शिक्षा को नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों से ओतप्रोत बनाने की चुनौती

punjabkesari.in Thursday, Sep 23, 2021 - 04:29 AM (IST)

कुछ दिन पहले मुझे पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड के उपाध्यक्ष के तौर पर हिमाचल स्कूल शिक्षा बोर्ड धर्मशाला द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 पर आयोजित एक उच्च स्तरीय कार्यशाला में शामिल होने का मौका मिला। हिमाचल स्कूल बोर्ड शिक्षा के क्षेत्र में पंजाब की तरह प्रोग्रैसिव काम कर रहा है। इस मंच पर मुझे हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार द्वारा शिक्षा और भारतीय संस्कृति की बढ़ती दूरी पर चिंता दिल को छू गई। उनकी बात महत्वपूर्ण लगी कि अब सामाजिक विसंगतियों पर नकेल डालने का एकमात्र तरीका चारित्रिक मूल्यों को विकसित करने वाली शिक्षा है। 

मेरा अल्प ज्ञान कहता है कि शिक्षा एक आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके द्वारा लोग कार्य और विचार की नई पद्धतियां सीखते रहते हैं। उससे व्यवहार में ऐसे बदलाव लाने को बढ़ावा मिलता है, जिनसे मनुष्य की स्थिति में सुधार आए। छात्रों में सामाजिक भाव की संस्कृति पनपने में शिक्षा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिससे उनमें एक जिम्मेदारी और नागरिकता की भावना आकार लेती है। इससे उनके आत्मविश्वास और विकास में वृद्धि होती है। 

संस्कृति शिक्षा का अभिन्न भाग है। भाषा समाजीकरण और शिक्षा में अहम भूमिका अदा करती है। छात्रों का अपने देश की स्थानीय भाषाओं से परिचित होना जरूरी है। हम शिक्षा में चारित्रिक मूल्यों की निरंतरता के लिए समाज के बुजुर्गों की मदद ले सकते हैं क्योंकि वे शिक्षा के संस्कृतिकरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनके पास अक्सर  ऐसी कहानियां और कौशल होते हैं, जिनके बारे में आज की पीढ़ी अनजान होती है। मानव व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के रूप में संस्कृति में विचार व व्यवहार दोनों के ही तरीके सम्मिलित होते हैं, जिनके प्रति व्यक्ति के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्ष जागरूक होते हैं और यह जागरूकता व्यक्ति को एक सुलझा हुआ व्यक्तित्व प्रदान करती है, जो सम्पूर्ण एवं संगठित रूप में उभरकर हमारे समक्ष प्रकट होता है। 

छात्र समाज का एक अंग होता है तथा वह जब विद्यालय में प्रवेश करता है तो अध्यापक व विद्यालय उसे समाज की संस्कृति के अनुकूल ढालने का प्रयास करते हैं। सांस्कृतिक मूल्यों का अनुशासन पर भी प्रभाव पड़ता है। जिस समाज में अधिनायक तत्व होगा, वहां दमनात्मक अनुशासन होगा और जहां प्रजातंत्र होगा, वहां स्वतंत्र अनुशासन होगा। सांस्कृतिक मूल्य मनुष्य का सामाजिक वातावरण से समायोजन करते हैं। प्रत्येक समाज की आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियां भिन्न-भिन्न होती हैं एवं हर व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि अपने समाज की विभिन्न परिस्थितियों के साथ स्वयं का अनुकूलन कर सके। सांस्कृतिक मूल्यों का शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रभाव हमेशा रहा है। प्रत्येक समाज में शिक्षा के कुछ उद्देश्य शाश्वत होते हैं एवं कुछ सामाजिक। ये दोनों ही उद्देश्य संस्कृति के आदर्शों, मूल्यों व प्रारूपों से प्रभावित होते हैं, उदाहरणार्थ, भारतीय संस्कृति के कुछ शाश्वत मूल्य हैं, जैसे- आध्यात्म, मानव सेवा, परोपकार आदि। 

शिक्षा में इन्हें ऊंचा स्थान दिया जाना चाहिए 
सांस्कृतिक मूल्यों का शिक्षा पद्धतियों पर भी प्रभाव होता है। प्राचीन संस्कृति में गुरु को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। शिक्षक समाज का एक सदस्य होता है व उसमें ही सांस्कृतिक मूल्य विकसित होते हैं, जो उसके आचरण व विचारों में झलकते हैं। समाज उन्हीं अध्यापकों को अच्छा समझता है, जो सांस्कृतिक विरासत व मूल्यों का सम्मान करते हैं क्योंकि ऐसा ही शिक्षक बच्चे को सही दिशा दिखा सकता है।विद्यालय की सभी गतिविधियां एवं कार्यक्रम सांस्कृतिक आदर्शों व परम्पराओं पर आधारित होते हैं। इसी कारण विद्यालय संस्कृति को विकसित करने व सुधारने में सहायक होता है। विभिन्न सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित विद्यालय उसी संस्कृति का प्रसार व प्रचार करते हैं, जिस पर वह आधारित होते हैं। 

यदि समाज शिक्षा के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित करता है तो उसी प्रकार शिक्षा भी समाज के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित करती है, चाहे वह आॢथक हो, राजनीतिक या सांस्कृतिक। शिक्षा परिवर्तन का साधन है। समाज प्राचीनकाल से आज तक निरन्तर विकसित एवं परिवर्तित होता चला आ रहा है क्योंकि जैसे-जैसे शिक्षा का प्रचार-प्रसार होता गया इसने समाज में व्यक्तियों की परिस्थिति, दृष्टिकोण, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाजों पर असर डाला और इससे सम्पूर्ण समाज का स्वरूप बदला। शिक्षा व्यक्तियों को इस योग्य बनाती है कि वे समाज में व्याप्त समस्याओं, कुरीतियों, गलत परम्पराओं के प्रति सचेत होकर उसकी आलोचना करते हैं और धीरे-धीरे समाज में बदलाव आता जाता है। शिक्षा समाज के प्रति लोगों को जागरूक बनाते हुए उसमें प्रगति का आधार बनाती है। शिक्षा पूर्व में वर्ग विशेष का अधिकार थी, जो कालांतर में समाज के सभी वर्गों के लिए अनिवार्य बनी, जिससे स्वतंत्रता के पश्चात् सामाजिक प्रगति एवं सुधार स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। 

शिक्षा समाज की संस्कृति एवं सभ्यता के हस्तांतरण का आधार बनती है। महात्मा गांधी ने शिक्षा के इस कार्य की आवश्यकता एवं प्रशंसा करते हुए लिखा है, ‘‘संस्कृति ही मानव जीवन की आधारशिला और मुख्य वस्तु है। यह आपके आचरण और व्यक्तिगत व्यवहार की छोटी से छोटी बात में व्यक्त होनी चाहिए।’’ राष्ट्रपिता की इस बात और स्वामी विवेकानंद जैसे अनेक ऋषियों के शिक्षा को नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों से ओतप्रोत बनाने की बड़ी चुनौती को हकीकत में बदलने के लिए निरंतर प्रयासों की जरूरत है।-डा. वरिन्द्र भाटिया
 


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