‘बदइंतजामी की भेंट चढ़ते बच्चे’

Wednesday, Dec 16, 2020 - 05:14 AM (IST)

कोटा के जे.के. लोन अस्पताल में 24 घंटे में ही 9 नवजातों की मौत ने एक बार फिर से राज्य की चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था को बहस के केन्द्र में ला खड़ा किया है। पिछले ही साल बच्चों की मौत से हंगामा बरपा था और अस्पताल के कुप्रबंधन के चलते जे.के. लोन अस्पताल पूरे देश में सुर्खियों में आ गया था। अस्पताल प्रशासन चाहे कुछ भी कहे, लेकिन सच यह है कि इस अस्पताल में बच्चों की मौत के लिए बीमारी से ज्यादा वहां की बदइंतजामी जिम्मेवार है। स्वास्थ्य मंत्रालय के निर्देश पर गठित टीम ने निरीक्षण करने पर पाया कि नियोनेटल इंटैंसिव केयर यूनिट (एन.आई.सी.यू.) की स्थिति बदहाल है जिसके चलते बच्चों में इंफैक्शन फैल रहा है। 

पिछले साल भी जब नैशनल कमिशन फॉर प्रोटैक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स द्वारा अस्पताल का दौरा किया गया, तो पाया गया कि अस्पताल की खिड़कियों में शीशे नहीं हैं और दरवाजे टूटे हुए हैं। लिहाजा, कड़ाके की ठंड से भी बच्चे लील गए थे। दूसरी ओर अस्पताल का रखरखाव भी सही नहीं पाया गया। शर्मनाक बात तो यह है कि अस्पताल परिसर में सुअर घूम रहे थे। जाहिर है, अस्पताल की इन बदइंतजामियों की बच्चों की मृत्यु में बहुत बड़ी भूमिका है। 

दूसरी ओर, अस्पताल में उपकरणों व स्टाफ की कमी की बात भी सामने आई है। पिछले साल दिसंबर में भी यही स्थिति देखी गई थी। अस्पताल में अभी भी 100 के करीब उपकरण खराब पड़े हैं। डॉक्टरों के पद भी खाली हैं। वर्तमान में प्रोफैसर के तीन स्वीकृत पदों में से एक ही है। एसोसिएट प्रोफैसर 4 में से 1 कार्यरत हैं। इन पर 230 बच्चों का भार है। लिहाजा, लापरवाह सिस्टम के कारण कई माताओं की कोख उजड़ चुकी है, साल बदलते रहते हैं, लेकिन ढर्रा और व्यवस्था नहीं बदल रही। सिर्फ इस जे.के. लोन अस्पताल में हर साल औसतन 1000 बच्चों की मौत हो रही है। पिछले सात सालों में हर साल 900 से 1200 बच्चों की उपचार के दौरान मौत हो चुकी है। पिछले सात सालों में कुल 7563 बच्चे मर चुके हैं। इस साल अब तक 917 बच्चे अपनी जान गंवा चुके हैं। 

इससे इतर, 2018 में राजस्थान सरकार द्वारा विधानसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक 20 फ़ीसदी बच्चों का वजन कम या बहुत कम है। वर्ष 2015 में यह आंकड़ा लगभग 25 फ़ीसदी था। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार राजस्थान में पांच साल से कम आयु के 35.7 फीसदी बच्चों का वजन कम पाया गया और 38.4 फीसदी बच्चे कुपोषित थे। यानि बच्चों का कम वजन भी उनकी मौत की वजह हो सकता है। वहीं लांसेट में सितंबर, 2019 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पांच साल की आयु तक के बच्चों की मौत के 68 फ़ीसदी मामलों का कारण कुपोषण है। रिपोर्ट ने ता जताई है कि राजस्थान सबसे अधिक कुपोषित राज्य है और इसके बाद उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा आदि का स्थान है। 

इन सबसे अहम यह कि जून, 2018 में नीति आयोग द्वारा जारी स्वास्थ्य सूचकांक में 21 राज्यों में राजस्थान को 16वां स्थान मिला था। इससे इतर, राजस्थान में शिशु मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। प्रति हजार 38 बच्चे अपनी जाव गंवा देते हैं जबकि राष्ट्रीय औसत 33 से अधिक है। लिहाजा, हर साल जन्म लेने वाले 16.5 लाख शिशुओं में लगभग 62,843 की मौत हो जाती है और देश के कुल शिशु मृत्यु में राजस्थान का हिस्सा आठ फ़ीसदी है। यूनिसेफ द्वारा जारी ‘एवरी चाइल्ड अलाइव रिपोर्ट’ के मुताबिक देश में प्रत्येक वर्ष जन्म लेने वाले 26 लाख बच्चे एक महीने की जिंदगी भी नहीं जी पाते हैं। इन 26 लाख बच्चों में दस लाख बच्चे तो ऐसे हैं जो जन्म लेने के दिन ही अपनी जान गंवा देते हैं। 

यानि बदइंतजामी और संसाधनों की कमी बच्चों की मौत की बड़ी वजहों में से हैं। लेकिन, हमेशा ही स्थायी समाधान खोजने के बजाय इसे सामान्य बता कर मूल समस्याओं से पल्ला झाड़ लिया जाता है। सरकारें बदलती रहती हैं, लेकिन आज तक स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर सरकारें संजीदा नहीं हुईं। कोरोना जैसी गंभीर महामारी में भी सरकारें स्वास्थ्य क्षेत्र की समस्याओं को दूर करने में नाकाम रहीं। लेकिन, समझना होगा कि हर ऐसे अस्पतालों में मरते तो आखिर बच्चे ही हैं और सूनी उन मां की गोदें होती हैं जो गरीब हैं और केवल गरीब हैं। सवाल है कि क्या ‘गरीब होना एक अभिशाप है’ वाली कहावत को हमारी सरकारें चरितार्थ करने पर तुली हुई हैं?  यकीनन, नीति-नियंताओं को अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति को और भी प्रबल बनाने की जरूरत है। लेकिन, सवाल है कि क्या निहित स्वार्थों के नक्कारखाने में यह आवाज सुनी जाएगी?-रिजवान अंसारी
 

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