ममता को हराना नामुमकिन नहीं, मुश्किल तो है!

punjabkesari.in Wednesday, Dec 10, 2025 - 05:23 AM (IST)

पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में अब 4-5 महीने का समय भी नहीं बचा। अगले साल मार्च-अप्रैल में चुनाव होना है। पिछले तीन चुनावों की तरह मुख्य मुकाबला तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच ही दिखेगा, यह पक्का है। पश्चिम बंगाल को जीतने के लिए भाजपा दस साल से तड़प रही है। मगर हर बार टी.एम.सी. नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बंगाल विजय के उसके मंसूबे पर पानी फेर देती हैं। वर्ष 2021 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में पी.एम. मोदी के ‘दीदी ओ दीदी’ नारे को ममता बनर्जी ने ‘खेला होबे’ से पराजय रेखा के पार समेट दिया था (बांग्ला में ‘व’ की ध्वनि नहीं है, वहां ‘ब’ का ही उच्चारण किया जाता है)।  हालांकि तब मीडिया के एग्जिट पोल भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर बता रहे थे मगर जब नतीजे आए तो कमल दल (भाजपा) 77 सीटों तक पहुंच पाया था, जबकि ममता की पार्टी ने 215 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत हासिल किया। भाजपा ने उस चुनाव में ङ्क्षहदू-मुस्लिम कार्ड और बंगलादेशी घुसपैठ को मुख्य मुद्दा बनाया था।

भाजपा को उम्मीद थी कि नागरिकता संशोधित कानून (सी.ए.ए.) का दाव चलेगा, मगर ममता ने भाजपा के इस ब्रह्मास्त्र को पूरी तरह विफल कर दिया था। इतना ही नहीं, चुनाव के बाद भी भाजपा में बड़ी सेंध लगाई गई। पाला बदलने और उपचुनावों में हार के बाद भाजपा विधायकों की संख्या सदन में और घटकर 65 ही रह गई। लेकिन अब क्या? भाजपा ने दीदी के लिए एक बार फिर से मोर्चाबंदी शुरू कर दी है। दीदी पर पुराने आरोप, जिनमें तुष्टीकरण सबसे बड़ा है, तो लग ही रहे हैं, बंगाल की अस्मिता को भी नुकसान पहुंचाने का आरोप है। दूसरी तरफ यह भी सच है कि इन आरोपों की ध्वनि को विशाल रूप देने के लिए उसके पास नेताओं का सामूहिक बिगुल नहीं है। बंगाल में भाजपा के साथ कुछ अंदरूनी दिक्कतें हैं खासकर संगठन के स्तर पर। तृणमूल पार्टी से तोड़कर लाए गए ममता दीदी के खास शुभेंदु अधिकारी को कमान देने से राज्य के पुराने खांटी नेता खुद को उपेक्षित मानकर अलग-अलग दिशा में चलते हैं। इनमें दिलीप घोष तो अपनी नाराजगी छुपाने की जरूरत भी नहीं समझते। पार्टी ने लंबे समय से उन्हें अपने किसी बड़े कार्यक्रम में नहीं बुलाया था। चुनाव आने पर वह खुद थोड़ा सक्रिय हुए हैं। वह दीघा में ममता बनर्जी के बुलावे पर जगन्नाथ धाम के उद्घाटन समारोह में भी पहुंच गए थे।

पार्टी अध्यक्ष पद को लेकर भी खींचतान मचती रही है। गत जुलाई में अचानक शमीक भट्टाचार्य को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। शमीक के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी की गुटबाजी है। पार्टी के अधिकांश नेताओं का अनुमान था कि विधानसभा चुनाव तक सुकांत मजूमदार ही अध्यक्ष रहेंगे और उन्हें इस पद से नहीं हटाया जाएगा। शुभेंदु अधिकारी भी अध्यक्ष पद के लिए अपनी दावेदारी कर रहे थे। बंगाल भाजपा में पार्टी के पुराने नेताओं और दूसरे दलों से आने वाले नेताओं के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा है। शमीक गुट के नेता यह दावा करते हैं कि शमीक को अध्यक्ष बनाने से कोलकाता फैक्टर का लाभ मिलेगा। शमीक कोलकाता के ही हैं। यह बताना भी जरूरी है कि कोलकाता में भाजपा कमजोर है। इन सबके बावजूद पार्टी का केंद्रीय हाईकमान भी अब पूरी तरह से चुनाव मोड में है। इस बार कुछ नए मुद्दों के साथ बंगाल के किले की घेराबंदी की जाएगी। राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ की रचना के 150 साल पूरे होने पर संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पर बहस का आगाज किया। वंदेमातरम गीत बंगाल की जनता के गर्व और गौरव की अनुभूति है। इसलिए संसद में इस मुद्दे पर की गई चर्चा का असर बंगाल के चुनावों में दिखेगा। भाजपा के स्थानीय नेता इसे बंगाली अस्मिता से भी जोड़ रहे हैं।

दरअसल दीदी की घेराबंदी के पीछे भाजपा या दीदी की विरोधी दलों  की अपनी सोच भी है। उसके नेता यह मानते रहे हैं कि दीदी को हराना मुश्किल जरूर है, पर नामुमकिन नहीं। दरअसल पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की मजबूती का राज तृणमूल कांग्रेस का पक्का और विस्तृत कैडर है। इस कैडर को सिर्फ राजनीति की डोर ही नहीं, आॢथक संबंध भी दृढ़ता से बांधता है। राज्य में किन लोगों के काम होंगे और किनके नहीं, ज्यादातर यह कैडर ही तय करता है। विकास योजनाओं के लिए ही नहीं, आपको अपना घर बनवाना है, उसके  लिए भी सारी खरीद कैडर के लोगों की तय दुकानों से होती है, यह आरोप लगते रहे हैं। नक्शे स्थानीय नेताओं के हवाले से पास होते हैं। यह भी आरोप हैं कि स्थानीय स्तर के सरकारी काम में भी शर्तें ऐसी ही होती हैं, जिससे कैडर को लाभ हो। आम लोगों को प्रशासन से अपना काम कराने के लिए उसी खेल से होकर गुजरना पड़ता है। दीदी के राज में कोलकाता के बड़े शहरों के बाजारों में भी यही व्यवस्था लागू है। बाजारों के कब्जे का कोई नियम नहीं है। स्थानीय नेताओं की शह पर सब चलता है, चाहे बात कोलकाता की हो या हावड़ा की, यही नियम है।  
इस चुनाव को धर्म के नाम पर एक बार फिर से गोलबंद करने की तैयारी चल रही है। गत रविवार को भाजपा ने कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में गीता पाठ किया। इसमें बड़ी संख्या में कार्यकत्र्ता मौजूद थे। इस मौके पर बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने साफ घोषणा की कि अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव केवल चुनाव नहीं होगा, बल्कि एक ‘धर्मयुद्ध’ होगा। इस गीता पाठ में धीरेंद्र शास्त्री, साध्वी ऋतंभरा, काॢतक महाराज के साथ केंद्रीय मंत्री सुकांत मजूमदार और बड़ी संख्या में साधु-संत भी आए। इस गीता पाठ की खास बात यह रही कि लंबे समय से नाराज चल रहे दिलीप घोष ने भी इस कार्यक्रम में हाजिरी लगाई। दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस से निकाले गए हुमायूं कबीर ने बंगाल में बाबरी मस्जिद बनाने का चुनावी राग छेड़ दिया है। उनकी कोशिश है कि ममता बनर्जी को मिलने वाले मुस्लिम वोटों का समर्थन उनसे छीनकर अपने पाले में कर लिया जाए। अगर ऐसा हो पाता है तो भाजपा को लाभ मिल सकता है। इसलिए धर्मयुद्ध के नाम पर जितने भी लोग बहकेंगे, वे ध्रुवीकरण का काम करेंगे। इस रणनीति से ममता बनर्जी को बड़े नुकसान का दाव चला तो दिया है, मगर यह इस पर निर्भर करता है कि बंगाल के लोग इसमें कितनी रुचि दिखाते हैं। 

एस.आई.आर. का मुद्दा बंगाल में दोधारी तलवार की तरह है। भाजपा जहां इसे अपने प्रतिकूल वोट काटने का औजार मान रही थी, वहीं बंगाल में उसे इस हथियार के उल्टा चल जाने का भी खतरा है। शायद यही वजह है कि पिछले महीने शुभेंदु अधिकारी ने मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार को पत्र लिखकर एस.आई.आर. में घोटालेबाजी का आरोप लगाया। इस तरह बंगाल का चुनाव भी कुल मिलाकर बिहार की तरह ही जनता के मुद्दों से इतर धर्म और खातों में पैसा बांटने की आजमाई रणनीति की तरफ बढ़ सकता है। भाजपा की आहट को जानकर ममता इससे आगे होने की कोशिश करेंगी, यह तय है। आखिर सरकार होने का फायदा तो उनको है ही। ऐसा भी नहीं है कि दीदी के पॉजिटिव प्वाइंट के फायदे का अंदाजा भाजपा को नहीं है, लेकिन वह क्या रणनीति तय करेगी,यह देखना होगा। भाजपा को भान है कि दीदी को हराना मुश्किल तो है, नामुमकिन नहीं।-अकु श्रीवास्तव
 


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