‘दिल्ली की सरकारें पंजाब को कभी समझ नहीं पाई’

Sunday, Jan 31, 2021 - 05:28 AM (IST)

दिल्ली की सरकारें कभी भी पंजाब को समझ नहीं पाई है और अभी भी ऐसा ही हो रहा है। पंजाब की धरती 1966 तक दिल्ली की सीमाओं तक बढ़ी हुई थी। इसमें वर्तमान हिमाचल प्रदेश के बड़े हिस्से भी शामिल थे। इससे दो दशक पहले दिल्ली पेशावर तक या फिर 1901 से पहले खैबर दर्रे तक फैली हुई थी। 

वर्तमान किसान आंदोलन को समझने के लिए हमें इतिहास को समझने की जरूरत है। हमें उन लोगों को भी समझने की जरूरत है जो इस संघर्ष के अगुआ हैं। 10वीं से 18वीं शताब्दी तक कम से कम 70 हमलावरों ने खैबर के रास्ते भारत में प्रवेश किया। इन हमलावरों को प्रतिरोध से गुजरना पड़ा। आक्रमणकारियों को दयालु लोगों की आग झेलनी पड़ी जोकि सबसे विपरीत परिस्थितियों में भी लडऩा और जीवित रहने के आदी थे। उन्होंने भाग्यवादी यथार्थवाद की भावना का अधिग्रहण किया जिसे एक वाक्यांश में अभिव्यक्त किया जा सकता है। 

‘खादा पीता लाहे दा, बाकी अहमद शाहे दा’
1857 में स्वतंत्रता के पहले संग्राम में असफल रहने के मद्देनजर अंग्रेजों ने ‘मार्शल रेस थ्यूरी’ को गढ़ते हुए अपने पारम्परिक भर्ती स्थानों से अपने आपको बदला। इसके नतीजे में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में बहुत भारी भर्ती 1870 के दशक में अविभाजित पंजाब से की गई। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने इस प्रांत से 5 लाख लोगों को भर्ती किया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यह प्रक्रिया और भी तेज हो गई। द्वितीय विश्व युद्ध में यह आंकड़ा 10 लाख के पार हो गया। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर ज्यादातर ऐसे सैनिकों को हटा दिया गया और यह सैनिक अपने संबंधित गांवों की ओर लौट गए। पंजाब के लोगों की इच्छा और उम्मीदों के विपरीत 1947 में इसे विभाजित कर दिया गया। 

आजादी के बाद लाखों लोगों ने फिर से एक शरणार्थी के रूप में अपना जीवन शुरू किया। इस क्षेत्र के सैन्य बल तथा प्रवासी लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि बन गया। 1966 में जनसंख्या नीति के तहत सशस्त्र बलों में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी घट गई और इस क्षेत्र के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि से जुड़ गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने संत फतेह सिंह के साथ उनके 25 सितम्बर 1965 को अकाल तख्त साहिब पर आत्मदाह को त्यागने की बात पर तीन प्रतिबद्धताएं कीं। इन प्रतिबद्धताओं में पंजाबी भाषा बोलने, राज्य का गठन, सार्वजनिक खरीद और कृषि उपज पर वापसी शामिल थी। इस प्रकार फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया की स्थापना 1965 में हुई। 1965 में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) और पब्लिक वसूली का प्रशासन शुरू हुआ। यह ऐसी प्रतिबद्धताएं हैं जिन्हें किसान शांतिप्रिय ढंग से पिछले 4 महीने से कर रहे हैं। 

आंदोलनकारी किसानों के लिए कृषि का अर्थशास्त्र क्या है? परम्परागत ज्ञान दर्शाता है कि इस क्षेत्र के 84 प्रतिशत किसानों के पास 3 से 5 एकड़ तक की जमीन है। ज्यादातर किसान दो फसलें उगाते हैं। नवम्बर में गेहूं और जून में चावल की बुवाई होती है। एक एकड़ भूमि से 20 से 24 क्विंटल गेहूं की पैदावार होती है। एक क्विंटल 100 किलोग्राम के बराबर होता है। बुरे वक्त में पैदावार 7 से 10 क्विंटल हो जाती है। 1925 रुपए एम.एस.पी. पर एक किसान को प्रति एकड़ करीब 38500 रुपए मिलते हैं। हालांकि इनपुट की लागत प्रति एकड़ 11300 रुपए पड़ती है। इस तरह 6 महीने की कड़ी मशक्कत करने के बाद किसान 27200 रुपए प्रति एकड़ प्राप्त करता है जो हिसाब से प्रति माह 4530 रुपए बनता है। यदि किसान के पास 3 एकड़ का प्लाट हो तो उसे 13590 प्रति माह प्राप्त होते हैं। इसमें परिवार के 4 या 5 सदस्यों की कड़ी मेहनत शामिल नहीं है जो वह दिन-रात करते हैं। 

चावल की पैदावार प्रति एकड़ एक अच्छे वर्ष में 22 से 25 क्विंटल प्रति एकड़ बैठती है। 1870 रुपए एम.एस.पी. पर प्रति एकड़ 46750 का आंकड़ा बैठता है। इनपुट की लागत 13800 रुपए बैठती है। इस तरह एक किसान करीब प्रति एकड़ 6 माह की कड़ी मेहनत के बाद 32950 रुपए पाता है जो प्रति माह 5490 रुपए बनती है। इतनी थोड़ी आय के साथ हमारे किसान सर्दी तथा कोविड-19 को झेलते हुए आंदोलन कर रहे हैं। सरकार इसे भी उनके हाथ से छीनना चाहती है। इस तरह सरकारी वसूली तथा एम.एस.पी. का आश्वासन दिया जाना चाहिए ताकि कृषि समुदाय का सुरक्षाचक्र बना रहे। एन.डी.ए. सरकार अब इस सामाजिक सुरक्षा ढांचे को तहस-नहस करना चाहती है।-मनीष तिवारी 
 

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