‘दादामुनि’ अशोक कुमार : एक व्यक्तिगत श्रद्धांजलि

punjabkesari.in Friday, Nov 15, 2024 - 05:49 AM (IST)

उगते सूरज की रोशनी मेरे हिमालयी आश्रय में मध्य पर्वतमाला पर ऊंचे खड़े राजसी देवदार के पेड़ों के बीच से छनकर आती है, और उनकी  खुशबू का आनंद लेते हुए मैं उन अनमोल यादों को खंगालता हूं, जिन्होंने कई मायनों में मेरे जीवन को परिभाषित किया है। ऐसी ही एक याद एक असाधारण व्यक्ति की है, जो न केवल भारतीय सिनेमा का पहला सुपरस्टार था, बल्कि मानवीय मूल्यों का एक शानदार उदाहरण था, जिसकी शांत गरिमा और विनम्रता आज भी उसे प्रतिष्ठित दर्जा देती है।
उन्हें उनके माता-पिता द्वारा कुमुदलाल नाम दिया गया। अशोक कुमार 60 साल से अधिक के करियर में, जिस दौरान उन्होंने 350 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया, एक अभिनेता के रूप में उनकी व्यापक अपील कम नहीं हुई।

एक अभिनेता के रूप में उनकी बहुमुखी प्रतिभा ‘कानून’ (1960)  में पूरी तरह से सामने आई। एक ऐसी फिल्म जिसने मृत्युदंड और इसकी आनुपातिकता के जटिल दार्शनिक प्रश्न पर कानून और न्याय के बीच द्वंद्व को दर्शाया। स्टार कलाकारों राजेंद्र कुमार और अशोक कुमार द्वारा मंचित एक सम्मोहक कोर्टरूम ड्रामा का प्रभाव मेरे भविष्य के पेशे के रूप में कानून के चुनाव में निर्णायक था जिसने मेरे जीवन की दिशा निर्धारित की।

जब मैं उनसे 1983 में या उसके आसपास मुंबई में अनुभवी अभिनेता सुनील दत्त के निवास पर एक पूरी तरह से अप्रत्याशित मुलाकात में मिला, तब तक दादामुनि ने मेरे दिल में एक विशेष स्थान बना लिया था। दत्त साहब पंजाबी समाज के सदस्यों के लिए रात्रिभोज का आयोजन कर रहे थे। एक बार जब मैं मुख्यमंत्री वसंत दादा पाटिल के साथ था, तब महाराष्ट्र में कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन विधायक ओ.पी. बहल के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल वसंत दादा से मिलने आया और उनसे अनुरोध किया कि वे सुनील दत्त द्वारा आयोजित रात्रि भोज में मुख्यातिथि बनें। पंजाब के गांव जैसा माहौल बनाया गया था और साथ में शानदार पंजाबी व्यंजन परोसे गए थे और फिर वह क्षण आया, जिसे मैंने कभी नहीं भुलाया। मैंने दादामुनि को बगीचे के एक अपेक्षाकृत शांत कोने में एक छोटे समूह के साथ बातचीत करते देखा। धड़कते दिल के साथ मैं समूह के करीब गया, लेकिन उस एकमात्र स्टार से अपना परिचय देने में झिझक रहा था, जिनसे मैं मिलना चाहता था। 

अंत में, हिम्मत जुटाते हुए, मैंने उनसे कहा कि मैं उनका प्रशंसक हूं और पूछा कि क्या मैं उनके साथ अकेले में 2 मिनट बिता सकता हूं। मैंने उनसे कहा कि ‘कानून’ फिल्म में उनके प्रदर्शन के कारण ही मैंने जीवन में वकालत को अपना पेशा चुना है। वह स्पष्ट रूप से खुश थे, लेकिन आश्चर्यचकित भी थे और उन्होंने मुझे बताया कि उनके अभिनय के कारण किसी अन्य प्रशंसक ने अपने जीवन का मार्ग नहीं चुना। एक व्यक्तिगत भाव में, उन्होंने बाद में मुझे कानून की एक हस्ताक्षरित वीडियो रिकॉॢडंग भेजी। इस प्रकार एक ऐसा रिश्ता शुरू हुआ जो उनके अंतिम दिनों तक कायम रहा। संजोई हुई यादें और एक विशेष बंधन ने उन्हें तब से मेरे दिल में जीवित रखा है। समय बीतता गया और शहर में मेरी बढ़ती व्यावसायिक व्यस्तताओं के कारण मुंबई (तब बॉम्बे) की मेरी यात्राएं अधिक बार होने लगीं। इनमें से कई अवसरों पर मैं दादामुनि से मिलने उनके निवास पर जाता था।

उनका आजीवन साथ परिवार में मुखिया के लिए शक्ति का स्रोत था, जहां उनकी इच्छा ही कानून थी। मुंबई की मेरी एक यात्रा के दौरान, दादामुनि ने मुझे अपने परिवार के सदस्यों से मिलवाने के लिए एक रात्रिभोज का आयोजन किया। बिना किसी शोर-शराबे के, एक राष्ट्रीय हस्ती ने पारस्परिक मित्रता के एक जबरदस्त कार्य में एक गुमनाम संघर्षरत वकील के लिए अपना दिल और घर खोल दिया था। 1989 में, सरकार ने उन्हें प्रतिष्ठित ‘दादा साहब फाल्के’ पुरस्कार के लिए नई दिल्ली के सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में सम्मानित किया। 

इस अवसर पर उन्होंने मुझे उक्त समारोह में आमंत्रित किया, जिसमें मैं शामिल हुआ और मैं उनके और उस समय के अल्पज्ञात आमिर खान के बीच बैठा था, जिन्हें भी अपना पहला पुरस्कार मिला था। जब अशोक कुमार आकर्षण का केंद्र थे, आमिर चुपचाप अपनी सीट पर बैठे थे और किसी का ध्यान नहीं गया।अपने जीवन के अंतिम वर्षों में, विशेष रूप से अपनी प्यारी पत्नी के निधन के बाद, उन्होंने ‘अकेलेपन ’ को सहन किया, जिसकी हलचल और खामोशी उनके कमरे में पेंटिंग कैनवस में बदल गई। वास्तव में, ‘प्यार करने वाले मर नहीं सकते...’। उनके प्रशंसक गर्व से घोषणा कर सकते हैं कि उनका जीवन एक आशीर्वाद था, उनकी यादें एक खजाना थीं और उन्हें असीम रूप से प्यार किया गया था।-अश्वनी कुमार  (पूर्व केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री)


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