सामुदायिक पुलिसिंग ही निखार सकती है ‘पुलिस का चेहरा’

punjabkesari.in Wednesday, Nov 11, 2020 - 03:29 AM (IST)

सामुदायिक पुलिस व्यवस्था पुलिस के कार्यों में नागरिकों की भागीदारी हासिल करने का एक अहम तरीका है। यह एक ऐसा वातावरण निर्मित कर सकती है जिससे पुलिस-जनता के संबंधों में सुधार लाया जा सकता है। प्रोएक्टिव या सक्रिय पुलिसिंग के लिए यह आवश्यक है कि जनता को अपने साथ मिलाकर अपराधियों या असामाजिक तत्वों पर शिकंजा कसा जाए। विभिन्न अपराध जैसे नशीली दवाओं का बढ़ता प्रयोग, शराब व अवैध खनन का गोरखधंधा तथा मानव तस्करी व महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते अपराध जैसी आपदाओं से निपटने व साम्प्रदायिक दंगों पर नियंत्रण करने के लिए यह एक बहुत ही कारगर तरीका है। 

पुलिस तथा जनता के कटु रिश्तों का मुख्य कारण यही रहा है कि केवल 5 प्रतिशत से 10 प्रतिशत लोग जो अपराधी या शिकायतकत्र्ता के रूप में पुलिस के सम्पर्क में आते हैं तथा उनके साथ पुलिस जैसा-तैसा भी व्यवहार करती है, वैसा ही संदेश बाकी 90 प्रतिशत जनता के दिलो-दिमाग पर पड़ता रहता है। पुलिस की क्या कानूनी या प्रशासनिक मजबूरियां हैं, का जनता को कुछ पता नहीं होता तथा वह हमेशा एक तरफा ढिंढोरा पीट-पीट कर पुलिस के मुंह पर कालिख पोत देती है। 

यदि कोई अपराधी, न्यायालय द्वारा अपराध मुक्त हो जाता है तो जनता यही सोचती है कि ये सब कुछ पुलिस की निष्क्रियता व नाकामियों की वजह से ही संभव हुआ है। उन्हें इस बात का जरा भी ज्ञान नहीं होता है कि इस पूरी आपराधिक न्याय प्रणाली जिसमें अभियोजन पक्ष, (सरकारी वकील) व न्यायालय भी शामिल हैं जो अपराधी को कई प्रकार की छूट देकर उसे अपराध मुक्त कर देती है। 

आखिर क्या कारण है कि हर व्यक्ति चाहे बुद्धिजीवी लोग, चाहे पत्रकार, फिल्म निर्माता हो, चाहे न्यायपालिका, पुलिस को हमेशा नकारात्मक दृष्टि से देखते हैं। राजनीतिज्ञ तो पुलिस को अपना हथियार बनाकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते ही रहते हैं तथा समाज की सेवा व सुरक्षा के लिए व्यवस्थित की गई पुलिस हर जगह अपनी भद्द पिटाती रहती है। इसका मुख्य कारण यही रहा है कि समाज के लोगों, विशेषत: गांवों, कस्बों व शहरों में जाकर पुलिस ने अपनी स्थिति, लाचारी, कानूनी जिम्मेदारियों इत्यादि से जनता को कभी भी अवगत नहीं करवाया। 

कुछ वर्ष पहले तक भारत की पुलिस अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1861 के एक्ट के अधीन ही कार्य करती रही जिसमें सामुदायिक पुलिसिंग का कहीं भी वर्णन नहीं था। अब पिछले कुछ वर्षों से तथा वह भी सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से प्रत्येक राज्य ने अपने-अपने पुलिस एक्ट बनाए हैं जिनमें सामुदायिक पुलिसिंग के महत्व को समझा जाने लगा है। प्रत्येक राज्य की पुलिस ने सामुदायिक पुलिस प्रणाली को किसी न किसी रूप में कार्यान्वित करने का प्रयास किया है मगर यह भी देखा गया है कि कुछ ही समय बाद इस महत्वपूर्ण पहलू को भुलाया जा रहा है तथा फिर वो ही ढाक के तीन पात वाली उक्ति चरितार्थ होने लग पड़ती है। 

यदि हम 100 वर्ष पहले की बात कहें तो 20वीं शताब्दी में उत्तरी राज्यों तथा विशेषकर पंजाब जैसे राज्यों में  ‘ठीकरी पहरा’ नामक योजना प्रचलन में थी जिसके अंतर्गत गांव के सभी युवा लोग रात्रि के समय  लगातार पहरा देते थे तथा डाकू व लुटेरों को पकडऩे में पुलिस की सहायता करते थे। वर्तमान में पंजाब ने ‘सांझ’ नामक योजना को पिछले कुछ वर्षों से कार्यान्वित किया है तथा जिसमें स्थानीय प्रशासन के सहयोग व वित्तीय साधनों का भी प्रावधान रखा गया है। आरंभ में इस प्रणाली के माध्यम से पुलिस ने बड़े-बड़े अपराधी गिरोहों को पकडऩे में कामयाबी हासिल की तथा साथ ही साथ ऐसे पुलिस वालों की भी पहचान की जो अपराध में खुद संलिप्त रहते थे मगर धीरे-धीरे इस योजना की तरफ अब शायद कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। 

हरियाणा राज्य की बात करें तो सरकार ने वहां महिला पुलिस स्वयं-सेविकाओं की भर्ती की तथा उन्हें थोड़ा-बहुत प्रशिक्षण देकर कुछ जिलों जैसे करनाल व महेन्द्रगढ़ में तैनात किया है। इन महिलाओं ने पुलिस के सहयोग से कई अपराधियों विशेषत: संगठित अपराधियों का भंडाफोड़ किया है। चंडीगढ़ में ‘युवाशक्ति प्रयास’ तथा तमिलनाडु में ‘मोहल्ला कमेटी आंदोलन’ के नाम से ये योजनाएं चलाई जा रही हैं तथा हर राज्य में सकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहे हैं। हिमाचल पुलिस ने इन योजनाओं के माध्यम से पुलिसिंग के क्षेत्र में अभूतपूर्व काम किया है तथा आज हिमाचल पुलिस पारदॢशता व कार्यकुशलता के क्षेत्र में पूरे देश में शीर्ष स्थान पर है। 

हिमाचल में 1. ‘बीट प्रणाली’ के अतंर्गत शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों को विभिन्न बीटों में बांटा गया है तथा प्रत्येक बीट में एक पुलिस मैन, एक होमगार्ड, स्थानीय चौकीदार व स्थानीय युवक व युवतियों को सदस्य बनाया गया है जो प्रत्येक सप्ताह आपसी बैठक में अपने-अपने क्षेत्र की विभिन्न गतिविधियों का संज्ञान लेते हैं। 

2. ‘मैत्री योजना’ के अंतर्गत थाना प्रभारी व उप पुलिस/पर्यवेक्षक अधिकारी आम जनता के साथ कभी थाने में तो कभी इलाके में जाकर उनकी शिकायतों को सुनते हैं तथा उनमें जागरूकता अभियान चलाते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि पुलिस को आम जनमानस को अपने साथ ले जाने की आवश्यकता है तथा बिना वर्दी के सतर्क नागरिक पुलिस की ढाल बन कर उनके सच्चे हमसफर, हमदर्द व हमराज बनकर पुलिस के चाल, चरित्र व चेहरे में निखार लाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। इस संबंध में पुलिस को भी अपना नजरिया बदले की आवश्यकता है। पुलिस जनों को नहीं भूलना चाहिए कि उनके रैंक से बढ़कर उनकी इंसानियत ज्यादा महत्व रखती है। उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि उनको विरासत में मिले दागदार चेहरे को स्वच्छ व सुंदर बनाने के लिए जनता रूपी साबुन व शैंपू लगाने की जरूरत है अन्यथा वे अपने तथाकथित धूमिल व दागदार चेहरे को लेकर इसी तरह ही भटकते रहेंगे तथा जनता उन्हें दुत्कारती ही रहेगी। 

पुलिस को कबीर साहिब की पंक्तियों को हमेशा याद रखना चाहिए
कबीरा जब हम पैदा हुए जग हंसा हम रोए।
ऐसी करनी कर चले, हम हंसे जग रोए॥-राजेन्द्र मोहन शर्मा डी.आई.जी. (रिटायर्ड)
 


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