ऊंटों की घटती संख्या बी.एस.एफ. व गृह मंत्रालय के लिए खतरे की घंटी

Thursday, May 18, 2017 - 11:36 PM (IST)

पाकिस्तान के साथ हमारी सीमाओं का क्षेत्र विभिन्न प्रकार का है। गुजरात में कच्छ संकरी खाडिय़ों से भरा पड़ा है जिससे रेत के टीले वाला रेगिस्तान बन गया। जम्मू एवं कश्मीर में पहाड़ी क्षेत्र है। पूर्व में बंगाल में सुंदरबन और असम में ब्रह्मपुत्र नदी वाला क्षेत्र है। प्रत्येक के लिए उचित साधन चाहिए होता है। पूर्व में नौकाएं, कश्मीर में घोड़े और राजस्थान में ऊंट। 

उदाहरण के लिए राजस्थान में शाहगढ़ उभार में कई मील लंबे तीस फुट तक की ऊंचाई वाले रेत के टीले होते हैं जिन्हें केवल ऊंट पर चढ़कर ही पार किया जा सकता हैै। गर्मियों में तापमान 50 डिग्री सैल्सियस तक पहुंच जाता है। रेत के टीलों के मध्य के स्थानों पर छोटे वृक्ष तथा संकरे कुंओं में पानी मिलता है। अधिकांश क्षेत्र में रेत के टीले खिसकते रहते हैं तथा उनमें छोटी कंटीली झाडिय़ां होती हैं। आज बी.एस.एफ. के ऊंटों को राजस्थान तथा गुजरात से लगी हुई पश्चिमी सीमाओं पर तैनात किया जाता है-एक सीमा जो लगभग 1040 किलोमीटर लंबी है। मुख्य क्षेत्र जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर और गांधी नगर हैं। बी.एस.एफ . केवल युद्ध लडऩे तथा घुसपैठियों को रोकने का ही कार्य नहीं करता। इस सीमा से हथियार तथा नशीली दवाओं जैसी वस्तुओं की तस्करी के लगातार प्रयास किए जाते हैं। किसी एक ऊंट को प्रतिदिन 4-5 किलोमीटर चलना होता है।

ऊंट ऊंचे होने के चलते, उन पर बैठने वालों को लंबी दूरी तक देखने में समर्थ बनाते हैं। वे रेतीली तथा दलदली दोनों प्रकार की भूमि में चल सकते हैं तथा उन्हें चलाना आसान होता है। उनमें अत्यधिक सहनशीलता तथा दिशा की अच्छी समझ होती है जो उन्हें धूल के तूफान तथा रात की गश्त के समय के लिए श्रेष्ठ बना देता है। ऊंट बी.एस.एफ. और देश की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। इनका उपयोग केवल गश्त के दौरान चढऩे के लिए ही नहीं किया जाता है, वे सीमा पर तैनात टुकडिय़ों हेतु भोजन भी लेकर जाते हैं। वे सामान, डाक, गैस सिलैंडर, दवाओं को भी पहुंचाते हैं। वे ऐसे स्थान पर पहुंचते हैं जहां कोई और वाहन नहीं पहुंच सकता क्योंकि अन्य वाहन ढीली तथा स्थान बदलने वाली रेत में फंस जाते हैं। 

तस्करों तथा अन्य घुसपैठियों का अक्सर ऊंट सवार हमारे लोगों द्वारा पीछा किया तथा उन्हें पकड़ा जाता है। बी.एस.एफ. 16 वर्षों तक ऊंट का उपयोग करता है और फिर उन्हें नीलाम कर दिया जाता है। बी.एस.एफ. और गृह मंत्रालय में खतरे की घंटियां बजने लगी हैं। पिछले 10 वर्षों में ऊंटों की अत्यधिक तस्करी के चलते खरीद के लिए बहुत कम ही ऊंट बचे हैं। बी.एस.एफ. को 1276 ऊंटों की आवश्यकता है। उसके पास केवल 531 ऊंट हैं। 

राजस्थान सरकार ने ऊंटों को इसकी सीमाओं से बाहर ले जाने को प्रतिबंधित कर दिया है परंतु हर रोज कम से कम 16 ऊंट लदे हुए एक ट्रक की तस्करी की जाती है। सारी तस्करी बागपत के एक मुस्लिम गिरोह द्वारा की जाती है और वे अपने जघन्य व्यापार के लिए राजस्थान तथा हरियाणा के पुलिस वालों पर निर्भर करते हैं। मैं हांसी में एक थाना प्रमुख को जानती हूं जिसने कई ऊंटों को हरियाणा से उत्तर प्रदेश ले जाने में मदद की है। वह कुछेक ऐसे न्यायाधीशों को भी जानते हैं जो ऊंटों के पकड़े जाने पर, जो नियमित रूप से होता है, इन ‘‘गरीब किसानों’’ को अगले ही दिन छोड़ देते हैं। 

इन किसानों के पास प्रति माह सैंकड़ों ऊंटों को खरीदने के लिए पैसा कहां से आता है? प्रत्येक ऊंट अब एक लाख से अधिक का है और उनके समाप्त होने के साथ-साथ उनका मूल्य भी बढ़ रहा है। उन्हें पैसा कौन दे रहा होगा? सैंकड़ों ऊंट बंगलादेश जाते हैं। सैंकड़ों को बागपत, मेरठ और हैदराबाद में मारा जाता है। दर्जनों मेवात जाते हैं जो दिल्ली के निकट अत्यधिक राष्ट्रविरोधी आपराधिक बैल्ट है और वहां उन्हें मारा जाता है। एक हफ्ते हमने एक कब्रिस्तान में 200 ऊंटों को मारा हुआ पाया, उनके मृत शरीर वहां फैंके हुए थे। 

क्या ऐसा सिर्फ  मांस के लिए किया गया था? तो उन 200 ऊंटों को मार कर फैंक क्यों दिया गया? उन्हें दिल्ली लाया और मार कर नाले में क्यों फैंक दिया जाता है? क्या एक समुदाय को पिछले 10 वर्षों में एकाएक ऊंट के मांस का स्वाद अच्छा लगने लगा है? ऊंट का मांस दुर्गंध वाला, सूखा, सख्त, रेशे वाला और इसे खाना तथा पचाना कठिन होता है। इसे पकाने में काफी अधिक समय लगता है इसलिए यह अधिक लोकप्रिय तो न होगा। और फिर भी इसकी तस्करी इतनी अधिक है कि इस सदी की शुरूआत में 10 लाख या उससे अधिक ऊंटों में से अब केवल 40,000 से भी कम बचे हैं। मैं मानती हूं कि यह भारत के रक्षा बलों पर एक सुनियोजित और गुप्त रूप से किया जाने वाला हमला है। 

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