‘चीफ ऑफ डिफैंस स्टाफ’ देशहित में

punjabkesari.in Saturday, Aug 24, 2019 - 01:06 AM (IST)

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 73वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से अपनी प्राकृतिक योग्यता वाले अनुभवी लहजे में अनेकों पहलुओं पर रोशनी डालते हुए देश की तीनों सशस्त्र सेनाओं को एक माला में पिरो कर अधिक ताकतवर बनाने के उद्देश्य से ‘चीफ ऑफ डिफैंस स्टाफ’ (सी.डी.एस.) का स्वागतयोग्य निर्णय करके दशकों पुराने लंबित मसले का हल कर दिया है। सी.डी.एस. का ढांचा तथा कार्यशैली तय करने से जहां बलों के बीच अधिक तालमेल तथा एकसुरता पैदा होगी, वहीं उन पर लाल फीताशाही का दबाव भी कम हो जाएगा।

जरूरत क्यों पड़ी
ब्रिटिश शासनकाल के समय कमांडर इन चीफ को अलौकिक दर्जा प्राप्त था। वास्तव में उसका दर्जा रक्षा मंत्री वाला था। इसके अतिरिक्त बाद में मेजर जनरल रैंक का अधिकारी सेना सचिव भी नियुक्त किया गया, जिसका काम वित्त मंत्रालय जैसे बाकी विभागों तथा राज्य सरकारों के साथ तालमेल बनाना था। इसके साथ ही उसे पूर्व सैनिकों के कल्याण हेतु नैतिक जिम्मेदारी भी सौंपी गई। शायद यही वजह थी कि पूर्व सैनिकों को सिविलियनों से अधिक सम्मान मिलता रहा और उनको जमीनें भी बांटी गईं।

1920 में सेना सचिव का पद बदल कर रक्षा सचिव कर दिया गया जो आई.सी.एस. अधिकारी होता था लेकिन उसका दर्जा सी.एन.सी. से नीचे वाला ही था। देश के विभाजन के तुरंत बाद रक्षा मंत्रालय में तैनात अफसरशाही में सर्वोच्चता वाली गलत धारणा पैदा हो गई जिसे हमारे शासक 7 दशकों तक भी दूर नहीं कर सके। अब शायद मोदी सी.डी.एस. की नियुक्ति करने के बाद ऐसा कर सकें। लार्ड इस्मे द्वारा राजनीतिक तथा सैन्य नेतृत्व के बीच सीधे तौर पर रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री के साथ विचार-विमर्श हेतु तालमेल बनाने वाली सांझी समितियां भंग कर दी गईं। सबसे पहले तीन सदस्यीय एक समिति गठित की गई जिसमें आर.एन. बनर्जी (गृह), विष्णु सहाय (कश्मीर मामले) तथा एच.एम. पटेल (रक्षा) शामिल थे।

इस समिति ने सिफारिश की कि सशस्त्र सेनाओं के प्रमुखों का दर्जा रक्षा सचिव से नीचे वाले दर्जे का होना चाहिए। तब तीनों सेनाओं के प्रमुख ब्रिटिश अधिकारी थे, जिन्होंने सिविल अफसरशाही की सोच तथा सिफारिश पर आपत्ति जताते हुए गवर्नर जनरल लार्ड माऊंटबैटन से शिकायत की, जिनके परामर्श पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने समिति की सिफारिशों को ठुकरा दिया। नेहरू ने सेना प्रमुखों का कूटनीतिक शिष्टाचार वाला दर्जा रक्षा सचिव से ऊपर रखना स्वीकार तो कर लिया लेकिन व्यावहारिक तौर पर उनकी अधीनता अधिक बढ़ती गई। 

वास्तव में सिविल अफसरशाही हमेशा राजनेताओं को यह कह कर गुमराह करती रही कि देखो, कहीं सेना का दर्जा ऊंचा कर दिया तो पाकिस्तान जैसा हाल न हो जाए। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1962 में चीन की सेना को हिमालय से बाहर निकालने वाला प्रधानमंत्री नेहरू का आदेश सेना प्रमुख जनरल थापर को संयुक्त रक्षा सचिव एच.सी. सरीन द्वारा दिया गया था। इससे स्पष्ट है कि देश की रक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पूर्व सेना प्रमुख के साथ कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया। 

इसके विपरीत 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय लाल बहादुर शास्त्री ने रक्षा सचिव को दरकिनार करते हुए सेना प्रमुख जनरल चौधरी तथा सेना कमांडर लैफ्टीनैंट जनरल हरबख्श सिंह के साथ सीधा सम्पर्क कायम रखा और युद्ध में विजय प्राप्त की। इसी तरह 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान बंगलादेश का निर्माण तभी सम्भव हो सका, जब इंदिरा गांधी ने दिल्ली दरबार की नौकरशाही तथा कुछ राजनेताओं की सिफारिशों को ठुकराते हुए सेना प्रमुख का सुझाव मान लिया और युद्ध लडऩे की योजना 6 महीनों के लिए टाल दी गई। 1971 की चमत्कारी विजय के बाद मानेकशॉ को फील्ड मार्शल का दर्जा तो दिया गया लेकिन सी.डी.एस. का रुतबा देने वाली तजवीज सिरे नहीं चढ़ी। 

इसके बाद सी.डी.एस. का ज्वलंत मुद्दा प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय सेना प्रमुखों के आंतरिक मतभेदों तथा कुछ अन्य अड़चनों के कारण उलझ गया। एक बार फिर सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित टास्क फोर्स गठित की, जिसका चेयरमैन एक सिविलियन उच्चाधिकारी नरेश चन्द्र को नियुक्त किया गया, जिसने सी.डी.एस. की बजाय पक्के तौर पर चेयरमैन चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी गठित करने की सिफारिश करके सभी को असमंजस में डाल दिया।

समीक्षा तथा सुझाव
आज देश की तीनों सशस्त्र सेनाओं के अतिरिक्त राष्ट्रीय सुरक्षा एजैंसी (एन.एस.ए.), डिफैंस इंटैलीजैंस एजैंसी (डी.आई.ए.), बार्डर मैनेजमैंट अथारिटी, राष्ट्रीय तकनीकी खोज संस्था (एन.टी.आर.ओ.), स्ट्रैटेजिक फोर्स कमांड (एस.एफ.सी.) तथा न्यूक्लियर कमांड अथारिटी आदि का गठन किया गया। पिछले साल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अध्यक्षता में डिफैंस प्लाङ्क्षनग कमेटी (डी.पी.सी.) का भी गठन किया जा चुका है। यह समिति नैशनल डिफैंस की व्याख्या करने के साथ-साथ व्यापक रक्षा क्षेत्र बारे विचार करेगी। अभी हाल ही में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल न करने वाली नीति पर पुर्नविचार करने का संकेत भी दिया है। इसके अतिरिक्त साइबर वारफेयर की ओर भी ध्यान देने की जरूरत है। उक्त संस्थाओं के बीच एकसुरता, तालमेल, सहयोग करके सांझे तौर पर सभी बलों का प्रबंधकीय नियंत्रण सी.डी.एस. को सौंपा जा सकता है। सशस्त्र सेनाओं की आप्रेशनल जिम्मेदारी सेनापतियों के हाथ में ही होनी चाहिए। 

हम महसूस करते हैं कि सी.डी.एस. को मुख्य तौर पर कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (सी.सी.एस.) का सैन्य सलाहकार वाला प्रमुख कार्य भी सौंपा जाए। उसे प्रधानमंत्री के साथ सीधा सम्पर्क स्थापित रखने की जरूरत होगी, जैसे मोदी ने बालाकोट एयर स्ट्राइक के समय वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल बी.एस. धनोआ के साथ निजी तौर पर विचार-विमर्श करके पाकिस्तान को कड़ा संदेश दिया, जिससे सेना तथा देशवासियों का मनोबल ऊंचा हुआ। आशा है कि देश के बाहरी तथा आंतरिक खतरों, भविष्य की रणनीतिक चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए निष्पक्ष तौर पर बहुत सूझबूझ से सी.डी.एस. का चयन किया जाएगा। इसी में देश तथा सेना का भला होगा।-ब्रिगे. कुलदीप सिंह काहलों 
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News