राजनीति में ‘अपराधियों’ का बोलबाला

Tuesday, May 15, 2018 - 03:25 AM (IST)

कर्नाटक के चुनावी मौसम में जितने भी नए-नए दाव लग रहे हैं उनमें से हर एक कलंकित है। जितना कोई अधिक अपराधी और अनैतिक है उतनी ही उसकी किस्मत अधिक चमक रही है। 

गत कुछ दिनों दौरान हमारे नेता लोगों ने एक बार फिर निर्णायक रूप में यह सिद्ध कर दिया है कि सत्ता के लिए अपराध और अनैतिकता से बढ़कर अन्य कोई बढिय़ा जुगाड़ नहीं है। आखिर पैसे के साथ-साथ सत्ता की कुर्सी ही ऐसी मोहिनी-कामिनी रखैल है जिसे हर कीमत पर जीता और भोगा जाना चाहिए। इससे भी बुरी बात तो यह है कि मान-मर्यादा और गरिमा की लेशमात्र संभावना तक को ताक पर रख दिया गया है। 

हर किसी के लिए मुफ्त की इस खिचड़ी में सबसे अधिक विचलित करने वाली बात यह है कि सभी पार्टियां खुलेआम इस तरह के तत्वों को मान्यता दे रही हैं और उन्होंने अपराधियों को उम्मीदवारों के रूप में चुनाव में उतारा है। कर्नाटक चुनाव की प्रसिद्ध हस्तियों के लिए यदि कोई ‘हाल आफ फेम’ बनाया जाए तो वह डाकुओं, लुटेरों, जमाखोरों और कातिलों से भरा होगा। खेद की बात है कि केवल जीत हासिल करने के लिए हर कोई सब प्रकार के हथकंडे प्रयुक्त कर रहा है। 

सदमे की बात है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में खड़े हुए 2654 उम्मीदवारों में से 645 पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें से 28 प्रतिशत उम्मीदवार 3 प्रमुख पार्टियों कांग्रेस, भाजपा और जद (एस) से संबंधित हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले 83 उम्मीदवारों के साथ भाजपा शीर्ष पर है, जबकि 59 उम्मीदवारों के साथ कांग्रेस दूसरे और 41 उम्मीदवारों के साथ जद (एस) तीसरे स्थान पर है। खेद की बात है कि 2013 के चुनाव में 334 उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि वाले थे, जबकि 2018 के चुनाव में यह आंकड़ा बढ़कर 391 हो गया। 

ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि सत्ता केवल आंकड़ों का खेल बनकर रह गई है इसलिए पार्टियां माफिया डॉन किस्म के लोगों को चुनाव में उतारती हैं क्योंकि वे अपने बाहुबल को वोटों में बदल सकते हैं और ऐसा करने के लिए वे अक्सर हथियारों से दहशत फैलाते हैं और विजयी हो जाते हैं। यह व्यवस्था परस्पर लाभ पहुंचाने के फार्मूले पर आधारित है। अपराध की दुनिया में पैठ रखने वाले उम्मीदवार पार्टियों के लिए आकर्षक होते हैं क्योंकि उनके पास चुनाव लडऩे के लिए प्रचुर मात्रा में नकद पैसा होता है। उनके इस अहसान की एवज में पाॢटयां उन्हें कानून से संरक्षण देती हैं और समाज में उनकी मान-मर्यादा में बढ़ौतरी करती हैं। अपराधियों के लिए सबसे सम्मानजनक स्थिति वह होती है जब वे खुद को रोबिन हुड जैसी हस्तियां बनाकर प्रस्तुत करते हैं। 

केवल कर्नाटक ही नहीं, सभी विधानसभाओं और संसद तक में यही हाल है। कड़वी हकीकतें और सरकार के न झुठलाए जाने वाले आंकड़े मेरी दलीलों की पुष्टि करते हैं। यानी कि राजनीति का नैतिकता तथा जवाबदारी से कुछ लेना-देना नहीं है। अब अपराध ही राजनीति बन चुका है और राजनीति का अपराधीकरण ही इसकी एकमात्र अभिव्यक्ति बनकर रह गया है। देश के किसी भी भाग में जाएं हर जगह अपराध और राजनीति के गठजोड़ की तूती बोलती है। आज संसद के 541 सदस्यों में से 186 (यानी 34 प्रतिशत) पर हत्या (9), हत्या के प्रयास (17) सहित अपहरण और महिलाओं के विरुद्ध अपराधों जैसे मुकद्दमे चल रहे हैं। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि 2004 से इस संख्या में वृद्धि हो रही है। 2009-14 के कालखंड में 543 लोकसभा सांसदों में से 162 यानी 30 प्रतिशत के विरुद्ध मुकद्दमे लंबित थे, जबकि 2004-09 के कालखंड में यह आंकड़ा 128 था। इससे भी अधिक सनसनी की बात यह है कि 4807 मौजूदा सांसदों और विधायकों में से 30 प्रतिशत से अधिक  यानी 1460 के विरुद्ध आपराधिक मामले घोषित हैं, जबकि 688 के विरुद्ध गंभीर मामले दर्ज हैं। 

राज्यों में तो स्थिति सचमुच भयावह है। झारखंड के 74 विधायकों में से 55 के विरुद्ध यानी 74 प्रतिशत के विरुद्ध आपराधिक मामले लंबित हैं जोकि पूरे देश में एक कीर्तिमान है। बिहार और यू.पी. में यह आंकड़ा क्रमश: 58 और 47 प्रतिशत है। कुछ पार्टियों का आपराधिक चेहरा तो बहुत ही मनहूस है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के समस्त सांसदों और विधायकों में से 82 प्रतिशत के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हैं, जबकि राजद, सपा, भाजपा तथा कांग्रेस के मामले में यह आंकड़ा क्रमश: 64 प्रतिशत, 48 प्रतिशत, 31 प्रतिशत और 21 प्रतिशत है। 

राजनीति के अपराधीकरण को लेकर अपराध के राजनीतिकरण तक भारत बहुत लंबी यात्रा कर चुका है। कल तक जो माफिया डॉन थे वे आज ‘माननीय’ बने हुए हैं और बुलेटप्रूफ गाडिय़ों तथा वर्दियों में घूमते हैं। स्थितियां ये बन गई हैं कि हमारे निर्वाचित जनसेवक अब जनता, लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों और उत्कृष्ट गवर्नैंस की कीमत पर अपराध जगत के सरगनाओं के इशारों पर नाचते हैं। जरा कल्पना करें कि माफिया डॉन जेलों में बैठे ही सांसद चुने जाते हैं और इस तरह सांसद बने हुए ये लोग जेल में ही अपना दरबार सजाते हैं तथा हर प्रकार की सुविधाओं का लुत्फ उठाते हैं जैसे कि वे अपने घर में बैठे हों। वे सैल फोन पर अपने चमचों को आदेश देते हैं और अवज्ञा करने वालों को फतवे जारी करते हैं। 

इस तरह जेल में बैठे ही वे अपने आपराधिक साम्राज्य का संचालन करते हैं। ऐसे आपराधिक नेताओं की संख्या कोई कम नहीं जो गिरफ्तार होने से बचने के लिए पेशगी जमानत ले लेते हैं। जिनको ऐसी जमानत नहीं मिलती वे बहुत आसानी से भगौड़े हो जाते हैं ताकि उचित समय आने पर कानून के आगे आत्मसमर्पण कर सकें। बहुत पुरानी बात नहीं है जब राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने जेल में बंद होने के बावजूद चुनावी जीत का डंका बजाया था। ऐसे लोग भी हैं जो अपराध के राजनीतिकरण की इस परिपाटी को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विकास का एक पड़ाव बताएंगे। लेकिन त्रासदी यह है कि  हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली पर अपराधियों का कब्जा हो गया है- बेशक वह कोई छोटा-मोटा ठग हो, दस नंबरिया हो या कोई माफिया डॉन। अर्थ केवल इस बात का रह गया है कि वह अपराधी किसका समर्थन करता है, हमारा या हमारे विरोधी का? हमाम में सभी नंगे हैं फर्क है तो केवल डिग्री का। 

अपराधियों और राजनीतिक पार्टियों के बीच परस्पर लाभ और सांझेदारी की सांठ-गांठ स्थापित हो चुकी है। यही कारण है कि हमारे नेता ऐसा कोई भी कानून पारित किए जाने का विरोध करते हैं जो राजनीति के अपराधीकरण, भ्रष्टाचार और विश्वसनीयता के कैंसर को दूर भगा सके। जरा इस तथ्य पर दृष्टिपात करें कि हमारे विधायक और सांसद छोटे-छोटे मुद्दों तक पर किस तरह पार्टी लाइन के अनुसार विभाजित होते हैं, लेकिन जब भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने वाले कानूनों की बात चलती है तो सभी विधायक और सांसद एकजुट हो जाते हैं। जरा इस सूची पर दृष्टिपात करें जो अपराध से जुड़े नेताओं से संबंधित है: पूर्व रेल मंत्री और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव (राजद), जगनमोहन रैड्डी (वाई.एस.आर. कांग्रेस), 2010 में कांग्रेस की ओर से राष्ट्रमंडल खेलों के इंचार्ज सुरेश कलमाड़ी, हरियाणा तथा झारखंड के क्रमश: पूर्व मुख्यमंत्री हुड्डा व मधु कौड़ा तथा अन्नाद्रमुक की शशिकला  इत्यादि। कम से कम 450 चुनावी क्षेत्र दागदार हैं क्योंकि वहां चुनाव में उतरे उम्मीदवारों में से कम से कम एक पर आपराधिक मामले दर्ज हैं जबकि 104 क्षेत्रों में 2-2 और 56 क्षेत्रों में 5 उम्मीदवार इस श्रेणी में आते हैं। नि:संदेह भारत का पतन काफी तेजी से हुआ है। 

सबसे चिंता की बात तो यह है कि इससे कहीं भी किसी को परेशानी महसूस नहीं हो रही क्योंकि राजनीतिक पाॢटयां खुलेआम अपराधियों को उम्मीदवारों के रूप में न केवल नामांकित करती हैं बल्कि उन्हें मान्यता भी देती हैं। ऐसा इसलिए होता है कि देश में कानून का कोई राज नहीं है और सत्ता तंत्र अपनी गरिमा खो चुका है, उसके पास शासन करने का कोई प्राधिकार नहीं है और न ही वह कानून तोडऩे वाले को गिरफ्तार कर सकता है। इस वातावरण में संसदीय प्रणाली का राजनीतिक अपराधीकरण ने अपहरण कर लिया है और आम आदमी स्वाभाविक तौर पर सनकी हो गया है। कोई भी अपराधियों को वोट नहीं देना चाहता इसके बावजूद साल-दर-साल अपराधी लोग हमारी चुनावी प्रणाली का दुरुपयोग करके राजनीति में प्रविष्ट हो रहे हैं, जबकि जनता असहाय और मूकदर्शक बनकर रह गई है।-पूनम आई. कौशिश

Pardeep

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