सवालों से बच कर ‘साम्प्रदायिकता’ को सवाल नहीं बना सकते

Wednesday, Mar 15, 2017 - 10:58 PM (IST)

यू.पी. में भाजपा की अभूतपूर्व जीत को चुनौती देने से पहले हार के कारणों की चुनौती स्वीकार करने का माद्दा होना चाहिए। भाजपा की जीत के विश्लेषण हो रहे हैं, विरोधियों की हार के कारणों की चुनौती का माद्दा होना चाहिए। अगर भाजपा ने साम्प्रदायिक हवा के जोर से जीत हासिल की है तो पूछा जाना चाहिए कि इस हवा के खिलाफ मायावती, अखिलेश और राहुल ने क्या किया। क्या भाजपा ने इन तीनों नेताओं से कहा था कि हम साम्प्रदायिकता फैलाएंगे, आप लोग चुप रहना। साम्प्रदायिकता से लडऩे का दावा करने वाले 3-3 दलों को भाजपा ने हराया है। इन दलों ने कैसे लड़ाई लड़ी, इस सवाल पर टिके रहेंगे तो भाजपा की जीत से ज्यादा इनकी हार के कारणों को समझ सकेंगे। भाजपा की जीत के प्रति दुराग्रह ठीक नहीं है। 

10 साल से जनता सपा-बसपा को पूर्ण बहुमत देकर सर्वसमाजी होने का मौका दे रही थी। इन दलों से पूछा जाना चाहिए कि 10 सालों की सत्ता के दौरान दोनों ने कौन-सा ऐसा समाज बनाया जो मात्र बिजली और कब्रिस्तान की अफवाहों से भरभरा गया। बिहार में तो गाय के मुद्दे पर भावुकता का उन्माद पैदा करने की कोशिश हुई, मगर कामयाबी नहीं मिली। क्यों नहीं मिली? असम में तो गाय का मुद्दा थम ही गया और यू.पी. में तो कसाई घर बंद होने के अलावा सघन रूप से तो जिक्र ही नहीं आया। 

उसी यू.पी. के लोग 10 सालों से भाजपा को भूल गए थे। उससे ठीक पहले यू.पी. बाबरी मस्जिद ध्वंस के उन्माद में फंसा हुआ था। मगर लोग उससे निकल कर बसपा-सपा को वोट दे रहे थे, फिर उसकी जातिवादी पहचान कैसे बन गई। अगर बसपा और सपा ने एक जाति की राजनीति नहीं की है तो उन्होंने विज्ञापन देकर, बयान देकर या अपने काडर को घर-घर घुमाकर क्यों नहीं कहलवाया कि यह सच नहीं है। अखिलेश यादव ने क्यों नहीं विज्ञापन दिया कि यू.पी. के थानों में कितने यादव एस.एच.ओ. हैं और कितने दूसरे हैं। भाजपा के आरोप सही हैं या गलत हैं, उन्होंने लोगों में यह धारणा क्यों बनने दी। जब जवाब नहीं देंगे तो जनता को लगेगा कि सही है। 

कायदे से अखिलेश यादव को सभी नौकरियों का हिसाब देना चाहिए था। बताना चाहिए था कि कितने यादवों को नौकरी मिली है। यादवों के प्रति ये चिढ़ इन्हीं कारणों से फैलाई गई और उनके सबसे बड़े नेता चुप रह गए। यू.पी.ए. के दौरान किसी नेता ने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में थोक के भाव में राजपूत शिक्षकों की नियुक्ति का कागज दिया था। देखकर सन्न रह गए मगर किसी ने हंगामा नहीं किया। मनमोहन सिंह को भी शिकायत की गई थी। कागज देने वाले नेता ब्राह्मण थे, वे हल्ला करते तो राजपूत उनको वोट नहीं करते इसलिए फाइल लेकर पत्रकारों से संपर्क कर रहे थे कि उनका काम कोई दूसरा आसान कर दे। बी.एच.यू. में इसकी जांच तो अब भी हो सकती है। मुझे यकीन है थानों में यादवों को गिनने वाले अपर कास्ट के लोग एक यूनिवर्सिटी में वी.सी. की जाति के थोक के भाव में राजपूत शिक्षकों की नियुक्ति का भी विरोध करेंगे। बी.एच.यू. के वी.सी. इस बात की जांच कर सकते हैं। 

क्या पता कागज देने वाला फर्जी आंकड़े लेकर घूम रहा हो लेकिन एक गलत को आप दूसरे गलत से सही नहीं ठहरा सकते। अखिलेश यादव की टीम ने भाजपा को घेरने के लिए कोई मेहनत नहीं की, कोई नए तथ्य नहीं पेश किए। अखिलेश यादव ने भाजपा के आरोपों और कथित रूप से फैलाई अफवाहों का तथ्यों से मुकाबला नहीं किया। क्या विरोधी पाॢटयां भाजपा के बारे में अफवाह नहीं फैलाती हैं। क्या वे हमेशा सही बातें ही करती हैं। 

मायावती के पास अगर मीडिया नहीं था तो काडर था। कायदे से उन्हें जनता को हर रैली में बताना चाहिए था कि किस तरह अखबार और टी.वी. उन्हें नहीं दिखाते हैं। उन्हें भी सामने आकर इंटरव्यू देना था। ऐसे कौन से सवाल हैं जिनके जवाब उनके पास नहीं थे। अगर वह खुद से प्रयास करतीं तो आज उनके पास बोलने के लिए होता कि किस-किस चैनल ने उनके इंटरव्यू के लिए मना किया। रैलियों में बोल-बोलकर बहस को मोड़ सकती थीं। मैं नहीं मानता कि मीडिया से ही चुनाव लड़ा जा सकता है मगर सवालों का जवाब दिए बगैर आप चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। या तो वे जवाब मीडिया के जरिए दें या फिर अपने काडर के जरिए। मायावती हर सवाल से बच कर निकल रही थीं। उन्हें बताना चाहिए था और अब भी बताना चाहिए कि कितने जिलाध्यक्ष जाटव हैं और कितने गैर जाटव दलित, गैर-यादव ओ.बी.सी.हैं। 

क्या यह बात गंभीर नहीं है कि मायावती ने बाल्मीकि समाज को एक भी टिकट नहीं दिया। बहुजन एकता की बात करने वालों ने मायावती से यह सवाल क्यों नहीं पूछा? क्यों नहीं पूछा कि कश्यप और मौर्या का प्रतिनिधित्व कौन कर रहा है? पासी समाज का नेता कौन है? अगर है तो इसे लोगों तक पहुंचाने की कोशिश क्यों नहीं हुई? क्या बसपा समर्थकों ने भी आंखें मूंद कर इसे जाटव पार्टी की छवि नहीं बनने दिया जिसका लाभ भाजपा ने लिया। बसपा बंद कमरे की पार्टी बन गई। काडर भी कहता मिला कि फीडबैक कैसे दें और किसको दें, पता नहीं चलता। बहन जी के सामने सच कौन बोले। अगर ऐसा है तो बहन जी अपने कारण से हारी हैं। 

कई जगहों से सुनने को मिल रहा है कि जाटवों ने भी भर-भर कर भाजपा को वोट किया है क्योंकि मायावती ने 100 टिकट मुसलमानों को बांट दिए। अगर यह जरा भी सच है तो इसका मतलब है कि कार्यकत्र्ताओं और नेताओं के बीच अंबेदकरवाद कमजोर पड़ गया है। वे इसकी समझ के सहारे जमीन पर साम्प्रदायिकता का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं। उनके तर्क धराशायी होते जा रहे हैं। सत्ता के लिए हर समय टैक्टिकल होने की धुन ने सैकुलरिज्म को गौण कर दिया है। जब तक सामाजिक स्तर पर ध्रुवीकरण के खिलाफ समझ नहीं बनती, आप फेसबुक पर लिखकर या टिकट देकर दलित-मुस्लिम एकता नहीं बना सकते हैं। 

दलितों के साम्प्रदायीकरण से खुलकर लडऩा होगा। बसपा को ये लड़ाई लडऩी होगी। क्या किसी ने मायावती या बसपा काडर को मुजफ्फरनगर के गांवों में घूम-घूम कर दलितों को समझाते देखा है कि साम्प्रदायिक नहीं होना है। मुसलमान हमारे सामाजिक और राजनीतिक सहयोगी हैं। वे भी नागरिक हैं। अति पिछड़े भी बहुजन का हिस्सा हैं। बसपा उनकी भी पार्टी है। एक जाति का वर्चस्व किसी एक पार्टी में कैसे हो सकता है, तब तो बाकी जातियां बाहर का रास्ता देखेंगी ही। 

हर सवाल को अफवाह बताकर, संघ की साजिश बताकर आप भाग नहीं सकते हैं। जब तक आप पश्चिम के दलितों के मन में मुसलमानों के लेकर बैठे दुराग्रह या  पूर्वाग्रह का निपटारा नहीं करेंगे, टिकट बांट देने से समरसता नहीं बनती है। मायावती कभी यू.पी. के गांव-कस्बों तक इस विचारधारा को लेकर नहीं गई कि हम जातिविहीन और नफरतविहीन समाज के लिए लड़ रहे हैं। भाईचारा किसी समाज के वैसे नेताओं के दम पर नहीं बन सकता है जो बसपा के आधारभूत वोट के आधार पर सिर्फ विधायक बनने का सपनादेखते हैं। मौकापरस्ती से फिरकापरस्ती नहीं जाएगी। जबतक आप अपने सामाजिक आधार का नव-निर्माण नहींकरेंगे तो वह कभी न कभी धर्म के नाम पर बहकेगा ही।बसपा को बहुजन बनना होगा। बहुजन ही उसका सर्वजन है। 

बसपा को काडर की पार्टी कहते हैं। क्या इसकेकाडर को पता ही नहीं चला होगा कि गैर जाटव और जाटव घरों में किस तरह के पर्चे पहुंचाए जा रहे हैं।वह मुसलमानों को टिकट दिए जाने के खिलाफ वोट कर रहा है। क्या उनके पास उन पर्चों का जवाब देने केलिए कोई तर्क नहीं बचे थे। अम्बेदकरवादी आंदोलन क्या सिर्फ फेसबुक और व्हाट्सअप पर रह गया है। इसपरम्परा में दीक्षित तर्कशील लोगों की कोई कमी नहीं है। यातो ये बसपा के लिए आगे नहीं आए या बसपा ने इन्हें आगे नहीं किया। बसपा के मूल सामाजिक आधार जाटवों से पूछना चाहिए कि उन्होंने सामाजिक स्तर पर गैर जाटव दलितों को अपनाया है या अपने से दूर किया है। 

बहुजन नाम की राजनीतिक अवधारणा सामाजिक स्तर पर बनाए नहीं बन सकती है। एकाध बार बन भी गई तो टिकेगी नहीं। पहले भी तो मायावती ने 80-80 टिकट दिए हैं मगर अपनी हर रैली में नहीं बोलती थीं। पहले दिन से वह सौ टिकट देने की बात कर रही हैं। क्या उन्हें नहीं पता था कि इससे भाजपा को लाभ मिल सकता है। किसने कहा था बाहुबली की छवि रखने वाले मुख्तार अंसारी से समझौता करने के लिए। उन्होंने यह क्यों नहीं कहा कि कितने गैर जाटवों को टिकट दिया है, अति पिछड़ा को टिकट दिया है। उनके नेताओं के पोस्टर कहां थे। 

बसपा के काडर को गैर जाटव दलितों और गैर यादव पिछड़ों के घर-घर जाकर पूछना चाहिए कि वे मुसलमानों के बारे में क्या सोचते हैं। क्यों नफरत करते हैं। साम्प्रदायिकता की लड़ाई वहां जाकर लडऩी होगी। उन्हें कौम का गद्दार कहने की गलती नहीं होनी चाहिए। दूसरे दल को वोट देना या भाजपा को वोट देना गद्दारी नहीं है। अगर टिकट दिया है तो उसे डिफैंड करने के तर्क भी होने चाहिएं। 

मुसलमानों को भी खुद से पूछना चाहिए कि क्यों उन्हें समाज का एक तबका इस निगाह से देखता है। इसके लिए सिर्फ संघ पर हमला कर देने से काम नहीं चलेगा। उन्हें लोगों के घरों में जत्थों में जाना चाहिए। अपने बारे में बताना चाहिए और उन्हें बुलाना चाहिए। क्या उनकी तरफ से सामाजिक संबंध बनाने के प्रयास नहीं हुए जिसके कारण ये सब आसानी से टूटा है। वह क्यों हर बात मौलानाओं पर छोड़ देते हैं जिनका मकसद हुकूमत से सैटिंग करने के अलावा कुछ और नहीं होता है। 

सवाल यह होना चाहिए कि सैकुलर पहचान और राजनीति के लिए बसपा और सपा ने क्या किया है? क्या दोनों ने उन कारणों की पहचान की और दूर करने का प्रयास किया है, जिनसे साम्प्रदायिक बातों को हवा मिलती है। सैकुलरिज़्म की लड़ाई आजम खान और नसीमुद्दीन सिद्दीकी को आगे करके नहीं लड़ी जा सकती है। क्योंकि इनके बहुत से बयान उसी साम्प्रदायिकता के लिए खुराक बन जाते हैं जिनसे लडऩे की उम्मीद की जाती है। ये वे नेता हैं जो अपने समुदाय के बीच भाषण देकर साम्प्रदायिकता से लड़ते हैं। लडऩे के नाम पर सामुदायिक गोलबंदी करते हैं। ये भी कभी अपने समुदाय से बाहर के समुदायों में जाकर इसके खतरों पर बात नहीं करते। क्या ओवैसी देख पाए कि इन 10 सालों की राजनीति में बसपा-सपा के टिकट पर बड़ी संख्या में मुसलमान विधायक बने हैं जो अब घट गई है। 

क्या कोई इस बात के लिए आलोचना करेगा कि भाजपा के टिकट पर जीत कर आए 44 फीसदी विधायक अपर कास्ट के हैं। क्या ये जातिवाद नहीं है। 15 फीसदी अपर कास्ट के 44 फीसदी विधायक और वे भी सब के सब जातिवाद से ऊपर राष्ट्रवादी। भाजपा के विधायकों में ओ.बी.सी. का प्रतिनिधित्व बढ़ा है मगर इनके आने से ब्राह्मण, क्षत्रिय और बनिया को ही ज्यादा लाभ हुआ है। (44 फीसदी वाली बात अशोका यूनिवॢसटी के त्रिवेदी डाटा सैंटर की है जिसके बारे में scroll.in पर छपा है) 

लोगों ने बसपा और सपा की कमियों के कारण भी भाजपा को वोट किया है। अगर सपा लोगों को यकीन नहीं दिला सकी कि उसकी सरकार की नौकरियों में रिश्वत नहीं ली गई है और सबको दी गई है तो इसमें भाजपा की गलती नहीं है। अगर सपा और कांग्रेस के नेता नहीं बता सके कि 90 फीसदी से ज्यादा बिजली दोनों ने पहुंचाई है और हर जगह तो इसमेंभाजपा की गलती नहीं है क्योंकि सपा और बसपा के पास राजनीतिक मानव संसाधन भी हैं और आर्थिक भी। 

इनसे कहीं कमजोर तो आज भी बिहार में जे.डी.यू. और आर.जे.डी. हैं, फिर भी लालू यादव ने गोलवलकर की किताब ‘बंच आफ थाट्स’ लेकर संघ को घेर लिया। इनसे कहीं ज्यादा राहुल गांधी ने संघ से लोहा लिया। सीधा हमला किया, कोर्ट-कचहरी का सामना किया मगर राहुल की समस्या यह है कि जो वह बोलते हैं उनके नेता नहीं बोलते, जो उनके नेता बोलते हैं वह राहुल नहीं बोलते। कांग्रेस के पास राजनीतिक मानव संसाधन नहीं है जो राहुल की बातों को लोगों तक पहुंचा सके। इसीलिए अढ़ाई साल में राहुल ने जिस गरीब को राजनीतिक पूंजी के तौर पर विकसित करने का प्रयास किया उसे भाजपा आसानी से हड़प ले गई। 

राहुल का ही साहस का था कि भूमि अधिग्रहण का विरोध किया, सूट-बूट का मामला उठाया और किसानों की कर्ज माफी को केन्द्र में ला दिया। इसमें कमाल नरेन्द्र मोदी का है। विपक्ष के इन तीनों हमलों को उन्होंने समझ लिया और रियल टाइम में इस चुनौती का सामना किया। यू.पी. चुनाव तक आते-आते किसानों के कर्ज माफी का वायदा करने लगे। अब गरीब केन्द्रित राजनीतिक का यह लाभ होगा कि किसानों की कर्ज माफी होगी। यू.पी. से शुरूआत होगी तो इसका लाभ देश भर के किसानों को मिलने वाला है। भाजपा की जीत का सबसे सुखद पक्ष यही है। 

यू.पी. की जनता ने 2014 में भाजपा को सारे सांसद देकर सपा-बसपा को संकेत कर दिया था कि उन्हें क्या सुधार करना है। 2 साल हो गए मगर कुछ सुधार नहीं हुआ। गायत्री प्रजापति का बचाव किया गया और शिवपाल को निकाला गया। मुख्तार अंसारी को लाया गया मगर भाजपा से नहीं पूछा गया कि राजा भैया या दूसरे बाहुबलियों के बारे में उनकी राय क्या है। एक बाहुबली हिन्दू होकर राष्ट्रवाद में खप गयाऔर दूसरा बाहुबली मुसलमान होकर साम्प्रदायिक हो गया। यह दौर भाजपा का है इसलिए उससे लडऩे वालों को सुधार खुद में करना होगा। 

भाजपा तो नरेन्द्र कश्यप को भी अपने पाले में ले सकती है जिसे मायावती ने बहू हत्या के आरोप में जेल जाने के कारण निकाल दिया था। विपक्ष ने इन सब बातों को नहीं उभारा। भाजपा ने भी तमाम जातिवादी समझौते किए हैं। उसकी जीत जातिवाद के बगैर नहीं है मगर विरोधियों की हार भी जातिवाद के कारण है। भाजपा के जातिवाद में संतुलन है। उसके विरोधियों के जातिवाद में अतिरेक है। मुलायम सिंह यादव के परिवार के कितने लोग विधायक बनेंगे? यह ठीक है कि भाजपा में भी परिवारवाद है मगर इस तरह से एक खानदान के लोग विधायक-सांसद नहीं हैं। जनता एक हद तक बर्दाश्त कर लेती है, एक हद से ज्यादा नहीं। जैसे उसने सपा को बर्दाश्त किया अब कुछ दिन वह भाजपा को बर्दाश्त कर लेगी। मगर यह कहना कि जनता ने दिल-दिमाग सब भाजपा को दे दिया, उस जनता के साथ इंसाफ नहीं होगा जो सीमित विकल्पों में एक खराब के बदले दूसरे खराब को चुनने के लिए मजबूर है। 

इस वक्त जनता भाजपा की अनैतिकता और उसके समझौते नहीं देखना चाहती, फिलहाल वह उसके विरोधियों की नैतिकता का इम्तिहान देखना चाहती है। विरोधियों को अपने कर्मों का हिसाब देना होगा। यू.पी. की जनता ने सपा-बसपा को 2 साल का ही वक्त दिया है। 2019 बहुत दूर नहीं है। इतना ग्रेस माक्र्स तो कहीं की भी जनता किसी दल को नहीं देती है। ये चाहें तो कम से कम समय में सुधार कर सकते हैं। मिलकर नहीं लड़ेंगे तो लड़कर बिखर जाएंगे। यादव और जाटव आराम से भाजपा में जा सकते हैं इसलिए इन नेताओं को भी ये सब बकवास भूल कर मिल जाना चाहिए कि जाटव और यादव एक-दूसरे के शत्रु हैं। मगर सारा प्रयास सिर्फ भाजपा को हराने के लिए होगा तो मिलकर भी हारेंगे। सवालों के जवाब पहले देने होंगे, अपनी गलतियां स्वीकार करनी होंगी और जो तथ्य हैं उन्हें लेकर गांव-गांव जाना होगा। दूसरी बात भाजपा की कामयाबी में केन्द्र सरकार के कार्यों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। उज्ज्वला और आवास योजना के असर को भी देखा जाना चाहिए। हवा से जनता में हवा नहीं बनती है।

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