लोकसभा में कांग्रेस के पास प्रभावशाली ‘नेतृत्व’ नहीं

Sunday, Sep 01, 2019 - 12:23 AM (IST)

सम्भवत: क्योंकि सारा ध्यान राहुल गांधी के इस्तीफे तथा कांग्रेस पार्टी के एक महीने तक यह स्वीकार करने से इंकार पर केन्द्रित था कि उन्होंने सचमुच अपना मन बना लिया है, पार्टी के नेतृत्व ने एक अन्य स्पष्ट कमजोरी की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। मेरा इशारा निश्चित तौर पर लोकसभा में इसके नेतृत्व की ओर है। इसके बावजूद कि कई बार यह पार्टी की जीवंतता तथा प्रभावशीलता का संदेश देने के लिए महत्वपूर्ण होता है। अफसोसनाक सच यह है कि 2014 से कांग्रेस के पास कोई प्रभावशाली नेता नहीं है। मल्लिकार्जुन खडग़े केवल अपने कद के लिहाज से ऊंचे थे। 

उनका एक अन्य उल्लेखनीय पहलू उनकी आवाज 
थी लेकिन बस इतना ही। विपक्षी बैंचों पर उनकी कारगुजारी दुर्लभ रूप से दिलचस्प थी। उन्होंने जो कहना था या उन्होंने जो कहा, उसने देश का ध्यान आकर्षित नहीं किया। इसी कारण उन पर ध्यान नहीं दिया गया। उनकी बस वहां मौजदूगी ही थी। अधीर रंजन चौधरी अब अधीर रंजन चौधरी का रुख करते हैं। उनमें खडग़े की सभी खामियां हैं लेकिन इसके अतिरिक्त वह विशेष रूप से लम्बे नहीं हैं जबकि उनकी आवाज कर्कश है। जब वह बोलने के लिए खड़े होते हैं तो सदन को प्रभावित नहीं कर पाते। दरअसल आप उनकी पार्टी को उन्हें सुनने की बजाय सैलफोन्स में व्यस्त पाते हैं। यदि कोई नेता अपने सहयोगियों के ध्यान को ही नियंत्रित नहीं कर सकता, उसके सामने के ट्रेजरी बैंचों पर कोई प्रभाव छोडऩे की बहुत कम सम्भावना है। 

जम्मू-कश्मीर सरकार में किए गए संवैधानिक बदलावों पर चर्चा के दौरान चौधरी द्वारा की गई बहुत बड़ी गलती शॄमदा करने से कहीं अधिक थी, जिसने एक गम्भीर समस्या का संकेत दिया। पेचीदा मुद्दों पर उनकी पकड़ नहीं है। यह ‘जुबान फिसलने’ का मामला नहीं था, यह अज्ञानता अथवा गलत समझ का सबूत था। इसके वायरल हुए विजुअल्स, जिनमें सोनिया गांधी को राहुल की ओर देखते तथा अविश्वास से अपनी भौंहें चढ़ाते दिखाया गया है, ने उनकी स्थिति इतनी कमजोर कर दी है, जिसमें सुधार नहीं किया जा सकता। ऐसे अनिष्ट को सुधार पाना असम्भव है। 

कांग्रेस फिर भी खुश
फिर भी कांग्रेस का अकथनीय पहलू यह है कि या तो वह इसे स्वीकार नहीं करना चाहती अथवा इसके बारे में कुछ करना नहीं चाहती। यह अपने दूसरे दर्जे के नेता को लोकसभा में अपने चेहरे के तौर पर देख कर खुश है। और यह नुक्सानदायक अनुमानों का कारण बनता है। ईमानदारी से कहें तो क्यों गांधियों ने पहले खडग़े और अब चौधरी को नियुक्त किया? क्या उनको डर है कि एक अधिक प्रभावशाली नेता, जो देश की प्रशंसा प्राप्त करता है, उनकी स्थिति के लिए खतरा बन सकता है? आखिरकार न तो सोनिया और न ही राहुल की कारगुजारी ने कभी लोकसभा को उत्तेजित किया है। 

थरूर व तिवारी
विरोधाभास यह है कि अपनी संख्या कम होने के बावजूद कांग्रेस के पास लोकसभा में कम से कम दो सांसद ऐसे हैं, जिन्हें यदि अवसर दिया जाता तो वे ध्यान आकर्षित कर सकते थे, सम्मान हासिल कर सकते थे और सम्भवत: पार्टी के लिए एक शुरूआती बिंदू तैयार कर सकते थे। वे हैं शशि थरूर तथा मनीष तिवारी। उनके गुणों पर ध्यान डालते हैं। उनकी उपस्थिति रहती है, उनका बोलने का एक तरीका है जो ध्यान आकॢषत करता है, उन्हें निहारना अच्छा लगता है, वे चुस्त पहरावा पहने होते हैं और सबसे महत्वपूर्ण यह कि उनमें कुछ ऐसा है जो उन्हें सम्मान तथा प्रशंसा दिलाता है। वे समझदार भी हैं और जानते भी हैं कि कैसे अपनी आवाज रखनी है। जब वे खड़े होते हैं तो सबके देखने के लिए स्पष्ट होते हैं। सम्भवत: यह कहना मेरे लिए द्वेषजनक है लेकिन दोनों में से शशि थरूर को बढ़त हासिल है। 

पहला, क्योंकि ट्विटर पर उनके बहुत अधिक फालोअर्स हैं जिसका अर्थ यह हुआ कि उनके 70 लाख फैन्स उनके पक्ष में हैं और जो कुछ भी वह कहते हैं उसे लगन से सुनते हैं। यह कांग्रेस जैसी खराब स्थिति में एक पार्टी के लिए बुरा नहीं हो सकता। उनको दूसरा लाभ उनका विचित्र व्यक्तित्व है-उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले असामान्य शब्द, उनकी शैली और यहां तक कि उनकी लम्पट छवि। युवा भारत में बहुत से लोग उन जैसा बनना चाहते हैं। वह आकांक्षावान हैं। 

मुझे कोई संदेह नहीं कि शशि अथवा मनीष दोनों में से कोई इस पद के योग्य हैं लेकिन मुझे उतना ही विश्वास है कि उनमें से कोई भी इसे प्राप्त नहीं करेगा। और यह नरेन्द्र मोदी तथा अमित शाह के चेहरों पर संतोष की एक बड़ी मुस्कुराहट लाएगा लेकिन यह हमारे विपक्ष की प्रभावशीलता तथा हमारे लोकतंत्र की कार्यप्रणाली के ऊपर एक छाया भी डालेगा। पहले ही कांग्रेस चुनावी मायनों में कोई अर्थ नहीं रखती, शीघ्र ही इसकी आवाज लोकसभा में भी अपना महत्व खो देगी।-करण थापर

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