शिक्षा का बाजारीकरण घातक

punjabkesari.in Saturday, Oct 05, 2024 - 06:18 AM (IST)

यूनैस्को और आई.एल.ओ. की पहल पर 5 अक्तूबर को विश्व शिक्षक दिवस मनाए जाने की शुरूआत सन् 1994 में हुई थी। उद्देश्य या मूलमंत्र था कि शिक्षक विद्याॢथयों के गुण-दोष पहचान कर इस प्रकार शिक्षित करें कि वे श्रेष्ठ नागरिक बनने के साथ-साथ पढ़ाए गए विषयों में पारंगत हों और कीॢतमान स्थापित करें। यह संकल्पना कितनी सफल हुई यह भारत के संदर्भ में समझना आवश्यक है।

शिक्षक और व्यापार : आज दुनिया में सबसे अधिक पढ़ा-लिखा, भारत की तुलना में छोटा-सा देश दक्षिण कोरिया है। उसके बाद अन्य विकसित कहे जाने वाले देशों में चीन, रूस, कनाडा, अमरीका, जर्मनी, इंगलैंड, फ्रांस, आयरलैंड, नॉर्वे हैं। भारत का क्रम इनके बाद कहीं नब्बे के आसपास आता है, कुछ लोग कहते हैं कि 60 के आसपास हमारा नंबर है। मतलब यह कि हमारी दशा है ङ्क्षचताजनक। हमारी आधी आबादी लगभग अशिक्षित या काम चलाऊ रूप से शिक्षित है। बाकी के बारे में सोचना भी रुचिकर नहीं लगता क्योंकि तब अनपढ़ देशों की मंडली में आने का भय है। 

विडंबना यह है कि चीन जिससे आबादी के मामले में हम आगे निकल चुके हैं उसके शिक्षकों की संख्या हमसे दुगुनी यानी लगभग 2 करोड़ है। अग्रिम पंक्ति में आने वाले देशों में 50 से 80 लाख तक शिक्षक हैं।
अनुमान है कि विश्व में लगभग 15 करोड़ बच्चे सुबह पढऩे के लिए शानदार इमारतों और सभी प्रकार की सुविधाओं से लैस शिक्षण संस्थाओं में जाते हैं। इनमें भारत जैसे विकासशील देश भी हैं और अविकसित भी। इनमें शिक्षा के भव्य भवन भी मिल जाएंगे और मकान, दुकान, हवेली, पुराने जर्जर घर में बने स्कूल भी जो सर्व शिक्षा अभियान या ऐसी ही किसी सरकारी योजना से अनुदान या सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से गली मोहल्लों में बना लिए जाते हैं। 

इनमें पैसा लगाने वाला कभी सामने नहीं आता पर किसी नामी-गिरामी शिक्षक या जिसने पढ़ाने की ट्रेनिंग ली हो, बी.एड या एम.एड हो, उसे आगे कर दिया जाता है। उसका प्रमुख काम यह होता है कि पढ़ाई-लिखाई चाहे न हो लेकिन सरकारी सुविधाएं और गैर-सरकारी एन.जी.ओ. तथा विभिन्न उद्योगपतियों द्वारा स्थापित टैक्स बचाने के उद्देश्य से खोली गई चैरीटेबल संस्थाओं से धन की व्यवस्था करे। उसे भी पढऩे पढ़ाने से अधिक इन चीजों को जुटाने में अपनी भलाई दिखाई देने लगती है। इस तरह शिक्षक की आड़ में यह काला धंधा फलता-फूलता रहता है।

शिक्षा का चक्रव्यूह : शिक्षा के व्यावसायीकरण के नाम पर इस व्यापार के बाजार में इन घटिया संस्थानों की फीस इतनी बढ़ जाती है कि सामान्य आमदनी वाला व्यक्ति हसरत भरी निगाहों से इनके विशाल परिसरों को देखकर मुग्ध तो हो सकता है लेकिन अपने बच्चों को उनमें पढ़ाने का सपना तक नहीं देख सकता। वैसे आम आदमी के लिए यह अच्छा ही है कि वह इस झंझट में नहीं फंसता और परिवार तथा दोस्तों रिश्तेदारों के ताने भी सह लेता है कि क्या भाई साहब या भाभी जी अपने बेटे या बेटी को किसी बड़े स्कूल में भी नहीं पढ़ा सकते। 

वे गर्व से बताते हैं कि उनके बच्चे को कितनी मुश्किल से इनमें दाखिला मिला और देखिए कितनी सुविधा है कि सब कुछ स्कूल या यूनिवॢसटी से मिलता है, घर पर ट्यूशन के लिए भी वहीं से शिक्षक आ जाते हैं, बस खर्चा हो जाता है। यह भी जोड़ देते हैं कि इतनी कमाई किसके लिए कर रहे हैं, बच्चों का भविष्य बनाने के लिए ही न। हमारे देश में विश्वविख्यात और श्रेष्ठ शिक्षकों की कभी कोई कमी प्राचीन काल से ही नहीं रही है। उन्हें आज भी याद किया जाता है। हद तो तब हो जाती है जब उनके नाम का इस्तेमाल शिक्षा के बाजार में अपनी साख बनाने के लिए किया जाता है। 

गौतम बुद्ध, कौटिल्य या चाणक्य, स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु राम कृष्ण परमहंस, रवींद्र नाथ टैगोर, सावित्री बाई फुले, मदन मोहन मालवीय और अपने वैज्ञानिक शिक्षक राष्ट्रपति रहे ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, इनके नाम पर धूम-धड़ाके से चल रही शिक्षा की दुकानें पूरे देश में कुकुरमुत्तों की तरह बिखरी दिखाई दे सकती हैं। उनकी बड़ी-बड़ी मूर्तियां और विभिन्न अवसरों पर उनके माल्यार्पण के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, शिक्षकों को सम्मानित किया जाता है और इसके बदले उनसे अपने संस्थान की प्रशंसा में कुछ वाक्य बुलवाए जाते हैं।

इन दुकानों में परिवार के ही लोग कुलपति, उप-कुलपति, डीन, प्रोफैसर जैसे गौरवशाली पद अपने नाम कर लेते हैं और देश विदेश में शिक्षा सैमीनारों, सम्मेलनों में धनबल से अध्यक्ष या किसी पुरस्कार से सम्मानित होते रहते हैं। अंत में : कहते हैं कि सीखना या शिक्षा ग्रहण करने की प्रक्रिया जीवन भर चलती है। कोई न कोई सीख देने वाला मिल ही जाता है जिसकी भूमिका शिक्षक से कम नहीं होती। ऐसा भी होता है कि आपने किसी व्यक्ति को श्रद्धा और सम्मान से अपना गुरु बनाया और उसी ने वह सबक सिखाया जो जीवन भर नहीं भूलता। 

शिक्षक के रूप में बहुत से ढोंगी और पाखंडी भी मिलते हैं जिनकी कुटिलता हमें छल-फरेब को बेनकाब करने में बहुत काम आती है। कई बार तो सब कुछ लुटाकर होश में आने जैसी बात हो जाती है। विश्व शिक्षक दिवस पर यही कामना है कि सिखाने वाले इस योग्य मिलें जो अच्छे बुरे, सही गलत और झूठ तथा सच की कसौटी समझा सकें। -पूरन चंद सरीन


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