जातीय गणना : मनाइए पर सामाजिक विद्वेष न बढ़े
punjabkesari.in Wednesday, Oct 04, 2023 - 04:59 AM (IST)

बिहार में सरकार ने जातीय गणना के आंकड़े जारी कर दिए हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि इसका बिहार की जनता को क्या और किस तरह का लाभ होगा? क्या इसका कोई राजनीतिक लाभ उठाएगा? अगर उठाएगा तो कौन? सबसे बढ़कर सवाल यह है कि जातीय जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने से ऐसा क्या पता चला, जिसका पहले से अंदाजा नहीं था? यानी इसमें नया क्या है? इन सवालों के बीच एक आशंका भी छुपी है कि क्या इस तरह की कवायद बिहार में सामाजिक विद्वेष को बढ़ाने का खतरा पैदा तो नहीं कर देगी? यह लोभ की राजनीति से लाभ की तलाश है, जिसकी गुंजाइश हमेशा कम होती है।
जातीय गणना के आंकड़े जारी करने का फौरी कारण तो यह दिखाई देता है कि पिछले महीने ही मोदी सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाकर दशकों से लटका महिला आरक्षण बिल पारित कराया। कहीं भाजपा इसका सारा चुनावी लाभ न ले जाए, इसलिए जातीय गणना के आंकड़े जारी कर एक नए फलक पर राजनीतिक खेल खेला गया है। देश में 80 के दशक से ही कई क्षेत्रीय पाॢटयां जातीय गणना पर जोर देती आ रही हैं। ऐसी मांग करने वाले नेताओं में पिछली सदी के उत्तराद्र्ध के नव समाजवादी नेताओं की पूरी जमात शामिल है। राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव, सपा सुप्रीमो रहे मुलायम सिंह यादव, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी इन नेताओं में शामिल रहे हैं। अंतत: नीतीश कुमार ने अपने राज्य में जातीय जनगणना करवा कर इसके आंकड़े भी जारी कर दिए।
आंकड़ों में नया कुछ भी नहीं निकला। पहले से ही सबको पता था कि पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों की संख्या बिहार में सबसे ज्यादा है। सवर्णों की संख्या भी अनुमान के करीब ही निकली। थोड़ी चौंकाने वाली बात रही भूमिहारों की संख्या, जो 2.86 फीसदी बताई गई है, जबकि पहले दावा 7.8 फीसदी के आसपास किया जाता था। बिहार में यादव और भूमिहार दोनों ही दबंग जातियां मानी जाती हैं और दोनों ही वर्षों से एक-दूसरे के खिलाफ डटी रही हैं। ज्यादातर भूमिहार जमींदार हैं, बिहार में काफी सामाजिक वर्चस्व रखते हैं। यादव समाज भी पिछले 30 साल में काफी आगे बढ़ा है, प्रतिष्ठा में भी और जमीन-जायदाद में भी। नए आंकड़े भूमिहारों को दबाव में ला सकते हैं। बयानबाजी शुरू हो गई है। गणना को फर्जी बताने वाले सोशल मीडिया पर सैंकड़ों मिल जाएंगे। जैसा कि पहले से आशंका थी कि सोशल मीडिया में जाति का जहर तेजी से बढऩे की प्रक्रिया जारी है।
वबिहार सरकार ने जातीय जनगणना से जो आंकड़े हासिल किए हैं, वह उनका क्या करेगी? इसका कुछ गड्डमड्ड-सा जवाब बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने देने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि जातीय जनगणना शुरू से ही हमारी मांग रही है। अब हमारे पास जाति आधारित वैज्ञानिक डाटा आ गया है। इन आंकड़ों के आधार पर कल्याणकारी योजनाएं लाने का प्रयास करेंगे। उनका यह जवाब एक नया सवाल पैदा करता है कि क्या अभी तक उनकी सरकार को इसका अंदाजा नहीं था कि राज्य में किन्हें कल्याणकारी योजनाओं की जरूरत है? जाति के आधार पर यह कैसे पता चल सकता है कि किस जाति को कल्याणकारी योजना की जरूरत है? तो क्या यह महज वोट बैंक की राजनीति है? इसका जवाब न में होना मुश्किल है। लोग सवाल उठा रहे हैं कि नीतीश कुमार और लालू यादव भले ही कभी अलग और कभी साथ में रहे हों, 30 साल से ज्यादा उनकी ही सत्ता बिहार में रही है लेकिन न ही बिहार से पलायन कम हुआ और न ही बीमारू राज्य का दर्जा हटा।
ऐसे ही सवालों पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक और सुर छेड़ा है। उनका कहना है कि सर्वेक्षण के दौरान हमने हर परिवार की आॢथक स्थिति की जानकारी ली। सर्वदलीय बैठक में हम इसे रखेंगे और सबकी राय लेकर जरूरी कदम उठाएंगे। नीतीश कुमार का यह बयान भी कई नए सवाल पैदा करता है कि आखिर आॢथक स्थिति से जुड़े आंकड़ों को क्यों साथ ही सार्वजनिक नहीं किया गया? बिहार की असली तस्वीर तो उन्हीं से सामने आती। नीतियां बनाने और स्थिति को समझने में मदद मिलती। इसने सभी का ध्यान इस तरफ खींचा है कि सरकार आखिर क्या छुपाने की कोशिश कर रही है।
जहां तक राजनीतिक लाभ की बात है, तो आंकड़े ऐसे हैं, जिनसे जद (यू) और राजद की प्रसन्नता अवश्य चौगुनी हो गई है। राज्य में पिछड़ों और महा पिछड़ों की आबादी को मिला दिया जाए तो राज्य की कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी 63 फीसदी हो जाती है। राज्य में सबसे बड़ी जाति यादव है, जिससे राज्य के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव संबंधित हैं। देखने में भले ही पिछड़ों और महा पिछड़ों का गणित लुभावना लग रहा हो, मगर जमीन पर इसे एकजुट करना किसी के लिए भी आसान नहीं। पिछड़ों के पास लालू यादव और नीतीश कुमार जैसे प्रभावशाली नेता हैं, मगर अति पिछड़ों के पास ऐसा कोई बड़ा नेता नहीं है। इसलिए उन्हें फ्लोटिंग वोट माना जाता है। जाति को तोडऩे के नाम पर नीतीश कुमार की अपनी कोशिशें रही हैं। दलित नेता रहे राम विलास पासवान जब उनके खेमे से अलग छिटक गए तो उन्होंने दलितों के कई खेमे कर दिए और पासवान को छोड़कर बाकी दलितों का महादलित नाम से एक अलग वर्ग खड़ा कर दिया।
बिहार समेत देश की राजनीति लंबे समय से जातिगत राजनीति के रूप में अभिशप्त है। बिहार में जाति को वोट बैंक मानने की नेताओं की लंबी परंपरा है। जाति देखकर उम्मीदवार तय किए जाते हैं। वर्ष 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव की पार्टी ने 40 फीसदी टिकट यादव उम्मीदवारों को दिए थे। कुल 58 उम्मीदवार जाति से यादव थे। इसी तरह नीतीश की पार्टी में कुर्मी और कुशवाहा प्रत्याशियों का बोलबाला था। जद (यू) ने 12 सीटों पर कुर्मी और 15 पर कुशवाहा उम्मीदवार उतारे थे।
अभी तक जाति आधारित राजनीति ने बिहार में सदैव ही जातीय विद्वेष को बढ़ाया है। जिन दिनों वहां जातीय राजनीति चरम पर थी, वहां आए दिन नरसंहार होते थे। इस वजह से बिहार में बड़े पैमाने पर पढ़े-लिखे और योग्य लोगों का अन्य राज्यों की ओर पलायन हुआ। यह गणना बता रही है कि अब बिहार के अस्थायी प्रवासियों की संख्या 54 लाख के करीब है।
बिहार के नेताओं को तय करना होगा कि जातीय गणना के आंकड़ों का इस्तेमाल वोट की खातिर जातीय विद्वेष बढ़ाने के लिए न हो। जातीय गणना एक ऐसा पिटारा है, जिसके खुलने से उसमें छुपी दोधारी तलवार बाहर आ गई है। अगर इसका इस्तेमाल जातीय विद्वेष बढ़ाने के लिए किया जाता है तो यह समाज में नए झगड़ों और ङ्क्षहसा को जन्म देगी। अगर आंकड़ों का इस्तेमाल जन हितैषी नीतियां बनाने के लिए किया जाए तो यह काम चुपचाप होना चाहिए, शोर मचाकर नहीं। काम जमीन पर दिखना चाहिए। वह भाषणों तक सीमित नहीं होना चाहिए। वैसे भी 2024 का चुनाव आसन्न है। भाजपा इस काट का कैसे सामना करेगी, यह देखना बाकी है। लेकिन सतर्कता जरूरी है। बयानबाजी तक तो चल जाएगा, बात बाहुबल पर आएगी तो समाज के सामने मुश्किल होगी। देश समाज से जुड़ा है और मंडल आयोग से जुड़ी 1990-91 की घटनाएं सबको याद हैं।-अकु श्रीवास्तव