स्कूलों में बच्चे अब खेलेंगे ठेठ भारतीय खेल

punjabkesari.in Monday, Aug 29, 2022 - 05:51 AM (IST)

खबर है कि गिल्ली- डंडा, पोशम- पा, राजा- मंत्री- चोर- सिपाही, ऊंच- नीच, सटापू, आइस- पाइस, पिट्ठू गरम वगैरह ही नहीं, खो- खो और कंचों समेत करीब 75 ठेठ ‘भारतीय खेलों’ को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने की योजना पर काम चल रहा है। इसे शिक्षा मंत्रालय के ‘इंडियन नॉलेज सिस्टम’ के तहत लागू किए जाने की तैयारी है। हाल ही में, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नैशनल एजुकेशन पॉलिसी की दूसरी वर्षगांठ के मौके पर पारम्परिक भारतीय खेलों की फेहरिस्त में लंगड़ी टांग, पतंगबाजी, विष-अमृत वगैरह खेलों को शामिल करने का मसौदा पेश किया है। 

महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के संथाल जनजाति के खेल ‘संथाल कट्टी’ को भी लिस्ट में जगह मिली है। उधर सुदूर उत्तर पूर्वी प्रदेश मणिपुर का लोकप्रिय खेल ‘यूबी लकपी’ भी इसमें सम्मिलित है। बता दें कि गिल्ली-डंडा या लिप्पा गुजरात, सतोलिया/पिट्ठू / लगोर कर्नाटक, कंचा या लखोटी बिहार और खो- खो, गुट्टे व सटापू या नोंडी तमिलनाडु के पारम्परिक खेल हैं। इसके पीछे सोच है कि न केवल ठेठ भारतीय खेल ही स्कूली बच्चों को खिलाए जाएं, बल्कि स्कूली स्तर पर खेल-कूद को खासा बढ़ावा दिया जाए।

गौरतलब है कि गांव-देहात और दूर-दराज के स्कूलों में इंफ्रास्ट्रक्चर के अभाव के चलते बैडमिंटन या बॉस्केटबॉल जैसे खेलों का जरूरी तामझाम नहीं होता। इसलिए बच्चों को इन्हें खेला पाना मुमकिन नहीं होता। जबकि पारम्परिक खेल बिना किसी या ज्यादा तामझाम के यूं ही खेले जा सकते हैं। इसलिए पी.टी. टीचर की मदद से इन खेलों को स्कूलों में आसानी से उतारा जा सकता है। क्योंकि ये सारे खेल नाममात्र साज- सामान के खेल सकते हैं। और फिर, अपनी ज़मीन से जुड़ाव पैदा करते हैं, और क्रिएटिविटी को बढ़ाते ही हैं। 

सच है कि बदलते दौर में पिट्ठू, गिल्ली-डंडा, लट्टू, पतंगबाजी, गुलेल, लुका-छिपी जैसे पारंपरिक भारतीय खेलों की जगह क्रिकेट, हॉकी जैसे हाई-प्रोफाइल गेम्स ने ले ली है। पहले हर वर्ग के बच्चे हर शाम गली-मोहल्ले में दोस्तों के साथ मिलकर ठेठ भारतीय खेलों से आनंदित होते थे। इन खेलों से दूर होकर ही बच्चे मोटापा और बड़े छोटी उम्र में ही बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। 

पहले तो अभिभावक ही बच्चों को इन्हें खेलने का बढ़ावा देते थे, अब स्कूल भी ऐसा करेंगे। नई पॉलिसी के तहत बच्चे स्कूल में ही कंचे से लेकर लट्टू, गुलेल, पतंग, गिल्ली- डंडा समेत 75 से ज्यादा मामूली खेल खेलेंगे। इन्हें खेलना भी आसान है। लुका- छिपी या छुपन- छुपाई तो कई बच्चे एक साथ मिलकर खेल सकते हैं। एक खिलाड़ी को अपनी आंखों पर रुमाल बांध कर निर्धारित गिनती गिननी होती है। इस बीच बाकी खिलाड़ी सीमित जगह में छुप जाते हैं। आंखें बंद करने वाले खिलाड़ी को छिपे सभी खिलाडिय़ों को ढूंढना होता है। अगर वह इसमें सफल होता है, तो सबसे पहले ढूंढे गए खिलाड़ी को अपनी आंखें बंद करनी होती हैं। यही क्रम चलता जाता है। खेल का खेल और अच्छा-खासा शारीरिक व्यायाम भी हो जाता है। 

अब उम्मीद जागी है कि स्कूलों में बच्चे इसे फिर से खूब खेलेंगे। पिट्ठू गरम खेलने के लिए एक गेंद, 7-8 समतल पत्थर और दो टीमों में कम से कम 3- 3 खिलाड़ी चाहिएं। इन पत्थरों को एक के ऊपर एक मीनार की तरह सजाते हैं। खेलने वाली दो टीमें होती हैं। एक टीम रबड़ की गेंद से उसे गिराती है। दूसरी टीम अगर पत्थर वापस सजा लेती है, तो विजयी हो जाती है। इस बीच, ऐसा करने से रोकने के लिए पहली टीम खिलाडिय़ों के घुटनों से नीचे बॉल मारती है। दोनों टीमों में खिलाडिय़ों की संख्या बराबर होनी चाहिए। गुलेल निशाना साधने का खेल है। सटापू खेल जमीन पर खाने बना कर एक छोटे से पत्थर से खेलते हैं। पत्थर का टुकड़ा जिस खाने में जाकर  गिरता है, उसमें छलांग लगाकर कूदना होता है। न कूद सको, तो दूसरे की पारी आ जाती है। 

भारतीय खेलों की जड़ें प्राचीन शास्त्रों तक में फैली हैं। जैसे गिल्ली-डंडा और मल्ल युद्ध 5000 साल से अधिक पुराने खेल बताते हैं। इंडियन नॉलेज सिस्टम (आई के एस) के संयोजकों और विशेषज्ञों का मानना है कि महाभारत तक में कृष्ण, अर्जुन और भीम का गिल्ली-डंडा खेलने का उल्लेख है। 

सभी पुराने खेलों का यही हाल है, लेकिन अलग-अलग प्रदेशों में नाम भिन्न- भिन्न हैं। वास्तव में, तमाम भारतीय खेल जीवन के पाठ और शिक्षा-सबक पर आधारित हैं। जैसे विष-अमृत नकारात्मकता पर सकारात्मकता की जीत जताती है। और खास बात है कि हर महीने मौसम के अनुकूल खेल बच्चों को बताए-सिखाए जाएंगे। हर स्कूल के पी.टी. टीचर तस्वीरों और वीडियो के जरिए बच्चों को खेल दिखाएंगे और सिखाएंगे। समय-समय पर उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ पी.टी. अध्यापक और स्कूल को प्रशस्ति पत्र प्रदान कर प्रोत्साहित और सम्मानित किया जाएगा।-अमिताभ स. 
 


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