राजनीतिक चकाचौंध में तेज हुआ दल-बदल
punjabkesari.in Wednesday, Sep 21, 2022 - 05:29 AM (IST)

हमारे देश में अब एक राजनीतिक परिपाटी ही बन गई है। हर राजनीतिक दल, दल-बदलुओं का बांहें पसारकर और दिल खोलकर स्वागत करता है। इसमें वे दल सबसे आगे हैं, जो सत्ता में हैं। कल तक सत्तारूढ़ दल को घोर साम्प्रदायिक, देश-विरोधी और अमर्यादित बताने वाला कोई नेता दूसरी सुबह उसी दल के मंच पर उसी का झंडा थामे उसका गुणगान करता नजर आता है।
पिछले दिनों गोवा में कांग्रेस के 8 विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हो गए। गाहे-बगाहे देश के विभिन्न राज्यों में विपक्षी दलों के विधायकों के येन-केन-प्रकारेण दलबदल की खबरें प्रकाश में आती रहती हैं। गोवा की तरह पूर्वोत्तर राज्यों कर्नाटक व मध्यप्रदेश में भी दलबदल की घटनाएं पिछले दिनों प्रकाश में आई हैं। इन घटनाओं को लोकतंत्र में जनता के विश्वास से छल ही कहा जाएगा कि जनप्रतिनिधि जनता से किसी पार्टी के नाम पर वोट मांगता है और फिर दूसरे राजनीतिक दल की बांह पकड़ लेता है। इस प्रवृत्ति के चलते विभिन्न राजनीतिक दलों के सहयोगियों में भी अविश्वास बढ़ा है।
दल-बदल की प्रवृत्ति राजनीतिक चकाचौंध के वर्तमान माहौल में पिछले तीन दशक से काफी तेजी से बढ़ती आई है। दल बदलुओं को अपना मंच देकर राजनीतिक दल आम आदमी के मन में निराशा पैदा करते हैं। ईमानदार, अच्छी सोच वाले दूरदर्शी नेता लुप्त होते जा रहे हैं। ऐसे में अहम सवाल यह है कि क्या ऐसा करके राजनीतिक दल और उनके नेता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल मंत्र और चुनाव-व्यवस्था तथा संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ नहीं करते? राजनीतिक दलों और नेताओं को लगता है कि कोई फर्क ही नहीं पड़ता। इसमें वे कुछ गलत, अनैतिक देखते ही नहीं। आखिर इसे क्यों उचित नहीं माना जाता है? यह उचित इसलिए नहीं है कि दल विशिष्ट राजनीतिक विचारधारा के आधार पर बनते हैं।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां पर सरकारें चुनावों के माध्यम से चुनी जाती हैं। सत्ता हासिल करने के लिए नेता दल बदलने में देर नहीं लगाते हैं। बिना सिद्धांत के दूसरी पार्टी में ऐसे जम जाते हैं, जैसे वे शुरू से इसी पार्टी में हों। नेताओं का लक्ष्य सिर्फ सत्ता प्राप्ति है। उनके लिए न तो कोई लोकमत का महत्व है, न ही जनतंत्र का। उनके न कोई मूल्य हैं और न ही सिद्धांत। वे सत्ता की चाह में साम, दाम, दंड, भेद सब अपनाते हैं। नेताओं को चुनाव के लिए टिकट का न मिलना दलबदल का प्रमुख कारण है। जब किसी दल के किसी सदस्य को या उसके साथी को पार्टी टिकट नहीं मिलता है, तो वह उस दल को छोड़ देता है। जिनको सच में समाज या देश की सेवा करनी होती है, वे दलबदल पर ध्यान नहीं देते।
इस हमाम में सब नंगे हैं। साम, दाम, दंड, भेद से सत्ता हथियाने की इच्छा से कोई दल अछूता नहीं है। इसलिए चंद सीटों के लालच में ऐसे नेताओं को अपनाने से कोई दल पीछे नहीं रहना चाहता। नेताओं के बीच दलबदल जितना सहज और सरल हो गया है, वोटर के लिए नेता उतना ही अविश्वसनीय होता जा रहा है। यद्यपि आजादी के बाद से ही नेताओं की छवि पर सवाल खड़े होते रहे हैं। जन सेवा का भाव ही नेताओं के एजैंडे से गायब होता जा रहा है। किसी भी स्तर का चुनाव जीतने के बाद नेताओं के रहन-सहन में जो बदलाव आता है, वह वोटर की निगाह से बच नहीं पाता।
वर्तमान में राजनीति धन अर्जित करने का सबसे सरल और सुरक्षित साधन है। हमारे देश के ज्यादातर नेताओं का कोई राजनीतिक सिद्धांत नहीं है और सिद्धांत विहीन राजनेता ही अपनी सुविधा के अनुसार दल बदलते रहते हैं। यह भी कटु सत्य है कि आज बहुत सारे नेता जन सेवा के बहाने तरह-तरह के कारोबार में लिप्त हैं। ऐसा भी नहीं है कि उनके सारे व्यापार नियमानुकूल और साफ-सुथरे हैं। अवैध-धंधों और नियम-विरुद्ध काम करने के लिए कई नेता कुख्यात हैं। वे कानून की पकड़ से बचने के लिए हर समय सत्ता पक्ष में रहना चाहते हैं। इसीलिए जो दल सत्ता में आए, उसके साथ हो जाते हैं।
सैद्धांतिक तौर पर भी देखा जाए तो सांसद अथवा विधायक के तौर पर निर्वाचित व्यक्ति यदि इस्तीफा देकर दूसरे दल में शामिल होता है तो वह गलत नहीं माना जा सकता। विधायकों और सांसदों के दलबदल में अब यही पैटर्न देखने को मिल रहा है। लेकिन, निकायों के प्रतिनिधि दल को छोड़े बगैर ही क्रॉॅस वोटिंग के जरिए अपनी प्रतिष्ठा को दाव पर लगा रहे हैं। किसी भी नेता का दलबदल कृत्य उस क्षेत्र के मतदाताओं का अपमान है। स्वार्थ सिद्धि नहीं होने पर नेता पाला बदल लेता है।
वर्तमान में दलबदल कानून का प्रभाव न के बराबर है। इस कानून को हर बार टंगड़ी मार दी जाती है और शोर भी नहीं होता। इस कानून की खामियां भी कई बार सामने आती हैं, जिसे दूर किया जाना भी बहुत जरूरी है। यह कानून थोक दलबदल को मान्यता देता है, अयोग्यता का फैसला स्पीकर लेता है, जो काफी विवादास्पद है। दलबदल कानून में पुन: संशोधन होना चाहिए। अब सबको एक साथ बैठकर एक कानून उन लोगों के लिए बनाना चाहिए जो बीच में ही दल-बदल करते हैं।
जो भी अपनी मूल पार्टी को छोड़कर दूसरे दल में जाना चाहता है उसे कम से कम एक से दो वर्ष बिना किसी राजनीतिक पार्टी में जाए बैठना चाहिए, तत्पश्चात उसे नए दल में जाने के लिए इजाजत मिलनी चाहिए। इस पूरी प्रक्रिया को एक कानून बनाकर संसद के दोनों सदनों से पास करा लेना चाहिए। अगर सारे राजनीतिक दल आने वाले समय में सही कदम नहीं उठाएंगे तो देश एक बहुत बड़ी निराशा के माहौल की ओर बढ़ जाएगा। दलबदल और स्वार्थपरक राजनीति के चलते आम आदमी के भीतर राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति विमुखता की प्रवृत्ति भी पनपने लगी है। ऐसा माहौल किसी भी लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं कहा जाएगा।-राजेश माहेश्वरी