‘कोरोना योद्धाओं’ को भी शहीदों की तरह सम्मान मिले

Sunday, Sep 13, 2020 - 04:08 AM (IST)

चाल्र्स डिकन्स ने ‘ए टेल ऑफ टू सिटीज’ लिखी। मगर मैं कम महत्वाकांक्षी हूं। मैंने अपने आपको दो योद्धाओं में बांध कर रखा है। दोनों ही समाचारों में हैं और दोनों ही हमारे बचे रहने के प्रति समानांतर तौर पर जरूरी है। एक पर हमने चापलूसी के ढेर लगा रखे हैं और दूसरे को स्वीकृति दी गई है। 

पहले हमारे सैनिक हैं उनको हमने पीठ पर रखा हुआ है और उनको हम हीरो मानते हैं। वे कुछ भी गलत नहीं कर सकते, जबकि उन्होंने वास्तव में किया भी हो। उनकी गलतियों को हम दरकिनार कर देते हैं। उनको मीडिया भी नकार देता है और शायद ही कभी हमने उनके बारे में विचार किया हो। जब उनसे भूल हो जाती है तब हम उन्हें माफ करने के लिए तैयार भी रहते हैं। उनको हम बहादुर, नि:स्वार्थ, देशभक्त तथा बेहतर मानते हैं। उनके लिए हम शहीद जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। जब वह बिना महसूस किए मृत्यु को प्राप्त कर लेते हैं कि यह कितना त्रुटिपूर्ण है। 

वे अपने धार्मिक मकसद को भूल जाते हैं और शहीद होने के लिए तैयार रहते हैं। वे मौत को गले लगाते हैं। सैनिक निश्चित तौर पर नहीं मरते। वे भी जीना चाहते हैं। उनकी पत्नियां, बच्चे, माताएं, पिता, बहनें तथा भाई भी होते हैं, जो उनका इंतजार करते हैं। वे इस संसार का हिस्सा होना चाहते हैं और देवदूतों तथा आत्माओं का हिस्सा नहीं बनना चाहते। दूसरे योद्धाओं का वर्ग डाक्टर, नर्सें तथा स्वास्थ्य देखभाल करने वालों का है। इसमें कोई शंका नहीं कि हमने उनको कोविड योद्धाओं का नाम दे रखा है।  मगर इसका इस्तेमाल एक अलग ढंग से किया गया है। उन्हें हम नायकों के तौर पर नहीं देखते और न ही उनकी कभी-कभार प्रशंसा करते हैं। उनको हम तभी याद करते हैं जब हम बीमार पड़ते हैं। बाकी के समय में वह पृष्ठभूमि में धुंधले पड़ जाते हैं। 

फिर भी इस क्षण यह हमारे डाक्टर तथा नर्सें हैं जिन्होंने हम सभी को सुरक्षित तथा जिंदा रखने के लिए अपने आपको आग में झोंका हुआ है। सिवाय इसके कि यहां पर कोई युद्ध हो फिर वह वर्दीधारी सैनिक से ज्यादा खतरे को झेलते हैं। संक्रमण के जोखिम के बाद भी वह रोगियों की देखभाल करते हैं। कुछ रिपोर्टें सुझाती हैं कि 87,000 स्वास्थ्य देखभाल कर्मी अभी तक संक्रमित हुए हैं और 573 मारे जा चुके हैं। इसके आगे एक और बिंदू है, जो ज्यादातर हम लोगों पर शायद नहीं पाया जाता। मैं डाक्टर सलीम नायक का आभारी हूं कि उन्होंने मेरा ध्यान इस ओर खींचा। जब एक सैनिक एक युद्ध को लड़ता है तब उसका अपना जीवन जोखिम पर होता है। जब डाक्टर, नर्सें तथा स्वास्थ्य कर्मी स्टाफ कोविड-19 मरीजों की सहायता करते हैं तब वह संक्रमण का ज्यादा जोखिम अपने घर पर, परिवार वालों तक ले जाते हैं, जिसमें उनके अभिभावक, पत्नियां, बच्चे तथा अन्य लोग भी शामिल होते हैं। जैसा कि डाक्टर नाईक ने कहा है,‘‘दुश्मन की गोली सैनिक के घर में प्रवेश नहीं करती।’’ दूसरी तरफ कोविड से संक्रमण केवल अस्पतालों तक सीमित नहीं। 

मैं जानता हूं कि कुछ सरकारों ने कुछ थोड़ा देने की घोषणाएं की हैं, जब कोई डाक्टर तथा नर्सें मरती हैं। हालांकि यह राशि एक शहीद सैनिक के परिवार को मिलने वाली राशि की तुलना में फीकी पड़ती है। उसके ताबूत को तिरंगे में लपेट कर लाया जाता है। उसकी अंत्येष्टि का टैलीविजन पर सीधा प्रसारण किया जाता है और राष्ट्र उसको सम्मानित करता है और उन्हें मैडल तथा प्रशंसा पत्र दिए जाते हैं।  इसके साथ-साथ बॉलीवुड भी उनकी याद में फिल्में तक बनाता है। इस तरह की बात किसी डाक्टर या फिर नर्स के साथ नहीं घटती जो कोविड-19 महामारी का पीड़ित बनते हैं। उनके लिए 21 तोपों की सलामी नहीं दी जाती है, न ही कोई राजनेता उनके कार्य के लिए उनकी प्रशंसा करता है। कोई टैलीविजन की एंकर उनके लिए गाना नहीं गाती। 

अब यह बात समझिए कि समाज का बर्ताव कैसे भिन्न होता है। कुछ मूर्ख समुदाय तथा वैल्फेयर एसोसिएशन के विचार रहित निवासी डाक्टरों तथा नर्सों के लिए अपने घर के दरवाजे बंद कर लेते हैं। उनको डर रहता है कि उनकी उपस्थिति उनके क्षेत्र में कोविड संक्रमण को फैला देगी। ऐसे वक्त में हम उनसे एक अछूत की तरह व्यवहार करते हैं। 

यहां तक कि जब हम उन्हें सम्मानित करने के बारे में सोचते हैं तब भी हम सार्थक होने की बजाय उनका तमाशा बनाते हैं। आर्मी के बैंड ने अस्पतालों के बाहर धुन बजाई। जबकि वायुसेना के विमानों ने गुलाब की पंखुडिय़ां उन पर बरसाईं। यह देखने में दर्शनीय था मगर फिर भी इसमें तत्वों की कमी देखी गई है। मेरे लिए यह एक सच्चाई की कमी है।-करण थापर
 

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