कांग्रेस : एक कदम आगे, एक कदम पीछे

Friday, Oct 07, 2022 - 04:47 AM (IST)

1951 -52 में लोकसभा तथा विधानसभा के लिए पहले चुनावों से ही मैंने हमेशा कांग्रेस को वोट दी है। केवल 2019 में मैंने पहली बार एक गैर-कांग्रेस उम्मीदवार को वोट डाला। मैंने शिवसेना के आदित्य ठाकरे को वोट दिया क्योंकि मुझे उनके आधुनिक विचार तथा पर्यावरण के लिए प्रतिबद्धता पसंद है। मेरे अवचेतन मन में यह तथ्य भी था कि उनके नाना मेरे मित्र थे। कांग्रेस ने हमेशा मध्यम मार्ग अपनाया है। इसने साम्यवादियों तथा संघ, दोनों से दूरी बनाकर रखी है। बाद में पार्टी ने एक नर्म ङ्क्षहदुत्व का रवैया अपना लिया। मेरे मन में यह आना स्वाभाविक ही था कि हिंदू हमारे देश की जनसंख्या में सर्वाधिक गिनती में हैं तथा उनके वोट मायने रखते हैं। 

इसलिए मैं अभी भी वैभवशाली पुरानी पार्टी का समर्थन करता यदि इसका नेतृत्व हाल ही के समय के दौरान आत्मघाती प्रवृत्तियां नहीं दिखाता। जहां कांग्रेस के हिमायती राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा, जो 5 महीनों के दौरान हजारों किलोमीटर तय करके दक्षिण से उत्तर भारत में पहुंचनी है,  से उत्साहित हैं, राहुल गांधी ने पार्टी के जोधपुर प्रस्ताव को अटल घोषित कर दिया है। 

स्वाभाविक तौर पर वह अपने मित्र सचिन पायलट के बारे में तथा उन्हें अशोक गहलोत द्वारा अपनी कुर्सी खाली करने पर मुख्यमंत्री बनाए जाने के वायदे बारे सोच रहे थे। यह बिल्कुल ऐसे है जैसे इसकी पटकथा खुद गांधियों ने पहले ही लिख दी थी। जब राहुल ने फैसला किया कि वह किसी गैर-गांधी को कांग्रेस का नेतृत्व करने की इजाजत देंगे, कम से कम फिलहाल, और जब शशि थरूर को सोनिया गांधी ने आश्वस्त किया कि ‘परिवार’ किसी एक उम्मीदवार का पक्ष नहीं लेगा तो आकांक्षावान उम्मीदवार इस सम्मान को लेकर अत्यंत प्रोत्साहित थे। यह युवा राहुल के लिए एक ‘विन-विन’ की स्थिति भी थी क्योंकि यदि पार्टी द्वारा जोधपुर में पारित एक व्यक्ति एक पद के नियम को लागू कर दिया जाता तो उनके मित्र सचिन पायलट को वायदे के मुताबिक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचाया जा सकता है। 

‘परिवार’ अपने क्षेत्रीय नेताओं की आंतरिक गतिशीलता तथा राजनीति को समझने में विफल रहा, ठीक वैसे ही जैसे पंजाब में। कांग्रेस के पास कोई ‘तानाशाहीपूर्ण’ व्यक्तित्व नहीं है जो तुरन्त स्थिति पर काबू पा सके जैसे कि भाजपा के पास है तथा महान वैभवशाली के पास भी किसी समय इंदिरा गांधी के रूप में ऐसा व्यक्तित्व था। अशोक गहलोत युवा पायलट को पसंद नहीं करते जिनकी महत्वाकांक्षाओं में गहलोत को उनके पद से हटाना शामिल है। गांधियों को यह पता होना चाहिए था। अपने गृह राज्य में अपने नापसंद व्यक्ति को शीर्ष पद तक पहुंचाना एक ऐसी चीज है जो एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ तथा नेहरू गांधी परिवार के वफादार अशोक गहलोत पचा नहीं सके। जो भी हो कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के साथ जुड़ी हुई गरिमा बहुत पहले गायब हो चुकी है। 

यह पार्टी का एक वफादार ही था जिसने विद्रोह किया। उसने अपने विधायकों को हाईकमान के कांग्रेस विधायक दल की बैठक में भाग लेने  के आह्वान को नजरअंदाज करने के लिए कहा। अब ऐसा कोई मामला नहीं था कि अशोक गहलोत ऐसी किसी बात को मान लेते। स्वाभाविक है कि उन्होंने कांग्रेस विधायक दल के अपने 90 समर्थकों को अपने साथ मजबूती से खड़े होने के लिए तैयार किया। बाद में गहलोत ने मन-मुटाव दूर करने के प्रयास में हाईकमान का रुख किया। उन्होंने अध्यक्ष पद की दौड़ से अपना नाम वापस ले लिया लेकिन मुख्यमंत्री के तौर पर जारी रखा, जैसा कि वह वास्तव में चाहते थे। 

अब उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर बदला जाएगा अथवा नहीं, यह निर्णय सोनिया गांधी को लेना है। उनके लिए इस पद के लिए सचिन को नामांकित करना लगभग असंभव होगा। गहलोत का समर्थन करने वाले 90 विधायक उनके साथ नहीं चलेंगे। हाईकमान निश्चित तौर पर जड़ता की स्थिति में है। यदि यह जमीनी स्तर की भावनाओं के प्रति अपनी आंखें मूंदती है तो यह इसके लिए विनाशकारी होगा। बेहतर यही होगा कि हाईकमान सचिन पायलट को जमीनी स्तर पर काम करने की सलाह दे। 

चतुर राजनीतिज्ञ अशोक गहलोत ने गेंद ‘परिवार’ के पाले में डाल दी है। गांधियों को अब पार्टी के विधायकों के विचारों, राज्य में गहलोत को मिलने वाले सम्मान तथा यह तथ्य कि परिवार की इच्छाएं अब हर परीक्षण में खरे उतरे गहलोत जैसे नेताओं के लिए पवित्र नहीं है, पर मंथन करके निर्णय लेना होगा। यदि कांग्रेस को अपने हाथ से राज्य नहीं गंवाना तो इसे अपने पुराने ‘योद्धा’ को राज्य के मुख्यमंत्री  के तौर पर बनाए रख कर अपमान का घूंट पीना पड़ेगा। 

जयराम रमेश, जो ‘भारत जोड़ो’ अभियान का मार्गदर्शन कर रहे हैं, जानते हैं कि कुछ भी युवा राहुल के ध्यान को उनकी ‘यात्रा’ से भटका नहीं सकता। राजस्थान का घटनाक्रम अथवा ऐसी कोई भी अन्य चीज उनका ध्यान नहीं भटका पाएगी। यह अपने आप में उल्लेखनीय है। कांग्रेस के पास अपने धुर प्रतिद्वंद्वी भाजपा की तरह उन्नत प्रोपेगंडा मशीनरी नहीं है। यदि इसके पास ऐसी सुविधा होती तो यह एक अच्छे काम के लिए राहुल की प्रतिबद्धता को जन-जन तक पहुंचा सकती थी। राहुल गांधी ने महंगाई, बेरोजगारी तथा सिकुड़ रही अर्थव्यवस्था जैसे आज के ज्वलंत मुद्दों की ओर देशवासियों का ध्यान आकर्षित किया है। फिर भी भाजपा की चतुर प्रोपेगंडा मशीन लोगों को यह विश्वास दिलाने में सफल होती कि यह (कांग्रेस) इससे कहीं बेहतर कर सकती थी।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)

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