सी.बी.आई. बनाम सी.बी.आई. : आशा है सुप्रीम कोर्ट मामले की जड़ तक जाएगी

Friday, Nov 23, 2018 - 04:30 AM (IST)

सी.बी.आई. के उपमहानिरीक्षक (डी.आई.जी.) एम.के. सिन्हा की बात सुप्रीम कोर्ट के सामने रखते हुए उनके वकील ने कहा कि वह जो सामने रखने वाले हैं वह चौंकाने वाला है। ऐसा कहा जाता है कि चीफ जस्टिस ने कहा कि अब अदालत को कुछ भी चौंका नहीं सकता। 

ऐसा अदालत के लिए हो सकता है लेकिन मेरे जैसे लाखों सामान्य नागरिकों के लिए ये खुलासे अत्यंत चौंकाने वाले हैं। इस सर्वाधिक कटु कथानक में प्रश्र केवल एक संगठन के तौर पर सी.बी.आई. के अस्तित्व का नहीं है। बल्कि खुद कानून के शासन के अस्तित्व का है, जो संविधान के मूल ढांचे का एक हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई 29 नवम्बर के लिए स्थगित कर दी है। इस बीच यह जानना उचित होगा कि इस मामले के परिणाम पर क्या और कितना दाव पर लगा है। 

राजनीतिक दखलंदाजी की ओर से आंखें मूंदी
यह अवश्य कहा जाना चाहिए कि इस मामले में जिस तरह की और जितनी राजनीतिक दखलंदाजी दिखाई दे रही है, ऐसा पहली बार नहीं हो रहा। एक समाज के नाते हमने जानबूझ कर इसे दबा दिया है और इसकी ओर से आंखें मूंद ली हैं। यहां तक कि जनहित याचिका (पी.आई.एल.) के माध्यम से उच्च न्यायपालिका का ध्यान इस ओर दिलाने के प्रयास भी सफल नहीं हुए हैं। मुझे खुशी है कि आखिर इस हाई-प्रोफाइल केस के साथ देश का ध्यान खींचा गया है। मुझे आशा है कि सुप्रीम कोर्ट मामलों की जड़ तक जाएगी और खुद को महज सी.बी.आई. की आंतरिक लड़ाई सुलझाने तक ही सीमित नहीं रखेगी। 

जिस तरह से उच्च नौकरशाह, जिन्हें संविधान द्वारा प्रशासन चलाने की शक्तियां प्राप्त हैं, जो भी पार्टी सत्ता में हो उसकी गुलामी करते हैं, इसकी करीबी समीक्षा करने की जरूरत है। दूरदर्शी सरदार वल्लभ भाई पटेल की ओर से संविधान के अंतर्गत इन्हें प्रदान की गई सुरक्षा पूरी तरह से खत्म हो गई है। सी.बी.आई. में जो कुछ हुआ है वह हिमशैल के महज सिरे के समान है। पहले प्रशासनिक सुधार आयोग ने प्रस्ताव दिया था कि सी.बी.आई. को गृह मंत्रालय से प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डी.ओ.पी.टी.) में स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिए। मैं कभी भी इसके पीछे के तर्क को समझ नहीं सकी लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, जो सभी शक्तियों का केन्द्रीयकरण अपने कार्यालय में करना चाहती थीं, उन्होंने इसका पूरा फायदा उठाया तथा सी.बी.आई. को डी.ओ.पी.टी. में स्थानांतरित कर दिया। 

बाहरी गुप्तचर सेवा को भी इंटैलीजैंस ब्यूरो (आई.बी.), जो गृह मंत्रालय के अधीन है, से निकाल कर कैबिनेट सचिवालय में शिफ्ट कर दिया गया जो सीधे तौर पर प्रधानमंत्री के अधीन है। इन दोनों संगठनों पर प्रधानमंत्री कार्यालय का राजनीतिक नियंत्रण वर्षों के दौरान प्रतिकूल आलोचना का कारण बनता रहा है। इसलिए इस बात की समीक्षा करने की जरूरत है कि क्या इन संगठनों को वापस गृह मंत्रालय में स्थानांतरित कर देना चाहिए, जिससे ये वैध रूप से संबद्ध हैं। 

चयन प्रक्रिया
सी.बी.आई. के निदेशक का चुनाव अब एक उच्च स्तरीय समिति करती है जिसमें प्रधानमंत्री, भारत के चीफ जस्टिस (सी.जे.आई.) तथा विपक्ष के नेता शामिल होते हैं। शुरू से ही मेरा यह तर्क है कि चयन प्रक्रिया में सी.जे.आई. को शामिल करना गलत है। ऐसे चयन पूरी तरह से अधिकारियों के गोपनीय रिकाडर््स के आधार पर किए जाते हैं, जिस कारण जरूरी नहीं कि सर्वाधिक पात्र अधिकारियों का चयन हो, चाहे केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के पद के लिए हो, मुख्य चुनाव आयुक्त अथवा सी.बी.आई. निदेशक के पद हेतु। 

यह प्रक्रिया न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन के नियम को कमजोर करती है। जैसा कि हाल के वर्षों में देखा गया है, इस समिति द्वारा किए गए चयनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। जहां तक विपक्ष के नेता की बात है, जहां उसे उपरोक्त पदों के लिए उम्मीदवार चुनने हेतु समिति में होना चाहिए, वहीं उसे अन्य प्रशासनिक निर्णयों में शामिल नहीं किया जाना चाहिए जैसे कि किसी अधिकारी को छुट्टी पर भेजना। मामले की पृष्ठभूमि को देखते हुए इस बात की सम्भावना नहीं है कि सी.वी.सी. की जांच को पक्षपात रहित माना जाएगा। इसीलिए मेरा तर्क था कि जांच की निगरानी सुप्रीम कोर्ट द्वारा की जानी चाहिए। भाग्य से सरकार के विरोध के बावजूद शीर्ष अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त जज को जांच के साथ जुडऩे को कहा है। एक समाचार रिपोर्ट के अनुसार एक जज ने अपनी अलग जांच रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी है। यदि यह सच है तो यह एक स्वागतयोग्य घटनाक्रम है। 

यह चिंता का विषय है कि व्यावहारिक तौर पर सरकार से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति, जिनमें संवैधानिक तथा वैधानिक पदों पर बैठे लोग भी शामिल हैं, को संदेह से देखा जा रहा है। सरकार की विश्वसनीयता इतनी नीचे पहुंच गई है जैसे कि इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान थी, विशेषकर 1975-77 में आपातकाल के दौरान। यह देश के सामने एक बड़ी चुनौती है। ऐसा आरोप लगाया जाता है कि सरकार में शामिल बहुत से लोग जैसे कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, ने इस मामले में दखल दिया है। 

एक अन्य चिंताजनक तथ्य यह है कि राज्य सरकारें अपने राज्यों में सी.बी.आई. को कार्य करने के लिए दी गई स्वीकृतियां वापस ले रही हैं। यह भी नया नहीं है, सम्भवत: ऐसा 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर किया गया है। अभी तक के अनुभव एक स्वतंत्र तथा अभियोग चलाने में सक्षम एजैंसी के महत्व को उजागर करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण, सी.बी.आई. को लोकपाल के नियंत्रण में लाया जाए, जब भी उसकी नियुक्ति हो। मुझे आशा है कि सरकार इन सभी मुद्दों पर स्पष्ट तथा समयबद्ध निर्देश जारी करने पर विचार करेगी।-सीमा मुस्तफा

Pardeep

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