जनसंख्या वृद्धि की चुनौतियों को समझना होगा
punjabkesari.in Friday, Apr 21, 2023 - 04:54 AM (IST)

भारत चीन को पीछे छोड़कर दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जब भी जनसंख्या पर बात करने का प्रयास किया जाता है तो यह केवल स्कूल-कालेजों के निबंध का परम्परागत विषय मान लिया जाता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जनसंख्या नियंत्रण पर बात करने के कारण आपको दक्षिणपंथी कहकर इस मसले को हल्का बनाने की कोशिश की जाती है।
कहा यह भी जाता है कि चीन ज्यादा जनसंख्या के बावजूद विकास के मार्ग पर अग्रसर है। इसलिए ज्यादा जनसंख्या कोई समस्या नहीं है। दरअसल चीन का उदाहरण देकर जनसंख्या के मुद्दे को कम आंकना तर्कसंगत नहीं है। हमें यह समझना होगा कि इस मुद्दे पर चीन और भारत की तुलना नहीं हो सकती। भारत जन-सघनता के मामले में चीन से 3 गुणा आगे है। चीन भौगोलिक रूप से बड़ा देश है। आबादी और संसाधनों का बोझ उन्हीं देशों पर ज्यादा पड़ता है जहां आबादी घनत्व सबसे ज्यादा होता है।
हमारे देश में जनसंख्या वृद्धि के लिए काफी हद तक मुसलमानों को दोष दिया जाता है लेकिन इस विषय पर हुए अध्ययन से यह साफ हो गया है कि पिछले कुछ समय से मुसलमानों की जनसंख्या में ठहराव आया है। अध्ययन बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर कम हुई है। इसके साथ ही पूरे देश की जनसंख्या वृद्धि दर में भी कमी देखी गई है। देश के एक बड़े तबके में इस मामले को लेकर जागरूकता आई है और लोग ज्यादा आबादी के मायने भी समझने लगे हैं। हालांकि इस दौर में जो लोग जनसंख्या नियंत्रण कानून की बात कर रहे हैं, उसके राजनीतिक निहितार्थ आसानी से समझे जा सकते हैं।
यह सही है कि हमारे देश में एक राजनीति के तहत जान-बूझकर मुसलमानों को जनसंख्या के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। दूसरी तरफ स्वयं को ज्यादा प्रगतिशील समझने वाले विद्वान आबादी पर बात करना ही नहीं चाहते हैं। ऐसे विद्वान समझते हैं कि आबादी पर बात करने का अर्थ ही मुसलमानों को आबादी के लिए जिम्मेदार ठहराना है। इसलिए ऐसे विद्धान प्रगतिशीलता के चक्कर में यह घोषणा कर देते हैं कि जनसंख्या कोई समस्या ही नहीं है। दुखद यह है कि सरकारी नीतियों के चलते हम अभी तक आबादी को संसाधन के रूप में परिवर्तित नहीं कर पाए हैं। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में हमें आबादी बोझ ही दिखाई देगी। हमारे देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा युवा आबादी का है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है आज हमारे देश में बेरोजगारी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ग्रामीण इलाकों में भी रोजगार का संकट बढ़ा है।
अगर सरकार चाहे तो बेरोजगारी दूर कर बड़ी आबादी को संसाधन के रूप में परिवर्तित कर सकती है लेकिन सरकार अपनी असफलता छिपाने के लिए जरूरी मुद्दों को टालकर अन्य गैर-जरूरी मुद्दों को जान-बूझकर खड़ा कर देती है। हालांकि जनसंख्या पर हो रहे अध्ययन बताते हैं कि कुछ छोटे और समृद्ध देशों को छोड़ दिया जाए तो कमोबेश सभी देशों की आबादी बढ़ रही है। यह अलग बात है कि किसी देश की आबादी ज्यादा बढ़ रही है तो किसी की कम।
सवाल यह है कि भारत के संदर्भ में डैमोग्राफिक डिविडैंड के लिहाज से इस स्थिति को कैसे देखा जाए। जिसे इस सदी की शुरूआत से ही भारत की सबसे बड़ी शक्ति माना जा रहा है और इसके बल पर पूरी दुनिया को पीछे छोड़ देने की उम्मीद बांधी जा रही है। शासन की ओर से जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने की सघन कोशिशें देश में आपातकाल के दौरान ही हुई थीं। उसके राजनीतिक परिणाम देखकर बाद की सरकारों ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की।
हालांकि जनसंख्या वृद्धि को वे भी एक समस्या ही मानती रहीं। 21वीं सदी आने के साथ धीरे-धीरे आबादी में युवाओं की बढ़ती संख्या के आधार पर इसे एक अच्छी चीज के रूप में देखने का चलन बढ़ा। मगर कोरोना के दौर ने इस नजरिए में फिर से बदलाव की जरूरत बताई है। दरअसल कोरोना काल ने हमें यह बता दिया है कि अधिक जनसंख्या कई तरह से हमारे लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।
दरअसल सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों में विषाणुजनित रोग फैलने का खतरा ज्यादा होता है। कोरोना के समय संक्रमण रोकने के लिए भीड़-भाड़ वाले स्थानों पर न जाने और एक-दूसरे से दूरी बनाए रखने की सलाह दी जा रही थी। जाहिर है सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों में ऐसे उपाय अपनाना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में यह राहत की बात लगती है कि देश के नीति.निर्माताओं ने 3-4 दशक पहले ही जनसंख्या विस्फोट से उत्पन्न खतरों को भांप लिया था। इसका फायदा यह हुआ कि इस दिशा में कुछ न कुछ प्रयास होते रहे।
जबरन नसबंदी जैसे उपाय भले न दोहराए गए हों, लेकिन जनजागरण की मुहिम आधे-अधूरे ढंग से चलती रही। आज भी सरकार करोड़ों रुपये इससे जुड़े विज्ञापनों और परिचर्चाओं पर खर्च कर रही है। हालांकि इसके ठोस फायदे नहीं दिख रहे हैं। परिवार नियोजन नीतियों का भी ठीक ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि डैमोग्राफिक डिविडैंड की बातें अपनी जगह सही हैं लेकिन आज के दौर में पर्यावरण प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसी बड़ी समस्याओं की जड़ में भी लोगों की बेतहाशा बढ़ती संख्या ही है।
जाहिर है ‘डैमोग्राफिक डिविडैंड की आड़’ लेकर हम जनसंख्या वृद्धि से आंखें नहीं मूंद सकते। शिक्षा और आर्थिक विकास की सीमित पहुंच के चलते समाज के बड़े हिस्से में बच्चों को कमाई का जरिया माना जाता रहा है, जबकि डैमोग्राफिक डिविडैंड की अवधारणा उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित कार्यशक्ति मानने पर आधारित है। आज जनसंख्या नियंत्रण से संबधित कोई भी योजना लागू करते समय व्यावहारिक पहलुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए।-रोहित कौशिक