ठोस तथ्य हर क्षेत्र में लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं

Monday, Feb 20, 2017 - 12:31 AM (IST)

फरवरी के प्रारंभ में देवलोक प्रस्थान करने वाले स्वीडिश अकादमिशन एवं आंकड़ाशास्त्री हांस रोसलिंग ऐसे-ऐसे अजब-गजब ढंगों से आंकड़ों में जान डाल दिया करते थे जो बहुत ही रचनात्मक एवं सलीकेदार होने के साथ-साथ अंततोगत्वा बेहद सरल होते थे। 2006 में उन्होंने ‘द बैस्ट स्टेट्स यू हैव एवर सीन’ नाम तले एक बहुत ही यादगारी भाषण दिया था। इस प्रस्तुति में ऐसे आंकड़े बहुत ही कम थे जो कई वर्ष पहले से उपलब्ध न रहे हों।

रोसलिंग की प्रतिभा त्रिआयामी थी। पहले नम्बर पर तो वह इस बात पर हैरान होते थे कि लोग ऐसे पूर्वाग्रहपूर्ण विचारों के साथ क्यों चिपके रहते हैं जिनके समर्थन में कोई आंकड़े भी नहीं बोलते। दूसरे नम्बर पर उन्होंने यह फैसला किया कि समस्या आंकड़ों की कमी की नहीं बल्कि इन्हें प्रस्तुत करने और इनका अर्थ लगाने यानी विश्लेषण तथा व्याख्या के तरीके में है।

तीसरे नम्बर पर उनका यह जादुई निर्णय था कि आंकड़ों को जड़वत निशानियों और मील पत्थरों के रूप में नहीं बल्कि जीवंत और गतिशील प्रतिङ्क्षबबों के रूप में देखा जाना चाहिए। रोसलिंग के विचार बहुत से लोगों को अपील करते हैं। खासतौर पर इंटरनैट पर तो उनके लिए दीवानगी का कोई अंत ही नहीं। शायद व्यावहारिक जीवन में उनके विचारों की बढ़ती सार्थकता ही इसके लिए जिम्मेदार है।

हम अनेक प्रकार से एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां हम हर ओर से ऐसी बातों या घटनाओं से घिरे हुए हैं जिनको मापा जा सकता है। कम्पनियों की कारगुजारी से लेकर राष्ट्रों की कारगुजारी तक हर चीज  की रैंकिंग की जा रही है और इसे मापा जा रहा है। बढिय़ा कम्पनियों को उनके स्टॉक मूल्यों के आधार पर  आंका जाता है, जबकि बढिय़ा देशों को उनकी ग्लोबल प्रतिस्पर्धात्मकता अथवा ‘कारोबार करने की सरलता’ की रैंकिंग के आधार पर आंका जाता है।

समाचारों में दिलचस्पी लडख़ड़ा जाने के फलस्वरूप विचारों और टिप्पणियों का बाजारूकरण भी व्यापक रूप में शुरू हो गया और वैश्विक स्तर पर सत्य व असत्य, विश्वसनीय अविश्वसनीय, नैतिक व अनैतिक आदि की पहचान मुश्किल हो गई है। फिर भी इन जानकारियों के विरुद्ध किसी प्रकार का प्रतिबंध या अंकुश स्वीकार्य नहीं है। ऐसे में हम तथ्यों, आंकड़ों तथा विश्लेषण के गुलाम बन कर रह गए हैं। वैसे तथ्य और आंकड़े ही ऐसी चीज हैं जिनके बारे में झूठ बोलना सबसे अधिक मुश्किल है इसीलिए तो तथ्यों यानी ‘डाटा’ की तूती बोलती है।

अब तो कई इतिहासकारों ने भी  तथ्यों और अनुमापनीय तकनीकों का प्रयोग अपनी शोध में करना शुरू कर दिया है। इतिहासकारों ने 60 के दशक में तो नियमित रूप में मापकीय तकनीकों का प्रयोग शुरू कर दिया था। इस प्रकार की इतिहासकारी को समॢपत प्रथम पत्रिका  ‘हिस्टोरिकल मैथड्स न्यूज लैटर’ थी, जिसका प्रकाशन 1967 में शुरू हुआ था। अब तो इस प्रकार की कई प्रकाशनाएं चालू हो गई हैं। वास्तव में तो आजकल ऐसा इतिहासकार ढूंढना मुश्किल है जो अपने कार्य में किसी न किसी रूप में मापकीय तकनीकों को प्रयुक्त न करता हो।

वैसे इन तकनीकों का प्रयोग करने से किसी इतिहासकार की कृति अपने आप में वैध और महान नहीं बन जाती। यह जरूरी है कि  आंकड़ों की जादूगरी को केवल इसलिए लक्ष्य न बनाया जाए कि लिखित अक्षरों की तुलना में यह पाठक का ध्यान अधिक आसानी से खींचते हैं। वैसे आंकड़ों का भंडार किसी भी इतिहासकार की कृति को मूल्यवान बना देता है। उदाहरण के तौर पर इस शताब्दी के प्रारंभ में रोमन स्ट्रयूडेर  जब अभी ऑक्सफोर्ड में डाक्ट्रेट ही कर रहे थे तो उन्होंने गेहूं और चावल के लिए 70 ‘‘मूल्य शृंखलाओं’’ पर ध्यान केन्द्रित किया।

उन्होंने इस डाटा का विश्लेषण करना शुरू किया ताकि  कुछ बातों को बहुत ही सरल ढंग से समझा जा सके। उन्होंने यह अनुसंधान किया कि इन दोनों जिंसों के मूल्य में किस प्रकार वैश्विक बाजारों में उतार-चढ़ाव आते हैं। साथ ही उन्होंने यह भी पता करने का प्रयास किया कि क्या उन उतार-चढ़ावों में कोई आपसी संबंध है और बाजारों की दूरी बढऩे के साथ-साथ इन अंतर संबंधों में क्या बदलाव आता है।

2008 में उन्होंने 18वीं और 19वीं शताब्दी में खाद्यान्न बाजारों की कारगुजारी का आकलन करने के लिए  भारत के बारे में एक शोध पत्र प्रकाशित करवाया था। इसमें उन्होंने अपने अन्वेषणों को संक्षिप्त रूप में दर्ज किया जोकि बहुत ही दिलचस्प है : ‘‘1850 से पहले एक-दूसरे से दूर-दूर स्थित भारतीय मंडियों में प्रति वर्ष आने वाले उतार-चढ़ावों का आपस में कोई संबंध नहीं था। यहां तक कि बहुत भारी मूल्य वृद्धियों या मंदी का भी आपस में कोई संबंध नहीं  होता था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि 1770 के दशक में जब बंगाल में अकाल के कारण खाद्यान्न मूल्य आसमान छू रहे थे तो उत्तरी और पश्चिमी भारत में इनके मूल्य लगभग स्थिर थे। केवल  1850 के बाद ही भारत की मंडियों में एकजुटता और कार्यक्षमता दिखाई देने लगी। न केवल इन तीनों क्षेत्रों की मंडियों में एक ही मौके पर कीमतों में उबाल आने लगा बल्कि अल्पकालिक बदलाव भी एक-दूसरे से जुड़े होते थे। यानी कि जहां 1850 से पहले मूल्यों के उतार-चढ़ाव में कोई नियमबद्धता नहीं थी वहीं इसके बाद की अवधि में इनमें एक यांत्रिक अंतर संबंध पैदा हो गया।’’

लेकिन इस विश£ेषण का व्यापक अर्थ क्या है? वास्तव में इसी बात के पीछे यह रहस्य छिपा हुआ है कि यूरोप शेष दुनिया से पहले इतना विकसित कैसे हो गया? यूरोप के भारी विकास और दुनिया के शेष भागों के  बहुत अधिक पिछड़ जाने के मुद्दे को इतिहासकारों ने ‘‘Great Divergence’’ का नाम दिया है और इस पर बहुत अधिक बहस हो चुकी है। जहां कुछ लोगों का मानना है कि यूरोप के लोगों में विकास के तत्व पहले से मौजूद थे वहीं अन्य विद्वानों का मानना है कि भारत, चीन और दूसरे देशों में भी ये खूबियां मौजूद थीं लेकिन यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने उनकी इन उपलब्धियों को बर्बाद कर दिया।

स्ट्रयूडेर के निष्कर्ष प्रथम खेमे के पक्ष में थे। उनका नुक्ता था कि भारत के खाद्यान्न बाजार औपनिवेशक शासन शुरू होने के समय तक आपस में एकजुट नहीं थे। यूरोप की तुलना में भारत तथा चीन के कुछ हिस्सों में विकसित बाजारों की कमी इस बात की सूचक थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था बर्तानवियों के आने से पहले ही यूरोप से पिछड़ चुकी थी।

यह बहस आज भी जारी है। आप इसके परिणामों के बारे में चाहे कुछ भी सोचें लेकिन इस बात से इंकार नहीं कर सकेंगे कि स्ट्रयूडेर  का शोध पत्र सचमुच अध्ययन के योग्य है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ठोस तथ्य केवल भौतिक विज्ञानों की ही जागीर नहीं। रोसङ्क्षलग के खिलखिलाते उत्साह और प्रतिभाशाली शोधकार्यों से हम  यह सीख लेते हैं कि ठोस तथ्य जीवन के हर क्षेत्र के लोगों के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं, यहां तक कि इतिहासकारों के लिए भी।     (साभार ‘मिंट’)

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