सी.बी.आई. जैसी संस्थाओं को पारदर्शी होना पड़ेगा

Monday, Oct 29, 2018 - 04:59 AM (IST)

पिछले एक हफ्ते से सभी टी.वी. चैनलों, अखबारों, सर्वोच्च अदालत और चर्चाओं में सी.बी.आई. के निदेशक और विशेष निदेशक के बीच चल रहे घमासान की चर्चा है। लोग इसकी वजह जानने को बेचैन हैं। सरकार ने आधी रात को सी.बी.आई. भवन को सीलबंद कर इन दोनों को छुट्टी पर भेज दिया। 

तब से हल्ला मच रहा है कि सरकार को सी.बी.आई. निदेशक आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजने का कोई हक नहीं है क्योंकि 1997 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ में सी.बी.आई. निदेशक और प्रवर्तन निदेशालय निदेशक के कार्यकाल को 2 वर्ष की सीमा में निर्धारित कर दिया गया था, चाहे उनकी सेवा निवृत्ति की तारीख निकल चुकी हो। ऐसा करने के पीछे मंशा यह थी कि महत्वपूर्ण मामलों में सरकार दखलअंदाजी करके अचानक किसी निदेशक का तबादला न करदे। पर इस बार मामला भिन्न है। यह दोनों सर्वोच्च अधिकारी आपस में लड़ रहे थे। दोनों एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे थे और दोनों पर अपने-अपने आकाओं के इशारों पर काम करने का आरोप लग रहा था। स्थिति इतनी भयावह हो गई थी कि अगर सख्त कदम न उठाए जाते तो सी.बी.आई. की और भी दुर्गति हो जाती। हालांकि इसके लिए सरकार का ढीलापन भी कम जिम्मेदार नहीं। 

एक अंग्रेजी टी.वी. चैनल पर बोलते हुए सरकारी फैसले से कई दिन पहले मैंने ही यह सुझाव दिया था कि इन दोनों को फौरन छुट्टी पर भेजकर, इनके खिलाफ जांच करवानी चाहिए। तब उसी चैनल में प्रशांत भूषण मेरी बात से सहमत नहीं थे इसलिए जब यह फैसला आया, तो प्रशांत भूषण और आलोक वर्मा दोनों ने इसे चुनौती देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली। भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश और उनके सहयोगी जजों ने जो फैसला दिया, वह सर्वोत्तम है। दोनों के खिलाफ 2 हफ्तों में जांच होगी और नागेश्वर राव, जिन्हें सरकार ने अंतरिम निदेशक नियुक्त किया है, वह कोई नीतिगत निर्णय नहीं लेंगे। अब अगली सुनवाई 12 नवम्बर को होगी। दरअसल 1993 में जब ‘जैन हवाला कांड’ की जांच की मांग को लेकर मैं सर्वोच्च न्यायालय गया था, तो मेरी शिकायत थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा के इस आतंकवाद से जुड़े घोटाले को राजनीतिक दबाव में सी.बी.आई. 1991 से दबाए बैठी है पर 1997 में जब हवाला केस प्रगति कर रहा था, तब प्रशांत भूषण और इनके साथियों ने, अपने चहेते कुछ नेताओं को बचाने के लिए, अदालत को गुमराह कर दिया। मूल केस की जांच तो ठंडी कर दी गई और सी.बी.आई. को स्वायत्तता सौंप दी गई और सी.वी.सी. का विस्तार कर दिया, इस उम्मीद में कि इस व्यवस्था से सरकार का हस्तक्षेप खत्म हो जाएगा। 

आज उस निर्णय को आए इक्कीस बरस हो गए। क्या हम दावे से कह सकते हैं कि केन्द्र में सत्तारूढ़ दल अपने राजनीतिक लाभ के लिए सी.बी.आई. का दुरुपयोग नहीं करते? क्या सी.बी.आई. के कई निदेशकों पर भारी भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे? क्या सी.बी.आई. में ‘विनीत नारायण फैसले’ या ‘सी.वी.सी. अधिनियम’ की अवहेलना करके पिछले दरवाजे से बड़े पदों वाले अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की? अगर इन प्रश्नों के उत्तर हां में हैं, तो यह स्पष्ट है कि जो अपेक्षा थी, वैसी पारदॢशता और ईमानदारी सी.बी.आई. का नेतृत्व नहीं दिखा पाया, इसलिए मेरा मानना है कि इस पूरे फैसले को पिछले 21 वर्षों के अनुभव के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुन: परखा जाना चाहिए और जो विसंगतियां आ गई हैं, उन्हें दूर करने के लिए एक संवैधानिक बैंच का गठन कर ‘विनीत नारायण फैसले’ पर पुनर्विचार करना चाहिए। ऐसे नए निर्देश देने चाहिएं, जिनसे ये विसंगतियां दूर हो सकें। 

मैं स्वयं इस मामले में पहल कर रहा हूं और एक जनहित याचिका लेकर जल्दी ही सर्वोच्च अदालत में जाऊंगा पर उससे पहले मैंने भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा व भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारियों, जागरूक वकीलों और चिंतकों को संदेश भेजा है कि सी.बी.आई. और प्रवर्तन निदेशालय के सुधार के लिए सुझाव दें जिन्हें इस याचिका में शामिल किया जा सके। मुझे उम्मीद है कि माननीय न्यायालय राष्ट्रहित में और सी.बी.आई. की साख को बचाने के उद्देश्य से इस याचिका पर ध्यान देगा। 

वैसे भारत के इतिहास को जानने वाले अपराध शास्त्र के विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा कोई समय नहीं हुआ, जब पूरा प्रशासन और शासन पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त हो गया हो। भगवद गीता के अनुसार भी समाज में सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण का हिस्सा विद्यमान रहता है। जो गुण विद्यमान रहता है, उसी हिसाब से समाज आचरण करता है। प्रयास यह होना चाहिए कि प्रशासन में ही नहीं, बल्कि न्यायपालिका, मीडिया, धर्मसंस्थानों, शिक्षा संस्थानों व निजी उद्यमों में ज्यादा से ज्यादा सतोगुण बढ़े और तमोगुण कम से कम होता जाए, इसलिए केवल कानून बना देने से काम नहीं चलता, यह सोच तो शुरू से विकसित करनी होगी। सी.बी.आई. भी समाज का एक अंग है और उसके अधिकारी इसी समाज से आते हैं तो उनसे साधु-संतों से जैसे व्यवहार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? पर लोकतंत्र की रक्षा के लिए और आम नागरिक का सरकार में विश्वास कायम रखने के लिए सी.बी.आई. जैसी संस्थाओं को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी होना पड़ेगा, अन्यथा इनसे सबका विश्वास उठ जाएगा।-विनीत नारायण

Pardeep

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