‘आजादी का जश्न’ किस खुशी में मनाएं

Sunday, Aug 13, 2017 - 12:55 AM (IST)

लिखित संविधान, शासन की संसदीय पद्धति, स्वतंत्रता तथा कानून के राज के अनेक उद्देश्य एवं लक्ष्य हैं जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण यह है कि ये देशवासियों की आॢथक और सामाजिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करेंगे। 

जरा कल्पना कीजिए कि 1947 में देश की गवर्नैंस की जिम्मेदारी संभालना किस तरह कांटों का ताज पहनने के तुल्य था क्योंकि तब देश की 83 प्रतिशत आबादी अनपढ़ थी, जीवन प्रत्याशा मात्र 32 वर्ष थी, प्रति व्यक्ति आय आज की कीमतों के हिसाब से मात्र 247 रुपए तथा बिजली की प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत भी केवल 16.3 यूनिट थी। आम आदमी तो ऐसी स्थिति में केवल यही निष्कर्ष निकाल सकता था कि भारत का शासन किया ही नहीं जा सकता। अन्य किसी भी देश के राष्ट्रपिता ने ऐसी स्थिति में निरंकुश सत्ता हासिल कर ली होती और अपनी मनमर्जी के अनुसार बेहतरीन या नि:कृष्टतम ढंग से शासन चलाया होता। 

लेकिन महात्मा गांधी ने ऐसा नहीं किया। सरकार में कोई पद लेने की उन्हें कोई अभिलाषा ही नहीं थी। इसलिए उन्होंने अपने ही ढंग से जनता की सेवा करने को प्राथमिकता दी। जवाहर लाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल तथा अन्य नेताओं ने भी इस विशाल और विस्फोटक स्थितियों से भरे देश की गवर्नैंस की भारी-भरकम जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाने की दिलेरी दिखाई। 

सफलता के मील पत्थर
15 अगस्त, 1947 से लेकर अब तक भारत ने बहुत लंबा सफर तय किया है। केवल अक्ल के अंधे लोग ही यह दलील देंगे कि गत 70 वर्षों दौरान तिनका तक तोड़कर दोहरा नहीं किया गया। वे यह मानने से इन्कारी हैं कि: 

*जन्म के समय जीवन प्रत्याशा अब 68.34 साल हो चुकी है; *(वर्तमान कीमतों के अनुसार) प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 1,03,219 रुपए तक पहुंच चुकी है; *साक्षरता 73 प्रतिशत हो गई है; *गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले लोगों का अनुपात 22 प्रतिशत से भी नीचे सरक गया है; *खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल कर ली गई है और अब भुखमरी (अकाल) की स्थिति पैदा नहीं होती; *प्लेग, काला अजार, चेचक और पोलियो पर जीत हासिल कर ली गई है; *सीमित संसाधनों के बावजूद साइंस एवं टैक्नोलॉजी (खास तौर पर अंतरिक्ष तथा नाभिकीय ऊर्जा) के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई है। 

विकास की इस कथा में भारत की प्रत्येक उल्लेखनीय राजनीतिक पार्टी ने कुछ न कुछ भूमिका अदा की है। कांग्रेस लगभग 55 वर्षों तक केन्द्रीय सरकार का नेतृत्व करती रही है। गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने केवल 15 वर्ष शासन किया जिसमें से 9 वर्ष कालावधि के लिए केन्द्र सरकार की कमान भाजपा के हाथों में रही और वाजपेयी तथा मोदी ने इन सरकारों का नेतृत्व किया। भारत की गवर्नैंस केवल केन्द्र सरकार द्वारा ही नहीं की जाती। राज्य सरकारों की भी बराबर की जिम्मेदारी है। लोगों के जीवन से सीधे रूप में जुड़ी हुई बातें तो राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में ही आती हैं (देखें संविधान की 7वीं सूची, सारिणी-2)। चूंकि राज्य सरकार पर गवर्नैंस का स्तर एक जैसा नहीं है इसलिए विभिन्न राज्यों के विकास में भी भयावह हद तक विषमता पाई जाती है। जरा इस बात पर गौर करें कि 31 मार्च, 2017 को जब दिल्ली में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 2,49,004 रुपए थी और गोवा की 2,42,745 रुपए थी, वहीं बिहार में यह आंकड़ा केवल 31,380 रुपए था।

भारत के सबसे गरीब राज्यों का शासन किसके हाथों में रहा है? यू.पी. में कांग्रेस 1989 से सत्ता में नहीं आई; ओडिशा में 2000 के बाद कांग्रेस की सरकार नहीं बनी; पश्चिम बंगाल में 1977 के बाद कांग्रेस को सत्ता सुख हासिल नहीं हुआ; बिहार में भी 1990 से कांग्रेस सत्ता से बाहर है (हालांकि जुलाई 2017 तक एक छोटे गठबंधन सहयोगी के रूप में यह सरकार में शामिल रही है)। इसलिए हाल ही के दशकों के दौरान इन राज्यों की घटिया गवर्नैंस के लिए कांग्रेस को मुश्किल से ही कोई दोष दिया जा सकता है। दूसरी ओर भाजपा 1997 से 2002 तक यू.पी. में सत्तासीन रही और अब इस वर्ष फिर सत्ता में आई है; ओडिशा में 2002 से 2009 तक यह सत्ता में भागीदार रही और बिहार में 2005 से 2014 तक गठबंधन का अंग रही। अब फिर बिहार में यह सत्ता में भागीदार बन गई है। 

5 सूचकांक
समय आ गया है कि अब देश की अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य की पूरी तरह से जांच-पड़ताल की जाए क्योंकि स्वतंत्र भारत अपने अस्तित्व के 70 वर्ष पूरे कर रहा है: 

* रोजगार परिदृश्य: इस बात के बहुत प्रमाण हैं कि हमारे देश में बेरोजगारों की संख्या बढ़ती जा रही है। सैंटर फॉर मॉनीटरिंग ऑफ इंडियन इकॉनोमी
(सी.एम.आई.ई.) के अनुसार जनवरी से अप्रैल 2017 के दौरान अर्थव्यवस्था के औपचारिक क्षेत्र में 15 लाख लोगों के रोजगार छिन गए थे। 
* जी.डी.पी. वृद्धि दर : 2015-16 की चौथी तिमाही से लेकर सकल मूल्य संवद्र्धन की वृद्धि दर में लगातार गिरावट आ रही है और इसी के अनुसार जी.डी.पी. की वृद्धि दर भी नीचे सरक रही है। 

* निवेश : 2015-16 की चौथी तिमाही से लेकर 2016-17 की चौथी तिमाही की 12 माह की अवधि में स्थिर मूल्यों पर सकल अचल पूंजी निर्माण 30.8 प्रतिशत से घटकर 28.5 प्रतिशत पर आ गया। 2013-14 में यह 32.6 प्रतिशत था और 2011-12 में इसने 34.31 प्रतिशत का उच्च स्तर छुआ था। 
* ऋण वृद्धि: 2016-17 का अंत  ऋण वृद्धि दर के 8.16 आंकड़े के साथ हुआ था जोकि गत 10 वर्षों दौरान औसत वाॢषक वृद्धि दर के आधे से भी कम है। 
* औद्योगिक उत्पादन: गत 3 वर्षों दौरान औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक बहुत सुस्त रफ्तार से चलते हुए मई 2014 के 111 से बढ़कर जून 2017 में केवल 119.6 तक ही जा पाया है। 

किस खुशी में जश्न मनाएं?
ये 5 सूचकांक प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री की आंखों के सामने हर समय रहने चाहिएं लेकिन स्पष्टत: स्थिति ऐसी नहीं है। दोनों महानुभाव सिवाय अर्थव्यवस्था के दुनिया के हर विषय पर बातें करते हैं। प्रधानमंत्री में तो भयावह आर्थिक स्थिति से ध्यान भटकाकर राजनीतिक मुद्दों की ओर ले जाने की असाधारण प्रतिभा है। वित्त मंत्री भी ऐसे आंकड़ों की छुर्लियां छोड़ते रहते हैं जो जाने-माने अर्थशास्त्रियों की नजर में कोई खास विश्वसनीयता नहीं रखते। सरकार में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं जो रोज नहीं तो कभी-कभार सत्ता के मुंह पर सच्चाई बोलने की हिम्मत कर सके। 

फिर भी सरकार ‘70 वर्ष का भारत’ के जश्न मनाने में पेश-पेश है। इन जश्नों में सरकार के साथ कौन शामिल होगा? वे लोग तो कदापि नहीं शामिल होंगे जो सबसे निचले स्तर पर जीने वाले 22 प्रतिशत में शामिल हैं और न ही किसान तथा वस्तुओं के विनिर्माता या उनके श्रमिक; न ही ऋणदाता और न संभावी कर्जदार; न युवा बेरोजगार और न ही वे लोग जिन्हें शिक्षा व उच्च शिक्षा के लिए ऋणों से इन्कार किया गया है; महिलाएं और दलित भी इन जश्नों में शामिल नहीं होंगे और न ही अल्पसंख्यकों के शामिल होने का सवाल पैदा होता है। अब की बार आजादी का जश्न बिना किसी खुशी के ही मनाया जाएगा।

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