सी.बी.आई. की ‘सीमा और ताकत’ का सवाल

Friday, Nov 27, 2020 - 04:27 AM (IST)

भारत को अभी बहुत बदलना है। केंद्र राज्य सरकारों के अधिकार, संसद, अदालत, मीडिया के रिश्ते और टकराव की स्थितियों से आए दिन नए विवाद और संकट पैदा हो रहे हैं। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल से लेकर पंजाब या तेलंगाना-आंध्र की सरकारें सी.बी.आई. की जांच कार्रवाई पर भी आपत्ति कर रही हैं और सर्वोच्च अदालत ने भी संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर कुछ सीमाएं रेखांकित कर दी हैं। इसलिए पहले थोड़ी पृष्ठभूमि का उल्लेख आवश्यक लगता है। 

सी.बी.आई. के संस्थापक और पहले निदेशक देवेंद्र सेन का एक इंटरव्यू मैंने सितम्बर 1974 में किया था और संगठन के कामकाज, समस्याओं पर विस्तार से लेख के साथ उस समय की प्रमुख साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग की आमुख कथा की तरह छपा था। अब 45 साल बाद भी ऐसा लगता है कि संस्थान का काम बढ़ता चला गया और समस्याएं-चुनौतियां कम होने के बजाय बढ़ गई हैं। 

तब निदेशक देवेंद्र सेन ने मुझसे कहा था,अनुभव यह हुआ है कि पहले तो कोई गंभीर मामला सी.बी.आई. को सौंपने की मांग की जाती है। लेकिन मांग करने वालों की अपेक्षा के अनुसार जांच का निष्कर्ष सामने न आने पर वे इस पर अविश्वास करने लगते हैं। अब बताइए हम मांग करने वालों की इच्छानुसार रिपोर्ट देने लगे तो सी.बी.आई. पर कौन विश्वास करेगा। ऐसे मामले तक आते हैं कि 8 साल पहले इतने पेड़ लगाने का दावा था, अब जांच करिए कि लगे या नहीं? यह कैसे पता लगेगा? दूसरी तरफ काम का आधार अमरीका के एफ.बी.आई. के अनुसार कहा जाता है, लेकिन उसकी तरह न तो बजट है, न ही स्टाफ और सबसे बड़ी समस्या है सीमित अधिकार। 

श्री सेन के बाद भी मुझे सी.बी.आई. के कई निदेशकों से मिलने के अवसर मिले और निश्चित रूप से संगठन ने राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जांच गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इंटरपोल में भारत की सेवाओं का उपयोग हो रहा है, लेकिन अपने देश की कुछ राज्य सरकारें, राजनीतिक दल, नेता, पुलिस तक सी.बी.आई. के साथ कभी इज्जत, कभी बेइज्जती का व्यवहार करती है और उसके प्रवेश तक पर रोक लगा रही है। 

यह हाल तब है जबकि सी.बी.आई. में राज्य सरकारों, अन्य सशस्त्र बलों से अधिकाधिक संख्या में प्रति नियुक्ति पर अधिकारी रखे जाते हैं। भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों को निदेशक बनने के अवसर मिलते हैं। देश की सर्वोच्च जांच एजैंसी होने के बावजूद राजनीतिक हस्तक्षेप, विवादों और लम्बी जांच प्रक्रिया और सबूत जुटाने के बाद भी अदालतों से 20 साल तक फैसला न होने से दोषियों को सजा नहीं मिल पाने के कारण यह संस्था समस्याओं के चक्रव्यूह में फंसी रहती है। 

असल में सी.बी.आई. के गठन के समय कल्पना ही नहीं की गई होगी कि इसका उपयोग अमरीकी जांच एजैंसी एफ.बी.आई. की तरह व्यापक जिम्मेदारियां निभाना होगा। ईमानदारी के आदर्श प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की सरकार ने अंग्रेजों द्वारा गठित विशेष पुलिस बल को केवल एक अधिसूचना से नया नाम देकर दिल्ली विशेष संगठन अधिनियम के अंतर्गत जांच करने के अधिकार दे दिए। इस कारण एफ.बी.आई. की तरह न तो देश भर में अपराधों की स्वतंत्र जांच के अधिकार मिले और न ही संसाधन। 

राज्य सरकारों और उनकी पुलिस व्यवस्था पर निर्भरता बनी रही। संगठन के चार्टर के अनुसार पहला काम सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार की जांच और प्रमाण जुटाकर अदालत में अभियोग चलाने का रखा गया इसलिए 1980 तक तो वाॢषक रिपोर्ट में अधिकांश प्रकरण कुछ हजार रुपयों के भ्रष्टाचार के मिलते थे। दो-चार बड़े करोड़ों के घोटाले होते थे। अब तो अधिकांश मामले हजारों करोड़ के होते हैं। दूसरी तरफ एक अधिकारी को साल में औसतन दो-तीन मामलों की जांच की जिम्मेदारी होती है और राज्यों की पुलिस की तरह सहयोगी कर्मचारी भी नहीं मिलते। 

वर्तमान स्थिति पर गत सितम्बर में ही कार्मिक मंत्री जितेन्द्र सिंह ने संसद में स्वीकार किया था कि सी.बी.आई. के पास 5944 स्वीकृत पद हैं और 1229 खाली पड़े हैं। सरकार ने राज्यों और केंद्रीय पुलिस बलों से नाम मांगें हैं जिन्हें लोक सेवा आयोग की स्वीकृति के बाद रखा जा सकता है। दूसरी तरफ शास्त्री काल की तरह अधिकांश राज्यों में एक ही पार्टी की सरकारें नहीं हैं। नतीजा यह है कि 8 गैर-भाजपा शासित सरकारों ने सी.बी.आई. को अपने क्षेत्र में आने पर दस तरह के अंकुश लगा दिए हैं, क्योंकि उनके ही मंत्री या परिवार, अधिकारी पर आॢथक अपराधों में फंसे होने के मामले दर्ज हो रहे हैं। 

अदालत में इस समय करीब 182 ऐसे मामले 20 साल से लटके हुए हैं। करीब 1597 मामले 10 साल से लंबित हैं। अब हम पत्रकार भी और जनता भी सवाल करती है कि सी.बी.आई. ने सजा क्यों नहीं दिलाई? यह भी तथ्य है कि भ्रष्टाचार रोकने वाली संस्था के कुछ निदेशक सहित बड़े अधिकारी स्वयं गड़बड़ी और भ्रष्टाचार के आरोप में भी फंस गए। इसलिए जरूरत है, सरकार सी.बी.आई. के कायाकल्प के लिए घिसे-पिटे नियम, कानून बदलकर संसद में नए प्रस्ताव पारित कर एफ.बी.आई. की तरह इसे अधिकार, संसाधन सम्पन्न संस्था के रूप में स्थापित करे। समय के साथ जब संविधान में पचासों संशोधन हो सकते हैं तो विश्व की आर्थिक दौड़ में शामिल भारत के आर्थिक अपराधों पर नियंत्रण तथा विदेशों में भी अपना तंत्र मजबूत करने के लिए नए नियम कानून बनाए जाएं।-आलोक मेहता
 

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