कांग्रेस अपनी अतीत की नाकामियों और गलतियों के जवाब ढूंढे

Saturday, Sep 23, 2017 - 02:12 AM (IST)

कांग्रेस उपाध्यक्ष इस महीने के शुरू में बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया में कांग्रेस पार्टी की स्थिति को लेकर अपनी टिप्पणियों के संबंध में स्पष्ट तथा ईमानदार थे। उन्होंने स्वीकार किया कि यू.पी.ए-2 के दौरान पार्टी में ‘कुछ हद तक अहंकार’ पैदा हो गया था और इसने ‘लोगों के साथ बात’ करना बंद कर दिया था। उन्होंने वंशवाद के अत्यंत संवेदनशील मुद्दे पर भी बात की जो आम तौर पर उनके उत्तराधिकार के खिलाफ जाता है। 

उन्होंने घोषणा की कि सारा भारत वंशवाद पर चलता है... अखिलेश (यादव) एक वंशवादी हैं, (एम.के.) स्टालिन एक वंशवादी हैं, यहां तक कि अभिषेक बच्चन भी एक वंशवादी हैं और पूछा कि क्यों लोग केवल उनके पीछे पड़े रहते हैं? वंशवाद की राजनीति को लेकर राहुल गांधी का गुस्सा समझ में आता है। मगर उन्हें यह समझना चाहिए कि कांग्रेस का पतन पार्टी तथा राष्ट्रीय मामलों को व्यक्तिगत तरीके से चलाने के कारण हुआ है। हालांकि, क्या राहुल गांधी ‘असफल वंशवादी’ हैं, जैसा कि सूचना एवं प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा है कुछ गलत लगता है। 

यद्यपि, उनका राजनीतिक ट्रैक रिकार्ड अभी तक निराशाजनक ही रहा है, फिर भी उनके बारे में कोई अंतिम निर्णय सुनाना अत्यंत जल्दबाजी होगी। वह भारतीय राजनीति की पेचीदगियों को कम रफ्तार से सीखने वाले हैं। क्या इसका कारण यह हो सकता है कि वह पार्टी मामलों में अधिक रुचि नहीं लेते? या इसका कारण राष्ट्रीय राजनीति के कुछ संवेदनशील पहलुओं को समझने में आए ‘अंतराल’ हो सकते हैं? कारण चाहे कुछ भी हो, कांग्रेस उपाध्यक्ष में मारक प्रवृत्ति का अभाव है। वह सुरक्षित खेल खेलने को अधिमान देते हैं क्योंकि वह पार्टी के पतन के रुझान को पलटने में असफल रहे हैं जिससे कुछ आलोचकों ने उनकी नेतृत्व क्षमता पर प्रश्न उठाए हैं। 

फिर भी देश की अर्थव्यवस्था तथा जन गतिविधियों के अन्य क्षेत्रों में हो रहे क्षरण को देखते हुए कौन जानता है कि जनता की नजर में कौन शीर्ष पर होगा? बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस नेतृत्व कितनी जल्दी अपने तौर तरीकों को बदलता है और अपने घर को व्यवस्थित करता है। यहां राहुल गांधी में कुछ आशा की किरण दिखाई देती है। कांग्रेस का पुनरुत्थान नकारात्मकता की राजनीति खेल कर नहीं किया जा सकता। पार्टी  की कार्यशीलता में खामियों को दूर करने के अलावा उन्हें जमीनी स्तर से ऊपर तक अपने सेवा दल के जोश को बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। यह एक लंबा रास्ता है मगर दृढ़ निश्चय के साथ टीम वर्क करके आज तथा कल के बीच अंतर पैदा किया जा सकता है। जैसी कि स्थिति है, भारतीय राजनीति कभी भी एक सीधी रेखा का अनुसरण नहीं करती। यह एक पेचीदा सामाजिक-राजनीतिक गणित, वायदों के भंडार तथा समय तथा स्थिति के अनुसार भावनात्मक स्पंदनों पर चलती है। 

जहां तक वंशवाद की बात है यह राजाओं तथा महाराजाओं की विरासत, काले धन की अर्थव्यवस्था की समानांतर प्रणाली तथा चुनाव लडऩे की बढ़ती जा रही लागत की देन है। धन से संबंधित ऐसी चुनावी पृष्ठभूमि राजनीति में अपनी खुद की खामियां पैदा करती है जो आम नागरिक लाभ में नहीं होती। अधिकतर नेता आज अथाह धन के ढेरों पर बैठे हैं जिन्हें वे अपने परिवार के दायरे में ही रखना चाहते हैं और परिणामस्वरूप वंशवाद का विकास होता है। भारत के बहुरंगी लोकतंत्र की एक गौरवपूर्ण बात यह है कि नए राजाओं तथा महाराजाओं को राजनीति में लोगों के मत परीक्षण से गुजरना पड़ता है। यहां तक कि अत्यंत शक्तिशाली इंदिरा गांधी को भी आपातकाल के उन काले दिनों के बाद चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था। इसी तरह से लोकतांत्रिक भारत अन्य राष्ट्रों के समूह से अलग खड़ा है। 

जैसा कि पहले ही संकेत दिया गया है कि राहुल गांधी अभी तक अपनी मां सोनिया गांधी के परीक्षण तथा उनके सलाहकारों द्वारा उन्हें कल के एक नेता के तौर पर तैयार करने की कोशिशों के बावजूद एक सक्षम नेता के रूप में उभरने में असफल रहे हैं। यही कारण है कि उन्हें कांग्रेस के पतन के कारणों में एक हिस्सेदार के तौर पर देखा जाता है, जो भाजपा के नरेन्द्र मोदी के लाभ में जाता है। यद्यपि मैं यहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत की दहाड़ का जिक्र नहीं करूंगा। कांग्रेस में निश्चित तौर पर कुछ सकारात्मक तथा कुछ नकारात्मक बिन्दू हैं। मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐतिहासिक तौर पर यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम तथा स्वतंत्रता के बाद, जवाहर लाल नेहरू से शुरू होकर, सबको अपने में समेटने वाली पार्टी थी। कांग्रेस की इस समृद्ध विरासत को मोदी की भाषणकला से मिटाया नहीं जा सकता। 

कांग्रेस का एक जिम्मेदार विपक्षी के तौर पर पुनरुत्थान होते देखना राष्ट्रहित में है। निश्चित तौर पर यह कांग्रेस नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वह अपनी अतीत की असफलताओं तथा गलतियों को जवाब ढूंढे। वर्तमान व्यवस्था में कांग्रेस को नया जीवन देने का सबसे बेहतर तरीका यह होगा कि वंशवाद आधारित निहित हितों से परे देखते हुए पार्टी को कुशल, निष्ठावान तथा चरित्रवान लोगों के लिए खोला जाए, जिसमें खुद सोनिया मां जैसी मार्गदर्शक की भूमिका निभाएं। जोर एक नई पार्टी की तरह इसके पुनर्निर्माण पर होना चाहिए।

मूल विचार आरोपी व्यक्तियों के विरासत में मिले वर्ग के दर्जे के आधार को एक व्यापक लोकतांत्रिक सिद्धांत की ओर स्थानांतरित करके इसके सामाजिक  ताने-बाने में परिवर्तन लाना और उसे मजबूत बनाना है जो वर्षों के दौरान अपना लचीलापन खो चुका है। इस प्रक्रिया में यह अपना आंतरिक उत्साह खो चुकी है। यहीं पर कांग्रेस नेतृत्व के सामने चुनौती है यदि यह कुछ कर दिखाना चाहती है। राहुल तथा उनके सलाहकारों के लिए यह भी उचित होगा कि वे केन्द्रीयकृत राजनीति के खतरों को भी निरन्तर याद रखें, जैसा कि हमने पहले इंदिरा गांधी की कांग्रेस में देखा है। एक नियंत्रित राजनीतिक प्रक्रिया का परिणाम अशांत मतदाताओं के रूप में निकलता है और व्यापक सामाजिक संघर्षों को पैदा करता है।

इससे भी बढ़कर हमने देखा है कि कैसे वफादारी तथा खुद को आगे बढ़ाने के कारकों पर आधारित व्यक्तिगत नेतृत्व का परिणाम प्रशासन की प्रभावशीलता तथा प्रशासन के महत्वपूर्ण अंगों के मनोबल के साथ-साथ विभिन्न स्तरों पर प्रणाली की कार्यप्रणाली में तीव्र क्षरण के रूप में निकलता है। इस संदर्भ में मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी कांग्रेस की व्यक्तिगत कार्यप्रणाली से कुछ सबक सीखने की जरूरत है।
 

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