सिविल सेवा परीक्षा ने तोड़ी संकीर्णताएं

Tuesday, Jun 06, 2023 - 04:46 AM (IST)

हाल ही में घोषित संघ लोक सेवा आयोग (यू.पी.एस.सी.) द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा, 2022 का परिणाम अपने आप में उल्लेखनीय है। उल्लास की सुखद अनुभूति में जहां एक ओर सफलता की ऊंचाइयां छूती बेटियों का अथक परिश्रम शामिल है, वहीं हिंदी भाषा को गौरवपूर्ण स्थान देने का स्नेही भाव भी झलकता है। 

बेटियों के संदर्भ में उपलब्धि इसलिए विशेष है, चूंकि देश की सर्वाधिक कठिन परीक्षाओं में से एक, सी.एस.ई. में चार शीर्षस्थ स्थानों पर पहली बार सिर्फ बेटियों का ही दबदबा कायम रहा। हालांकि पिछली बार भी प्रथम 3 स्थानों पर लड़कियां ही काबिज रहीं, किंतु इस बार कुल 933 सफल अभ्यर्थियों में 320 महिलाएं होना, अग्रिम 25 स्थानों में 14 पर लड़कियां, हर तीसरा अभ्यर्थी एक महिला होना विशेष उपलब्धियां हैं। जहां दो दशक पूर्व लड़कियों की सफलता का आंकड़ा करीब 20 फीसदी था, वहीं वर्तमान में यह लगभग 34 फीसदी तक पहुंच चुका है। सामाजिक दृष्टिकोण के मद्देनजर यह एक सकारात्मक संकेत है। 

एक दशक उपरांत भारतीय भाषाओं के माध्यम से चयनित अभ्यर्थियों की संख्या 3 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 9 प्रतिशत तक पहुंचना सिविल परीक्षा, 2022 का दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है। 933 में से लगभग 79 अभ्यर्थी हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से चुने गए। यू.पी.एस.सी. के इतिहास में इसे हिंदी माध्यम के लिहाज से अब तक का सर्वश्रेष्ठ परिणाम आंक सकते हैं। इस वर्ष हिंदी माध्यम से सर्वाधिक 54 उम्मीदवार सफल हुए, जबकि गत वर्ष यह संख्या 24 थी। विचारणीय है कि 54 सफल अभ्यर्थियों में से 29 ने वैकल्पिक विषय के रूप में हिंदी साहित्य का चयन किया। 

भारत में सिविल सेवाओं की शुरूआत ब्रिटिश काल के दौरान 1885 में हुई। लॉर्ड कॉर्नवालिस को इसका जनक माना जाता है। 1863 में सत्येंद्र नाथ टैगोर सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले प्रथम भारतीय थे। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात 1922 में पहली बार भारत में सिविल सेवा परीक्षा आयोजित हुई, जिसे ‘इंडियन इंपीरियल सर्विस’ के नाम से जाना गया।स्वतंत्र भारत में संवैधानिक प्रावधानों के तहत 26 अक्तूबर, 1950 को लोक सेवा आयोग की स्थापना हुई। संवैधानिक दर्जा देने सहित इसे स्वायत्ता भी प्रदान की गई, ताकि योग्य अधिकारियों की भर्ती बिना किसी दबाव के की जा सके। नवगठित आयोग को ‘संघ लोक सेवा आयोग’ का नाम दिया गया। केरल के एर्नाकुलम जिले में जन्मी अन्ना राजम मल्होत्रा देश की पहली आई.ए.एस. अफसर बनीं। 

बतौर परीक्षा-माध्यम अंग्रेजी का वर्चस्व दीर्घकाल तक स्थापित रहा। यद्यपि भारतीय भाषाओं को शामिल करने की शुरूआत 1979 से हो चुकी थी, तथापि प्राथमिक आधार पर अंग्रेजी का ही रुतबा बुलंद रहा। 2012 को माध्यम के रूप में हिंदी भाषा का आरंम्भिक दौर भी संकुचित दायरे में ही रहा। इसे पाश्चात्य सभ्यता का अति मोह ही कहेंगे कि हमारे देश में ङ्क्षहदी अथवा स्थानीय भाषाओं की अपेक्षा अंग्रेजी भाषा को बोलचाल अथवा लेखन के तौर पर अपनाना गौरव का विषय समझा जाता है। 

देश में प्रतिभाओं का अभाव नहीं, कमी है तो केवल प्रतिभा सम्पन्न होने के बावजूद उनके सामथ्र्य का सही मूल्यांकन न करते हुए, भाषायी आधार पर उन्हें पिछड़ा समझकर बेहतरीन अवसरों से अलग-थलग कर डालने की। ङ्क्षहदी अथवा स्थानीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने वाले अधिकतर छात्र-छात्राएं प्रज्ञावान होने पर भी उच्च पदों तक पहुंचने की दौड़ में केवल इसलिए पीछे छूट गए, क्योंकि वे इंगलिश मीडियम विद्यालयों से शिक्षा प्राप्त विद्याॢथयों की भांति धाराप्रवाह अंग्रेजी नहीं बोल पाए। उनकी उड़ान अधिकतर छोटी नौकरियों तक ही सीमित रह जाती है। प्रतिभा आकलन का यह संकीर्ण पैमाना जहां देश को सुयोग्य पदाधिकारियों की महत्वपूर्ण सेवाओं से वंचित करता है वहीं देशी भाषाओं में गहरी पकड़ रखने वाले अनेक धुरंधरों को भी क्षुब्ध व  कुंठाग्रस्त बना डालता है। 

लोक सेवा सच्चे अर्थों में प्रशासन का लोकतंत्रीकरण है, जिसका स्वप्न गांधी, लोहिया तथा कोठारी समिति ने देखा था। अनेक देशी-विदेशी भाषाओं पर अधिकार होना नि:संदेह प्रशंसनीय है, राष्ट्रीय-अंतर्र्राष्ट्रीय संवाद संस्थापन में अत्यंत लाभकारी सिद्ध होता है, किंतु महत्व में किसी भी भाषा को दूसरी से कमतर आंकना एक स्वस्थ दृष्टिकोण हरगिज नहीं। विशेषकर बात जब लोक सेवा की हो तो भाषायी माध्यम व आंकिक परीक्षण की बजाय प्राथमिक महत्व उन गुणों को मिलना चाहिए जो लोक जुड़ाव की बोली बोलें, समझें एवं लोक सेवा के आधार पर अभ्यर्थी को योग्य प्रशासनिक अधिकारी साबित कर पाएं। माटी से जिसका जितना गहरा संबंध होगा, समस्याओं की धूल फांकते आमजन की व्यथा वही बेहतर ढंग से समझ-सुलझा पाएगा। 

बेटियां उच्चतम पदों की ओर शीर्षोन्मुख हो रही हैं, हिंदी अपने गरिमामयी भविष्य की ओर अग्रसर है; यू.पी.एस.सी. के हालिया परिणाम ठंडी बयार के सुखद झोंके लेकर आए हैं। जहां यह परिणाम हिंदी/अन्य भारतीय भाषी प्रतिभाओं का मनोबल बढ़ाकर सफलता के नए द्वार खोलेगा, वहीं असंख्य बेटियों के स्वप्नों को बृहद आकार देने का सबब भी बनेगा। साथ ही उन अभिभावकों की संकीर्ण मानसिकता पर भी प्रहार करेगा जो अपनी दकियानूसी सोच के चलते बेटियों को बोझ मानते हैं। परिणाम साक्षी हैं कि यदि अवसर दिए जाएं तो बेटियां कठिनतम परीक्षाओं में भी अपना सामथ्र्य दिखाने में लड़कों से किंचित मात्र भी पीछे नहीं।-दीपिका अरोड़ा
 

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