दिल्ली 2012 बनाम उन्नाव 2019

Tuesday, Aug 06, 2019 - 02:32 AM (IST)

उन्नाव दुष्कर्म मामले पर लिखे अपने हालिया लेख में एक कालमनवीस ने पूछा था कि किसी समय सड़कों पर इतना गुस्सा क्यों दिखाया जा रहा था और अब इतना कम क्यों है? वह गत माह 29 जुलाई को इंडिया गेट पर आयोजित एक प्रदर्शन में शामिल बहुत कम लोगों की बात कर रहे थे जो दुष्कर्म पीड़ित 19 वर्षीय एक लड़की के साथ एकजुटता दिखाने के लिए एकत्र हुए थे, जो एक संदिग्ध सड़क दुर्घटना के बाद अब अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रही है। 

16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली में 23 वर्षीय एक युवती (मैंने जानबूझ कर मीडिया द्वारा उसे दिया गया फर्जी नाम नहीं लिखा) के साथ सामूहिक दुष्कर्म को लेकर उत्पन्न जनाक्रोश किसी अकथनीय अपराध पर सिविल सोसाइटी की तुरंत प्रतिक्रिया के लिए एक स्वर्ण मानदंड बन गया है। फिर भी महिलाओं से दुष्कर्म अथवा उनके खिलाफ किए गए सभी अपराधों के खिलाफ ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देखने को मिली। क्यों? यह प्रश्न पहले भी बार-बार पूछा जा चुका है। महिलाएं, जो गरीब, दलित व आदिवासी तथा कश्मीर या उत्तर पूर्व से आमतौर पर पूछती रही हैं कि जब उनके साथ दुष्कर्म होता है तो क्यों मोमबत्तियां हाथ में लेकर जागरूकता मार्च अथवा प्रदर्शन नहीं किए जाते? क्यों एक दुष्कर्म दूसरे से अधिक महत्वपूर्ण है? 

दुष्कर्म की राजनीति
दुष्कर्म की राजनीति के पीछे बहुत से अलग कारण हैं। मगर यदि हम 2012 तथा आज के बीच प्रतिक्रिया में अंतर पर नजर डालें तो इसके कारणों में अपराध की प्रकृति, अपराध का स्थान तथा उस समय की प्रभुत्वशाली राजनीति शामिल है। पहले, 2012 में प्रदर्शन के लिए  स्थान तथा मनोवैज्ञानिक लिहाज से जगह। लोगों को सड़कों पर कब्जा कर अपना गुस्सा दर्ज करवाने में कोई डर नहीं था। तब सरकार एक ढीला गठबंधन था जिसमें बहुत सी दरारें थीं जिससे यह पहुंच योग्य के साथ-साथ असुरक्षित भी थी। 

आज, आम चुनावों में दो विजयों के बाद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी का संसद में जोरदार बहुमत, अधिकतर राज्यों में यह सत्तासीन है तथा पहले ही यह दिखा चुकी है कि क्यों इसे विपक्ष, राजनीति अथवा अन्य चीजों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है। सरकार तथा सत्ताधारी पार्टी खुद को ‘राष्ट्र’ की सबसे बड़ी हितैषी के रूप में पेश करती हैं। इसलिए सरकार पर कोई भी प्रश्र उठाने अथवा इसका विरोध करने का अर्थ अपने आप ‘राष्ट्र विरोधी’ हो जाता है। 
दूसरे, 2012 की घटना राष्ट्रीय राजधानी में हुई, जो राजनीतिक तथा मीडिया की शक्ति का स्थान है। वहां पर प्रदर्शन करना दोनों का ध्यान आकर्षित करता है।

2019 में, अपराध उत्तर प्रदेश के एक छोटे से नगर में हुआ जो मीडिया तथा राजनीतिक शक्ति के केन्द्र से दूर है। जहां मीडिया ने इस पर अधिक ध्यान नहीं दिया, वहीं भाजपा नीत राज्य सरकार ने इसे नजरअंदाज किया। तीसरे, 2012 में व्यक्तियों पर अपराध के आरोप लगाए गए और अंतत: उन्हें दोषी घोषित किया गया, जो शक्तिहीन, शहरी गरीबी का एक हिस्सा थे, जिन पर बिना किसी नतीजों के डर से दोष लगाया जा सकता था। 2019 में, आरोपी व्यक्ति कुलदीप सिंह सेंगर सत्ताधारी भाजपा से संबंधित था जो काफी धनवान विधायक है। जब दरिंदे शक्तिहीन हों तो मीडिया सहित हम सभी गुस्सा कर अपनी आवाज बुलंद कर सकते हैं। जब वे शक्तिशाली हों तो हमारी प्रतिक्रिया कमजोर होती है। 

पीड़िता ने खुद आवाज उठाई
उन्नाव पीड़िता की आवाज केवल इसीलिए सुनी जा सकी क्योंकि उसने अत्यंत जोखिम उठाया और खुद को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कार्यालय के सामने अग्निभेंट करने की धमकी दी। मगर यह भी काम नहीं आया। आज उसके द्वारा भारत के चीफ जस्टिस सहित हर किसी को असंख्य याचिकाएं भेजने के बावजूद जब वह मृत्यु के करीब है, तब हम जागे हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराधों के विरोध में इन अलग तरह की प्रतिक्रियाओं से हम क्या सीख सकते हैं? 

जब कोई अपराध सार्वजनिक रूप से किया जाता है, जैसे कि उदाहरण के लिए दिल्ली में चलती बस में, हम अचम्भित हो जाते हैं और हमें डर लगता है। जब यह किसी घर, किसी दफ्तर की चुप्पी में किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जिससे हमारा ‘रक्षक’, मित्र, संबंधी, पड़ोसी अथवा कानून का प्रतिनिधि होने की आशा की जाती है, हम मदद के लिए की गई चिल्लाहट पर ध्यान नहीं देते। ऐसा उन महिलाओं के मामले में भी है जो अपनी जाति, वर्ग अथवा भौगोलिक स्थिति के चलते सामने नहीं आ पातीं। 

फिर भी उन्नाव की 19 वर्षीया के साथ जो हुआ वह भारतीय महिलाओं के खिलाफ अपराधों के 90 प्रतिशत से अधिक का प्रतिनिधित्व करता है, जो उनके जान-पहचान वाले अथवा उन लोगों द्वारा किया जाता है जो उन पर अपनी ताकत दिखाते हैं। यही है जिसके बारे में हमें उग्र होना चाहिए क्योंकि उन्नाव की यह महिला भारत में प्रत्येक 10 महिलाओं में से एक का प्रतिनिधित्व करती है।-के. शर्मा

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