कांग्रेस को संघीय भारत की ‘सच्चाई’ समझनी होगी

Monday, Feb 18, 2019 - 03:46 AM (IST)

कश्मीर से भयावह समाचार ने अपनी काली छाया डाल दी अन्यथा लखनऊ में फरवरी में त्यौहार जैसा माहौल था। पहले सप्ताह में 5 दिवसीय सनतकदा जमावड़ा था, जिसका जोश अभी समाप्त भी नहीं हुआ था कि शहर ने खुद को प्रियंका गांधी के रोड शो के उत्साह में जकड़े पाया, जिसमें उनके साथ उनके भाई एवं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी थे। 

जिन लोगों ने प्रियंका की कड़ी मेहनत करने की क्षमता पर संदेह जताए थे, वे अवश्य चकित हुए होंगे-उन्होंने सारी रात उम्मीदवारों से बातचीत की। कोई हैरानी की बात नहीं कि उनमें से बहुत से पूरी तैयारी के साथ नहीं आए थे, कुछ को तो अपने निर्वाचन क्षेत्र के बारे में आधारभूत तथ्यों की जानकारी भी नहीं थी। 

प्रियंका के प्रचार अभियान की शुरूआत
कूटनीतिज्ञ, जो आमतौर पर स्थानीय मूड का अध्ययन करने के लिए अपने भारतीय स्टाफ को भेजते हैं, खुद उपस्थित हुए। जहां मॉल एवेन्यू स्थित कांग्रेस कार्यालय में आकांक्षावान नेताओं का जमघट लगा रहा, वहीं ताज होटल, जहां प्रियंका तथा ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों ठहरे हैं, वहां होटल के अन्य मेहमानों को परेशानी में डालने के लिए पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था की गई है। क्या सुरक्षा कारणों से ही प्रियंका कुम्भ के दौरान गंगा में डुबकी लगाकर अपने प्रचार अभियान की शुरूआत नहीं कर पाईं? कांग्रेस के रणनीतिकारों ने यह विचार भी उछाला था कि श्रीनगर के एक मंदिर में उनके दौरे से उनकी कश्मीरी वंशावली या पृष्ठभूमि की पुष्टि होगी। 

कौन जानता है शायद अभी भी वह अभियान पूरा किया जा सकता है। यदि अकेले गणित से ही चुनावी परिणाम निर्धारित होने होते, उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठजोड़ दुर्जेय है। मगर निर्वाचन क्षेत्र स्तर पर उनके कार्यकत्र्ताओं का तालमेल इसके विपरीत है। सच है कि जमीनी स्तर के कार्यकत्र्ताओं को उनके नेताओं से अपने बैर समाप्त करने के निर्देश मिल रहे हैं। मगर कुछ अन्य पेचीदगियां भी हैं, विशेषकर अखिलेश यादव के खेमे में। उनके चाचा शिवपाल यादव सपा तंत्र पर अखिलेश के निरंकुश नियंत्रण से संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए उन्होंने खुद अपने दल का गठन कर लिया है ताकि जमीनी स्तर पर किसी भी ऐसे व्यक्ति को शामिल किया जा सके, जो सपा-बसपा गठजोड़ को नुक्सान पहुंचाने के लिए उतावला हो। भाजपा के पास इतना धन है कि वह शिवपाल के अखिलेश विरोधी अभियान के लिए अपनी थैलियों का मुंह खोल सकती है। अब फैसला शिवपाल को करना है-धन को जेब में डालना है या व्यर्थ करना है। 

मुलायम की उलझन
इस बीच सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव अपने बेटे तथा छोटे भाई के बीच ऐसे उलझे हैं कि वह एक के बाद एक दोनों के पक्ष में कुछ न कुछ कहते रहते हैं। गत सप्ताह संसद में उन्होंने हर किसी की तरह सोनिया गांधी को हैरानी में डाल दिया है। मुस्कुरा रहे नरेन्द्र मोदी की आंखों में आंखें डाल कर उन्होंने कहा कि आपको फिर से सत्ता में आना चाहिए। मुलायम के चेहरे पर बड़ी सी मुस्कुराहट के कई गहरे अर्थ निकाले जा सकते हैं। अभी तक मुलायम को प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) से बचाया गया है। सपा-बसपा द्वारा 80 सीटों में से लगभग सभी आपस में बांट लेने तथा कांग्रेस व रालोद के लिए दो-दो सीटें छोडऩे पर हुई शॄमदगी पर प्रतिक्रिया देते हुए राहुल गांधी ने कहा कि वे पीछे नहीं हटेंगे। वास्तव में यह घोषणा करके कि उनकी पार्टी सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, उत्तर प्रदेश पर अपने मालिकाना दावे को पेश किया। 

यह घोषणा करके राहुल ने पार्टी को यह आभास दिलाने का प्रयास किया है कि वह पुनरुत्थान की ओर अग्रसर है। कोई राजनीतिक दल केवल द्विपार्टी प्रणाली में ही बारी-बारी से हार-जीत या ऊपर-नीचे हो सकता है लेकिन एक ऐसे देश में जहां 31 राज्य हैं और सभी की उसके अनुकूल राजनीति है, यह ‘सी-सॉ’ मॉडल काम नहीं कर सकता। कांग्रेस को संघीय भारत की सच्चाई को समझना होगा अन्यथा यह बार-बार अपने लक्ष्य निर्धारित करती रहेगी। 2019 के लिए सभी पाॢटयों का घोषित लक्ष्य भाजपा को हटाना है। ममता बनर्जी ने हकीकत को समझ लिया है। आम आदमी पार्टी द्वारा जंतर-मंतर पर बुलाई गई बैठक में उन्होंने कहा कि सभी क्षेत्रीय दलों को अपने-अपने राज्यों तथा क्षेत्रों से भाजपा के साथ लड़ाई लडऩी चाहिए। ‘कांग्रेस को मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ से लडऩा चाहिए-वे राज्य जहां इसने अपनी मजबूती दिखाई है।’

कांग्रेस की असहजता
कांग्रेस इतना घिरी होने पर असहज महसूस कर रही है। इस पर इतने वर्षों का चढ़ा खुमार इतनी आसानी से नहीं उतरेगा, जब वह एकमात्र राजनीतिक दल थी। इसके मूल में स्वतंत्रता के लिए कार्यक्रम के पीछे कई तरह के संघबद्ध हितों का प्रतिनिधित्व था। इसके बाद लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल कांग्रेस से ही निकला है। 1967 में 8 भारतीय राज्यों में गैर-कांग्रेस सरकारें थीं मगर एक सामान्य कारण से कांग्रेस केन्द्र में सत्ता में रही-इसका सामाजिक आधार अपेक्षाकृत अटूट रहा। मगर जब 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट में सरकारी नौकरियों में ओ.बी.सीज को आरक्षण दिया तो उत्तर भारत में जातिवादी राजनीति जोर पकडऩे लगी और हिन्दू एकीकरण को बढ़ावा देने के लिए राम जन्म भूमि आंदोलन का सहारा लिया गया। 

विभाजन के समय से ही हिन्दू-मुस्लिम संबंधों में असहजता 1990 के दशक में पूरी तरह से साम्प्रदायिक विस्फोट में बदल गई। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ यह शीर्ष पर पहुंच गई, जिसका दोष अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस के प्रधानमंत्री को दिया। मुस्लिम मतदाताओं ने बड़ी संख्या में कांग्रेस को छोड़ दिया। 1996 के चुनावों में कांग्रेस लोकसभा में अपनी निम्रतम संख्या पर पहुंच गई-140 सीटें। वह लगभग इसी संख्या पर रही और 2009 में 206 सीटों तक पहुंच गई (कई कारणों से) और 2014 में गोता खाकर 44 तक पहुंच गई।

यह विश्वास करने के कई कारण हैं, भाजपा 2019 में अपनी 2014 की कारगुजारी नहीं दोहरा पाएगी। इसलिए देश दो गठबंधनों की ओर अग्रसर है, जिनमें से एक का नेतृत्व भाजपा करेगी। भाजपा यह सुनिश्चित करेगी कि वह अन्य गठबंधनों का भी अकेले नेतृत्व करे क्योंकि कांग्रेस उत्तर प्रदेश, दिल्ली तथा कुछ हद तक पश्चिम बंगाल में जोखिम भरा खेल खेल रही है। इन राज्यों में वह उन गठबंधनों से लड़ रही है, जो अडिग रूप से भाजपा के विरुद्ध हैं।-सईद नकवी

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