चीन-भूटान संधि व भारत के लिए इसके मायने

Sunday, Oct 24, 2021 - 12:13 PM (IST)

14 अक्तूबर 2021 को चीन तथा भूटान ने एक एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर किए जिसके अंतर्गत अपने लम्बित सीमा विवादों के समाधान के लिए एक रोडमैप तैयार करने के लिए कदम उठाए गए हैं। इस एम.ओ.यू. में अप्रैल 2021 में कुनमिंग में आयोजित विशेष समूह की 10वीं बैठक के दौरान दोनों देशों के बीच उत्पन्न समझ को भी शामिल किया गया। इस एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर डोकलाम के ट्राई-जंक्शन में चीन-भारत सेनाओं के बीच 73 दिन चले संघर्ष के 8 महीने बाद किए गए। चीन ने एक क्षेत्र में सड़क बनाने का प्रयास किया जो भूटान का कहना था कि उसका है। भूटान तथा चीन के बीच 400 कि.मी. से अधिक लम्बी सीमा है। पेइचिंग हिमालयन किंगडम के उत्तर-पश्चिमी तथा केंद्रीय क्षेत्रों के पार फैले भूटानी क्षेत्र के 765 वर्ग कि.मी. पर अपना दावा जताता है।

 

दिलचस्प बात यह है कि भूटान चीन का एकमात्र पड़ोसी है जिसके साथ इसके औपचारिक कूटनीतिक संबंध नहीं हैं। दोनों के बीच सीमा विवाद सुलझाने के लिए द्विपक्षीय वार्ताएं 1984 में शुरू हुई थीं। गत साढ़े 3 दशकों से अधिक समय के दौरान दोनों देशों के बीच सीमा को लेकर 24 तथा विशेषज्ञ समूह के स्तर पर बातचीत के 10 दौर आयोजित किए गए। 1997 में चीन ने प्रस्ताव दिया कि वह केंद्रीय भूटान में अपने क्षेत्र विस्तार के दावे को त्याग देगा। इसके बदले में उसने मांग की कि पश्चिमी क्षेत्र, जिसमें डोकलाम का ट्राई-जंक्शन शामिल है, उसे सौंप दिया जाए। भूटान ने तब भारत की संवेदनशीलता को देखते हुए प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। इसका कारण एक संकरा सिलीगुड़ी कॉरीडोर है जो भारत के बाकी हिस्से को उत्तर-पूर्व से जोड़ता है। यह भारत के दो चिकननैक्स में से एक है।

 

दूसरी जम्मू के जरा-सा उत्तर में अखनूर में स्थित है। ऐतिहासिक तौर पर चीन भूटान सीमा विवादों में भूटान के पश्चिमी तथा केंद्रीय हिस्से शामिल हैं। पेइचिंग का तर्क है कि उत्तर-केंद्रीय भूटान में स्थित जाकुर लंग तथा पासामलंग घाटियों में 495 वर्ग कि.मी. तथा अन्य 269 वर्ग कि.मी. पश्चिमी भूटान में स्थित क्षेत्र उसका है। यद्यपि जून 2020 में चीन ने साकतेंग वन्यजीव अभ्यारण्य पर भी अपना दावा जताया जो 650 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। अभ्यारण्य भूटान के पूर्वी जिले त्राशीगांग में स्थित है। इस दावे की उत्पत्ति भारत के गुवाहाटी तथा त्वांग के बीच एक सड़क सम्पर्क निर्माण करने के प्रस्ताव में निहित है जो अभ्यारण्य के बीच से गुजरेगा। इस योजना से असम में गुवाहाटी तथा अरुणाचल प्रदेश में त्वांग के बीच मोटर मार्ग के समय में 5 घंटों की कमी आएगी जिससे त्वांग के साथ लगती वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत को अपने सैनिक तेजी से तैनात करने में मदद मिलेगी। चीन-भूटान सीमा विवाद यह देखते हुए जटिल है कि यह दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में उलझा हुआ है और आवश्यक तौर पर चीन-भारत सीमा विवाद से यह देखते हुए संबंधित है कि भूटान तथा भारत के बीच विशेष संबंध है। 

 

चीन के साथ अपनी सीमा वार्ता के दौरान भूटान एक नाजुक स्थिति में होगा। भूटान तथा भारत के बीच विशेष संबंध 1949 में हस्ताक्षर की गई शांति एवं मित्रता संधि के आधार पर स्थापित हुआ था। इसके बाद इसे 2007 में भारत-भूटान मित्रता संधि से बदल दिया गया।  2007 की संधि की धारा 2 कहती है कि दोनों देश ‘अपने राष्ट्रीय हितों से संबंधित मुद्दों पर एक-दूसरे के साथ करीबी सहयोग करेंगे।’ इसमें एक-दूसरे की राष्ट्रीय सुरक्षा तथा हितों के लिए नुक्सानदायक गतिविधियों के लिए अपनी जमीन न देने के लिए भी कहा गया है। इससे भूटान के लिए जरूरी हो जाएगा कि चीन के साथ अपनी सीमा संबंधी वार्ताओं के दौरान वह इस तरह से बात न करे कि भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए हानिकारक मुद्दों में चीन को किसी भी तरह का रणनीतिक लाभ न मिले। 

 

भारत को चीन भूटान वार्ताओं पर बाज जैसी नजर रखनी होगी कि कैसे ये क्षेत्र में घटनाक्रमों को बढ़ावा देते हैं जिनमें चीन की चुम्बी वैली शामिल है जो डोकलाम पठार के उत्तर में स्थित है। चुम्बी घाटी तथा पश्चिम बंगाल में सिलीगुड़ी कॉरीडोर, जो डोकलाम के दक्षिण में स्थित है, बहुत महत्वपूर्ण  चैक प्वाइंट्स हैं। यह दोनों देशों के लिए बराबर के महत्वपूर्ण हैं। तिब्बती जनसंख्या वाली चुम्बी घाटी को आमतौर पर हिमालयन क्षेत्र में रियल एस्टेट के रणनीतिक तौर पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्से के तौर पर जाना जाता है। यह पेइङ्क्षचग को नेपाल तथा बंगलादेश के बीच 24 कि.मी. चौड़े सिलीगुड़ी कॉरीडोर को काटने की क्षमता प्रदान करता है जो बाकी भारत को इसके उत्तर-पूर्व से जोड़ता है। 

 

यदि चीन तथा भूटान के बीच वार्ता फलीभूत होती है तो इसका अर्थ यह होगा कि चीन को अपने अन्य सभी सीमा विवादों को हल करना होगा। 1949 से जारी इसके 23 क्षेत्रीय विवादों में से चीन ने कम से कम 17 को खत्म करने का प्रस्ताव दिया है। इसने बड़ी तेजी से अपने दावे वाली लगभग आधी जमीन का समाधान कर दिया है। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण चीन-ताजिकिस्तान सीमा विवाद है जिसका समाधान जनवरी 2011 में दोनों देशों के बीच एक समझौते के द्वारा किया गया। समझौता जिसके माध्यम से 130 वर्ष पुराना भूमि विवाद समाप्त किया गया के अंतर्गत ताजिकिस्तान को चीन के पामीर पर्वतों में करीब 1000 वर्ग किलोमीटर जमीन छोडऩी पड़ी। इसके अनुसार चीन को 28,000 वर्ग कि.मी.  जमीन का केवल 3.5 प्रतिशत मिलेगा जिसे वह ऐतिहासिक चीनी जमीन घोषित करता था। कजाखस्तान तथा किॢगस्तान के साथ अपने सीमा समाधान के अंतर्गत चीन को अपने प्रारंभिक दावे की क्रमश: मात्र 22 तथा 32 प्रतिशत जमीन से संतुष्ट होना पड़ा।  इससे यह पता चलता है कि चीन वास्तव में क्षेत्र को लेकर अधिक परवाह नहीं करता। 

 

इसके विपरीत चीन ने अपना कोई भी समुद्री सीमा विवाद हल नहीं किया। यह स्थिति कुछ स्वाभाविक प्रश्र पैदा करती है : दोनों पक्षों के विशेष प्रतिनिधियों के बीच वार्ता के कई दौरों के बावजूद भारत-चीन सीमा वार्ता में कोई प्रगति क्यों नहीं हुई और क्यों वर्तमान में वार्ता रुकी हुई है? क्या यह दोनों पक्षों में लचक के अभाव तथा प्रतिकूलता के कारण है या चीन भारत को असंतुलित बनाए रखना अधिक सहज मानता है? जो भी मामला हो भारत को अपनी चीन संबंधी रणनीति को एक नए नजरिए से देखना होगा। 

मनीष तिवारी

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