सी.बी.आई. अपने ‘आका की आवाज’ न बने
punjabkesari.in Wednesday, Aug 26, 2020 - 03:51 AM (IST)
केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के बारे में ऐसा क्या है कि वह हमेशा आंख की किरकिरी बनी रहती है और वह भी गलत कारणों से जिसके चलते उसे केन्द्रीय सुविधा का ब्यूरो, केन्द्रीय सांठगांठ का ब्यूरो आदि उपनाम दिए जा चुके हैं। प्रतिभाशाली बॉलीवुड एक्टर सुशांत सिंह राजपूत को 14 जून को उनके आवास पर फांसी पर लटका पाया गया।
आहत राष्ट्र ने उन्हें श्रद्धांजलि दी, उनकी प्रशंसा की और उसके बाद आक्रोशित जनता ने हत्या का आरोप लगाया। उनके प्रशंसक दोषी को पकडऩे की मांग करने लगे। मीडिया में मुकद्दमा चला और लोगों ने अपना गुस्सा बॉलीवुड पर उतारा। बॉलीवुड में बाहरी बनाम अंदरूनी लोगों के बारे में बहस शुरू हुई और यह कहा जाने लगा कि सुशांत इसके शिकार बने। मुंबई पुलिस ने जांच शुरू की और यह कानाफूसी होने लग गई कि शिवसेना के मंत्री और ठाकरे पुत्र आदि ने 13 जून की रात को सुशांत सिंह राजपूत के घर एक पार्टी में भाग लिया।
सुशांत के पिता ने पटना में सुशांत की गर्लफ्रैंड रिया चक्रवर्ती और 5 अन्य के खिलाफ आत्महत्या करने के लिए उकसाने हेतु प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की। मुंबई में बिहार पुलिस वालों को क्वारंटाइन किया गया। प्रवर्तन निदेशालय ने रिया और उसके परिवार के विरुद्ध मनी लांडरिंग का मामला दर्ज किया। बिहार सरकार ने इस मामले की सी.बी.आई. जांच की सिफारिश की और केन्द्र ने इस सिफारिश को स्वीकार किया। महाराष्ट्र ने इस पर आपत्ति व्यक्त की और कहा कि उसकी स्वीकृति अनिवार्य है। किंतु अंतत: उच्चतम न्यायालय ने सी.बी.आई. जांच के आदेश दिए।
आरंभ में यह घटना एक युवा जीवन के अंत की त्रासदी की तरह दिख रही थी किंतु बाद में यह केन्द्र-बिहार बनाम महाराष्ट्र-भाजपा बनाम उसकी पूर्व सहयोगी शिवसेना के बीच एक पूरा राजनीतिक तमाशा बना। बिहार के राजनेता आगामी विधानसभा चुनावों की तैयारी कर रहे हैं और वे बिहारी भावना को मुद्दा बनाना चाहते हैं और सुशांत की मौत का भावनात्मक उपयोग करना चाहते हैं। मुंबई में उनके लाडले के साथ क्या हुआ? इससे भाजपा-जद (यू) को बिहार के 5 प्रतिशत राजपूतों का समर्थन मिल सकता है।
सी.बी.आई. पर आरोप लगाए जाते रहे हैं कि किस तरह इसका उपयोग राजनीतिक विरोधियों को धमकाने के लिए किया जाता रहा है। चाहे कांग्रेस सरकार हो या मोदी सरकार। राजनीतिक कारणों से विरोधियों पर सी.बी.आई. छापे मरवाए जाते हैं और इसके अलावा प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग आदि का सहयोग भी लिया जाता है। सी.बी.आई. जांच का उपयोग विरोधियों को रास्ते पर लाने के लिए भी किया जाता है और यदि विरोधी रास्ते पर आ जाता है तो दबाव कम कर दिया जाता है और यदि नहीं आता है तो दबाव बढ़ा दिया जाता है। इसके अनेक उदाहरण हैं।
इस मामले में दो प्रमुख मामलों का उल्लेख किया जा सकता है जो समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह और बसपा की मायावती से संबंधित हैं। जब कभी सरकार उन पर दबाव डालना चाहती है तो सी.बी.आई. का प्रयोग उनके विरुद्ध आय से अधिक सम्पत्ति के मामलों को आगे बढ़ाने के लिए किया जाता है और जब वे मान जाते हैं तो उन मामलों को ठंडे बस्तों में डाल दिया जाता है। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने इस बात की कड़ी आलोचना भी की है।
छापे मारने के समय और तरीका इसके राजनीतिक आकाओं की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। पूर्व केन्द्रीय वित्त मंत्री चिदम्बरम और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद के मामलों को ही लें। दोनों ही भाजपा पर राजनीतिक विद्वेष का आरोप लगाते हैं। दोनों ही मानते हैं कि उनके विरुद्ध राजनीति से प्रेरित होकर मामले दर्ज किए गए हैं और साथ ही अपने को निर्दोष बताते हैं। चिदंबरम को चुप कराने के लिए मामले दर्ज किए गए ताकि वे सरकार की आलोचना न करें और लालू को विपक्षी दलों को एकजुट करने से रोकने के लिए धमकाया गया। जबकि दोनों ही भ्रष्टाचार के आरोपी हैं।
सी.बी.आई. की जांच पर भी अनेक प्रश्न उठाए जाते रहे हैं। 2016 की रिपोर्ट बताती है कि भ्रष्टाचार के 264 मामलों में केवल 12 प्रतिशत मामलों में आरोपियों को दोष सिद्ध किया जा सका है। 698 आरोपियों में से 486 केन्द्रीय और राज्य सरकार के अधिकारी थे जबकि 212 निजी लोग थे। जांच पूरी होने में 13 माह से अधिक का समय लगा और 698 लोगों में से केवल 8 दोषी साबित हो पाए। यह बताता है कि इस एजैंसी में बेईमानी व्याप्त है। इसके 26 अधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं।
सी.बी.आई. को सूचना के अधिकार अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है और इसका कारण राष्ट्रीय सुरक्षा बताया गया है। प्रधानमंत्री मोदी अक्सर शासन में पारदर्शिता लाने की बात करते हैं। समय आ गया है कि वे अपनी बातों को पूरा करें और सी.बी.आई. को वास्तव में स्वतंत्र बनाएं ताकि वह अपने आका की आवाज न बने और शक्तियों का दुरुपयोग बंद करे।-पूनम आई. कौशिश
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