बाल विवाह प्रथा का पूर्ण उन्मूलन आवश्यक
punjabkesari.in Sunday, Nov 10, 2024 - 05:26 AM (IST)
समाज सुधारकों के अनथक प्रयासों एवं सरकारों द्वारा व्यापक जन-जागृति फैलाने के बावजूद, हमारे समाज का एक वर्ग आज भी पुरातन कुप्रथाओं से पूर्ण रूपेण मुक्त नहीं हो पाया। इसी कड़ी में शामिल है बाल विवाह प्रथा, जो कानूनन निषेध होने के बावजूद देश के विभिन्न भागों में विद्यमान है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एन.सी.पी.सी.आर.) के अनुसार, आज भी देश के लगभग साढ़े 11 लाख बच्चों पर बाल विवाह का संकट मंडरा रहा है। रिपोर्ट के तहत, वर्ष 2022 के दौरान देश में एक हजार से अधिक बाल विवाह के मामले सामने आए। अप्रत्यक्ष प्रकरण जुडऩे पर संभवत: सूची और लंबी हो जाए!
एक बड़ी जनसंख्या वाले भारत के समक्ष भले ही यह संख्या मामूली प्रतीत हो, किंतु देश के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को अवश्य झकझोरती है। बाल विवाह न केवल देश के सर्वांगीण विकास में एक बड़ा अवरोधक है, बल्कि बच्चों की सुरक्षा, शिक्षा व अधिकार सुनिश्चित कर रहे निकायों के लिए भी महत्वपूर्ण चुनौती है। भारतीय समाज में प्रचलित कुप्रथा के मद्देनजर देखें तो ‘बाल विवाह’ के विरुद्ध लंबे संघर्ष की एक अलग ही गाथा है। समाज सुधारकों के अतुलनीय योगदान के फलस्वरूप संभव हुई जनजागृति की लहर के प्रसार से जहां स्थिति बेहतर होने की उम्मीद जगी, वहीं कानूनी स्तर पर बाल विवाह प्रतिबंधित घोषित किए जाने से भी सुधार की संभावनाएं प्रबल हुईं।
बाल विवाह पर रोक संबंधी कानून सर्वप्रथम 1929 में पारित हुआ, जिसे 1 अप्रैल, 1930 से देश भर में लागू किया गया। विशेष विवाह अधिनियम, 1954 एवं बाल विवाह निषेध अधिनियम (पी.सी.एम.ए.), 2006 के आधार पर विवाह योग्य न्यूनतम आयु बालिकाओं के लिए 18 वर्ष और बालकों के लिए 21 वर्ष निर्धारित की गई। 1949, 1978 तथा 2006 में समयानुकूल संशोधन होते गए।
बाल विवाह कुप्रथा की भुक्त भोगी बालिकाओं का प्रतिशत 1993 में 49 से घटकर 2021 के दौरान 22 फीसदी तक आना तथा कम वय में बालकों के विवाह का प्रतिशत 2006 के 7 फीसदी से घटकर 2021 में 2 फीसदी पर पहुंचना यद्यपि इस दिशा में किए जा रहे प्रयत्नों के संदर्भ में एक उल्लेखनीय प्रगति है, तथापि वर्ष 2016 से 2021 के मध्य बाल विवाह समाप्ति की ओर उन्मुख प्रयासों में उदासीनता दृष्टिगोचर होना नि:संदेह निराशाजनक है। ताजा आंकड़े स्पष्ट गवाह हैं कि मंजिल फतह करने में अभी कई पड़ाव शेष हैं।
घोर आश्चर्य होता है, जब तुलनात्मक आधार पर साक्षरता का स्तर ऊंचा होने पर भी दक्षिण स्थित कर्नाटक, तमिलनाडु सरीखे राज्यों की गणना बाल विवाह प्रकरणों में शीर्षस्थ 3 राज्यों में की जाए। जहां यह पर्याप्त जन-जागरूकता का अभाव दर्शाता है, वहीं हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के उद्देश्य को लेकर भी प्रश्नचिन्ह अंकित करता है। कम उम्र में बच्चे ब्याहने की सोच के पीछे कारण खंगालें तो इस विषय में सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आॢथक आदि अनेक पक्ष उभरकर सामने आते हैं। सामाजिक वातावरण में कलुषित मानसिकता का समावेश होना इनमें प्रमुख कारण है, जोकि पिछड़े इलाके के अभिभावकों पर विशेष प्रभाव डालता है। किशोरावस्था में पथभ्रष्ट होने का भय, दुराचार के अनवरत बढ़ते मामले आदि समाधानिक रूप में उन्हें संतान के शीघ्र विवाह का उपाय ही सुझाते हैं। निर्धनता भी अपने आप में एक बड़ा अभिशाप है, जिसके चलते अतिरिक्त खर्चे से बचने हेतु अभिभावक एक के साथ दूसरे बच्चे की शादी भी तय कर देते हैं, बिना यह विचारे कि उसकी अवस्था क्या है! अनेक मामलों में लड़कियों की आयु लड़कों के मुकाबले काफी कम होती है।
बाल विवाह के समर्थक भले ही कितने भी तर्क क्यों न दें, किंतु अबोध उम्र में विवाह से बच्चों का बचपन तो छिनता ही है, उनके शिक्षा-स्वास्थ्य-सुरक्षा संबंधी अधिकारों का भी हनन होता है। बालिकाओं के मामलों में तो कठिनाइयां और भी अधिक हैं। इससे उनकी शिक्षा, वित्तीय स्वतंत्रता तो प्रभावित होती ही है, स्वास्थ्य संबंधी जटिलताएं भी अपेक्षाकृत बढ़ जाती हैं। अशिक्षित होने के कारण वे अपने आस-पास घटित हो रही घटनाएं समझने में अक्षम रहती हैं। कच्ची उम्र में मां बनना जहां उनके स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डालता है, वहीं गर्भस्थ शिशु का विकास भी बाधित करता है। बच्चे कुपोषित पैदा होते हैं अथवा किसी गंभीर बीमारी का शिकार हो जाते हैं। प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा, दोनों की जान पर बराबर खतरा बना रहता है।
बाल विवाह गले की फांस बन जाता है, जब वर अपने रिश्ते के प्रति गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाए रखे अथवा कालान्तर में विवाहिता का परित्याग कर दे। आज भी कोर्ट में अनेकों मामले आते हैं, जिनमें पुरुषों का कहना है कि बचपन में उनसे ब्याही गई लड़की उनकी पसंद अथवा वर्तमान योग्यता के आधार पर खरी नहीं उतरती। वर-वधू की आयु में भारी अंतर होने पर भविष्य में बाल विधवा बनने का दंश भोगने संबंधी आशंकाएं बढ़ जाती हैं, तो कभी बेमेल पुनॢववाह सारे जीवन को अभिशाप बना छोड़ता है।
स्पष्ट शब्दों में, यह कुप्रथा बाल अधिकारों पर कुठाराघात है। वास्तव में इनकी रक्षा एक नैतिक, कानूनी, पारिवारिक व सामाजिक जिम्मेदारी है। किसी भी स्तर पर इसकी अनदेखी अंतत: राष्ट्र के समग्र विकास को प्रभावित करेगी। सर्व शिक्षा अभियान के लक्ष्य को कहीं पीछे धकेलती बाल विवाह प्रथा राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा है। इसे प्रत्येक प्रकार से गंभीरतापूर्वक लेना अनिवार्य है। इस विषय में न तो रिपोर्ट के निष्कर्ष को हल्के में लेना उचित कहा जाएगा और न ही इसके कारणों के निवारण के प्रति उदासीनता दर्शाना ही सही होगा।-दीपिका अरोड़ा