छू मंतर और लाखों गाड़ियां गायब

punjabkesari.in Wednesday, May 24, 2023 - 05:00 AM (IST)

बीता साल कारों की रिकार्ड बिक्री का था तो अब लगभग हर महीने कारों की बिक्री का नया रिकार्ड बन रहा है। सरकार की इच्छा अनुसार इलैक्ट्रिक वाहनों की बिक्री तेजी से बढ़ रही है। ई-रिक्शा में तेजी है। दिल्ली जैसे शहरों के प्रदूषण में भी कुछ राहत है। पर इससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक एक आंकड़ा सामने आया है। दिल्ली में पंजीकृत वाहनों की संख्या में पिछले वर्ष अर्थात 2021-22 में सीधे 35.4 फीसदी कमी हो गई। यह करीब एक-तिहाई से ज्यादा की कमी है, जो 17 सालों में पहली बार हुआ है। 

2020-21 में दिल्ली में 1.2 करोड़ पंजीकृत वाहन थे, जो 2021-22 में 79.2 लाख रह गए। अब प्रदूषण में कमी वाला मसाला तो खुश होने का था लेकिन वाहनों की संख्या वाले इस विरोधाभास पर हंसें या रोएं, यह फैसला करना आसान नहीं। जब दिल्ली सरकार ने 48,77,646 वाहनों का पंजीयन समाप्त किया तो कुछ सोचकर या किसी कायदे से ही किया होगा। लेकिन उससे भी बड़ी बात है कि ये सारे वाहन किसी न किसी के उपयोग में थे, जीवन चला रहे थे, उनकी शान थे। अचानक हुई उनकी विदाई ने इन लोगों के जीवन और जेब पर असर तो डाला ही होगा। यह और बात है कि हमको-आपको चूं की आवाज भी सुनाई नहीं दी। 

असल में जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2020-21 के बजट में निजी वाहनों और व्यावसायिक वाहनों को जोड़कर करीब 80 लाख गाडिय़ों को ‘स्क्रैप’ करने की और साथ ही पुराने वाहनों के बारे में नई नीति लाने की घोषणा की थी। यह फैसला सिर्फ नई गाडिय़ों के लिए नहीं था, बल्कि उन गाडिय़ों पर भी लागू हुआ, जिनका 15 और 20 साल का रोड टैक्स पहले वसूला जा चुका था और इस गैर-कानूनी फैसले और काम के बदले उसने स्क्रैप गाड़ी का चेसिस नम्बर बताने पर नई गाड़ी खरीदने पर हल्की छूट की घोषणा इस तरह की, जैसे अपनी तरह से कोई बोनस दे रहा हो। उससे पहले भी ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दिल्ली-एन.सी.आर. में गाडिय़ों की जीवन अवधि बिना किसी वैज्ञानिक या तार्किक आधार के तय करके हंगामा मचाया और जब तक नई आटोमोबाइल नीति घोषित हो तब तक लाखों गाडिय़ां सचमुच के कबाड़ वाले अन्दाज में बिक गईं। 

कहना न होगा कि मामला दिल्ली भर का नहीं है। अगर अकेले दिल्ली में एक साल में 48 लाख से ज्यादा गाडिय़ां कबाड़ घोषित हुई हैं तो देश भर की संख्या से निर्मला जी और गडकरी साहब बहुत खुश होंगे ही। अब जिनके मत्थे 10 साल से पुरानी डीजल और 15 साल से पुरानी पैट्रोल गाडिय़ों को कबाड़ में बेचने की बाध्यता आई होगी, उनका क्या हाल हुआ, वह किसी ने नहीं जाना। काफी सारे लोगों का कामकाज प्रभावित हुआ होगा तो कई बिना वाहन के रह गए होंगे और नित बदहाल और लुटेरी बनती सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के भरोसे जीवन की गाड़ी खींचने लगे होंगे। बताना न होगा कि इस बीच रेलवे ने लोकल की हालत खराब कर दी है, तो अधिकांश शहरों की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था बदहाल हुई है। जहां तक नई नीति की बात है, तो वह आज भी गोलमोल ही है और उसके खिलाफ आए मुकद्दमों की स्थिति भी साफ नहीं। 

नई नीति को गोल-मोल इसलिए कहा गया है कि इसमें वाहनों के फिटनैस टैस्ट और ग्रीन टैक्स लेकर चलने देने की इजाजत की चर्चा थी लेकिन न फिटनैस के मानकों की चर्चा है, न ग्रीन टैक्स की दर की। यह माना गया कि कम्पनियों को ही गाडिय़ों का फिटनैस टैस्ट करना होगा (जिनको गाड़ी के अनफिट होने का सबसे ज्यादा लाभ होगा)। यह सब तो हुआ नहीं, पुलिस ने गाडिय़ां पकड़-पकड़ कर कबाड़ घोषित करा दीं। पर जब निर्मला सीतारमण घोषणा कर रही थीं, तब उन्होंने जो संख्या बताई वह असल संख्या की लगभग 40 फीसदी भी नहीं मानी जाती। जानकार मानते हैं कि देश में इस नीति के दायरे में आने वाले वाहनों की संख्या 4 से साढ़े चार करोड़ के बीच होगी, जिनमें से आधे से कम वाहन ही उम्र की सीमा के अन्दर हैं। जाहिर है काफी सारे वाहन जिला पंजीयन कार्यालय की पहुंच और जानकारी से भी बाहर होंगे और निश्चित रूप से ऐसे अधिकांश वाहन दूर देहात के इलाकों में होंगे। 

कार को कबाड़ मानकर तोडऩा, गलाना और उसकी मुट्ठी भर धातुओं का दोबारा इस्तेमाल करने से बेहतर तो यही है कि किसी तरह उसमें इस्तेमाल हुई चीजों का तब तक अधिकतम इस्तेमाल किया जाए, जब तक वे सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से (अर्थात ज्यादा प्रदूषण फैलाकर) हमारे लिए खतरा न बन जाएं। यह कल्पना भी आसान नहीं कि भारत जैसे गरीब मुल्क में बनी गाडिय़ों में से 2 करोड़ से ज्यादा को हमारी ही सरकार कबाड़ बनाने जा रही है। 

एक तो भारत जैसे देश में इतनी गाडिय़ों के बनने-चलने और सार्वजनिक परिवहन की इस दुर्गति पर भी सवाल उठने चाहिएं। इतनी गाडिय़ों से रोड टैक्स वसूलने के बाद भी टोल टैक्स वसूली वाली सड़कों पर सवाल उठने चाहिएं। लेकिन इनमें से कोई सवाल इतना बड़ा नहीं है कि एक साथ दो-ढाई करोड़ ऐसी गाडिय़ों को कबाड़ घोषित करके गिनती की कम्पनियों को मालामाल करने के फैसले पर सवाल उठाने की बात भुला दी जाए। ये सभी गाडिय़ां (चाहे वे जिस हाल में हैं, जहां हैं) लोगों और अर्थव्यवस्था के काम आ रही थीं।-अरविन्द मोहन 
 


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