्य आधारित वर्गों से प्राप्त करनी होगी न कि स्थानीय बाहुबलियों, शराब माफियाओं, तस्करों और तेज-तर्रार राजनेताओं से।

यहां देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चुनौती है। वास्तव में अब समय आ गया है कि लोगों की भलाई के लिए हमारे लोकतंत्र को कुशलतापूर्वक और पारदर्शी रूप से कार्य करने के लिए एक व्यवहार्य प्रणाली विकसित की जाए। इस बात पर भी जोर देने की जरूरत है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की ताकत काफी हद तक नेतृत्व की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। यह कोई रहस्य वाली बात नहीं है कि देश के नेतृत्व ने अक्सर महत्वपूर्ण मुद्दों के दौरान भी इसका सामना किया है। इस प्रक्रिया में इसने लोगों के मन में एक रीढ़ विहीन शरीर की छवि बना दी है जो कभी अपने स्वयं के  अनिर्णय का कैदी होता है। आइए, आजादी से पहले के समय पर एक नजर डालते हैं।

उस काल के अधिकांश नेता विभिन्न राजनीतिक समूहों के थे। फिर भी वे मूल रूप से आम लोगों की जरूरतों के अनुरूप ही थे। वे सुशिक्षित, संवेदनशील और प्रबुद्ध थे। वे सिद्धांतों और आदर्शों के व्यक्ति थे और मिट्टी से गहराई तक जुड़े हुए थे। इस संदर्भ में मैं पंडित मदन मोहन मालवीय, बाल गंगाधर तिलक, मोती लाल नेहरू, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, आचार्य जे.बी. कृपलानी, जवाहर लाल नेहरू, स. वल्लभ भाई पटेल और कई अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों का उल्लेख करना चाहूंगा।

वे लोगों की आशाओं व अपेक्षाओं के बहुत करीब थे। सर्वोद्य नेता जयप्रकाश नारायण भी ऐसे ही  थे। पीछे मुड़ कर देखें तो यह अफसोसजनक बात है कि समय के साथ-साथ बीते वर्षों के आत्म-बलिदानी नेता की छवि नाटकीय रूप से बदल गई है। इन दिनों अधिकांश राजनीतिक नेता अपने असली रंग में सत्ता के साधक के रूप में देखे जाते हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य किसी भी कीमत पर अधिकार की स्थिति पर कब्जा करना और उसे बनाए रखना है, भले ही  विरासत में मिली समस्याओं से निपटने की उनकी क्षमता कुछ भी हो।

इससे लोगों में मायूसी का दौर शुरू हो चुका है। शायद आजकल लोगों को यह अहसास हो गया है कि उनके ‘देवताओं’ के पैर मिट्टी के हैं। विचारणीय ङ्क्षबदू यह है कि क्या हम मौजूदा अस्त-व्यस्त स्थिति से बाहर आ सकते हैं? इस प्रश्र का मेरा त्वरित उत्तर है, हां! क्यों नहीं? हमारे कुछ युवा नेता काफी होनहार हैं। स्वच्छ राजनीति और पारदर्शी शासन व्यवस्था के लिए उन्हें खुद को साबित करना होगा और विभिन्न दलों के नेताओं पर दबाव बनाए रखना होगा। -हरि जयसिंह

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