‘तीन तलाक’ के विरुद्ध फैसला सिर्फ ‘मुस्लिम सुहागिनों’ नहीं, सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय के लिए

Thursday, Aug 31, 2017 - 11:56 PM (IST)

जैसे ही खुशियां मनानी शुरू हुईं और मैंने सुप्रीमकोर्ट के तीन तलाक के निर्णय को देखा, मेरे दिमाग में जोश मलिहाबादी की रूबाई कौंध गई। ‘‘ऐ रिंध क्या यही है बाग-ए रिजवान? न हूरों का कहीं पता न गिलमा का निशान एक कुंज में मायूस-ओ-मुलूल-ओ-तन्हा बेचारे टहल रहे हैं अल्लाह मियां।’’ जोश खुदा के उद्देश्य की मनुष्य  द्वारा उड़ाई धज्जियों पर तंज कस रहे थे। 

निश्चित तौर पर यह मेरे लिहाज से पलायनवाद है मगर मैं इसमें कोई खास मदद नहीं कर सकता क्योंकि अपने जीवन के 75 से अधिक वर्षों के दौरान मैं किसी भी ऐसे व्यक्ति को नहीं जानता, यहां तक कि बहुत दूर के संबंध में भी, जिसने अपनी पत्नी को तलाक-तलाक-तलाक कह कर ठुकरा दिया हो। चूंकि मुसलमानों के व्यापक रूप से प्रचलित इस प्रथा की जकड़ में फंसे होने के कयास लगाए जाते हैं, मुझे इससे कुछ बाहर महसूस करने के लिए माफ कर दिया जाना चाहिए। जिस तरह इस प्रथा से छेड़छाड़ के खिलाफ जिस जुनून से जमायत-उलेमा-ए-हिन्द के महासचिव मौलाना महमूद मदनी ने प्रतिक्रिया दी उसने मेरी सांसें रोक दीं।

‘‘यदि आप किसी व्यक्ति को(तीन तलाक कहने के लिए) सजा देना चाहते हैं तो आप ऐसा कर सकते हैं मगर इस तरह दिए गए तलाक को  जमायत तथा व्यापक समाज से स्वीकृति मिलेगी।’’ मौलाना अपनी तरफ से मुसलमानों को तीन तलाक न देने की सलाह देते हैं मगर इस बात पर भी जोर देते हैं कि अदालतों अथवा सरकार को मुसलमानों की प्रथाओं, जिनके मुस्लिम कानूनों या शरिया पर आधारित होने की आशा की जाती है, में दखल देने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। क्या मुझे अपनी मुस्लिम पहचान बनाए रखने के लिए मौलाना के साथ खड़ा होना चाहिए? या फिर मुझे उन्हें नजरअंदाज कर देना चाहिए जैसा कि मैं अपने सारे जीवन में मुस्लिम धर्म गुरुओं के भाषणों को करता रहा हूं?

सुप्रीमकोर्ट के 5 जजों द्वारा इस अत्यंत घिनौनी प्रथा के खिलाफ सुनाए गए निर्णय को लेकर आप भी मुझे अत्यंत प्रसन्नता मनाने वालों में देख सकते हैं मगर वह भी मेरे द्वारा चुना गया रास्ता नहीं है। नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ तथा समर्थक भूमिकाओं में अन्य दलों के नेताओं के नेतृत्व में इस राष्ट्रीय उल्लास में मैं विजयवाद देखता हूं। मुसलमान पुरुषों की ठुड्डी पर दोहरा घूंसा पड़ा है और उनकी महिलाओं को तहखानों में बने हरमों से मुक्ति मिल गई है। सुप्रीमकोर्ट ने 90 प्रतिशत मुसलमानों को इस बर्बरतापूर्ण प्रथा से सुरक्षा प्रदान कर दी है। क्या मैं इस 90 प्रतिशत से संबंध रखता हूं अथवा मुझे खुदा की कृपा से 10 प्रतिशत में होने के बावजूद हमेशा से ही सुरक्षा प्राप्त है? 

चूंकि अधिकांश सर्वेक्षण ये दर्शाते हैं कि तलाक-तलाक-तलाक प्रथा एक प्रतिशत से अधिक मुसलमानों में नहीं है तो क्या सारे मुस्लिम समुदाय को एक ही रंग से रंगा जा रहा है? क्या सामाजिक कल्याण मंत्रालय, अल्पसंख्यक आयोग को यूं ही बैठे रहने की बजाय सर्वेक्षण नहीं करवाना चाहिए कि यह प्रथा किस हद तक प्रचलित है? बीफ इन दिनों एक संवेदनशील शब्द है। मगर बीफ (भैंस नहीं गाय)  का वध तथा सेवन मुसलमान, उत्तर-पूर्व, पश्चिमी बंगाल, केरल, तमिलनाडु आदि में गैर मुस्लिम तथा दलित करते हैं। क्या उनके आका देश भर में मुसलमानों के साथ हिंदुओं को बीफ खाने वाला मानेंगे अथवा इस संबंध में स्पष्टीकरण दिया जाएगा कि यह प्रथा देश के कुछ विशेष क्षेत्रों में ही प्रचलित है। 

क्या निर्णय को लेकर विश्व व्यापक उत्साह सकारात्मकता को प्रोत्साहित करता है? अब चंूकि भारतीय सत्ता अधिष्ठान तलाकशुदा मुसलमान महिलाओं के पक्ष में अत्यंत मानवीय दयालुता से भरा है, तो यह सम्भवत: केवल मुस्लिम ‘सुहागिनों’ के लिए नहीं है बल्कि सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय के लिए है, जिनकी संख्या लगभग 18 करोड़ है। एक दिन मेरी बहन तथा उसकी बेटी ने एयर इंडिया में सफर किया। उसने शाकाहारी भोजन की मांग की जबकि उसकी बेटी ने मांसाहारी की। टिकट के प्रिंटआऊट में लिखा गया था- ‘वैजीटेरियन ङ्क्षहदू मील’। दूसरे प्रिंटआऊट में लिखा गया था- नॉन वैजीटेरियन ‘मुस्लिम मील’। 

यही वो पृष्ठभूमि है जिसके खिलाफ देश तथा इसका मीडिया उस मोड़ को बढ़ा-चढ़ा कर बता रहा है, जो सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए दिया है, जिन्हें एक अनुचित तरीके से तलाक सुना दिया जाता है। जानबूझ कर अथवा अनजाने में, उनके निर्णय द्वारा पैदा की गई स्थिति राजनीति से भरी हुई है, मगर फिर भी महज एक प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं, जो तलाक-तलाक-तलाक से बच गई हैं, उनके पास भी खुशी मनाने का कारण है। यदि इस खेल का नाम प्रचार है तो इन महिलाओं को धन्यवाद की खातिर हज के लिए मक्का जाने की सुविधा उपलब्ध करवानी चाहिए। यह एक ऐसा अवसर है जिसे गंवाना नहीं चाहिए।
 

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