क्या दिल्ली में कांग्रेस और ‘आप’ का गठबंधन हो सकता है

Thursday, Jun 07, 2018 - 03:37 AM (IST)

पहले गोरखपुर और फूलपुर, उसके बाद कर्नाटक विधानसभा और फिर उत्तर प्रदेश के कैराना समेत कई राज्यों में हुए उपचुनावों में जीत से विपक्ष के हौसले बुलंद हैं। मोदी सरकार के 4 साल की उपलब्धियों का भंडार भले ही भरा होने का दावा किया जाता हो लेकिन इन हालिया कामयाबियों से विपक्ष में एक नई जान जरूर आ गई है। यह नहीं कहा जा सकता कि 2019 तक विपक्ष की यह जान बरकरार रहेगी लेकिन हसीन सपने जरूर पलने लगे हैं। 

दिल्ली की राजनीति में भी मुंगेरीलालों की कमी नहीं है। कर्नाटक में राजनीति का जो सिरा विपक्ष ने पकड़ा है, उसकी एक डोर दिल्ली से भी आ जुड़ी। जाने-अनजाने में कुछ लोग यह सोचने लगे हैं कि क्या दिल्ली की राजनीति में भी गठजोड़ हो सकता है। शीला दीक्षित से एक इंटरव्यू में यह पूछा गया था कि क्या दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में सीटों का बंटवारा हो सकता है, बस यहीं से दो पार्टियों के बीच समझौते की कुछ लोग पींगें बढ़ाने लगे। यहां तक कि दिल्ली की 7 लोकसभा सीटों पर 4-3, 5-2 या 6-1 का फार्मूला तक कुछ लोगों ने सुझा दिया। 

ट्वीट के जरिए दावे और प्रतिदावे भी किए गए। ज्यादातर कांग्रेसी हैरान हैं कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है और किसे रास आ रहा है, लेकिन यह सच है कि कुछ सीनियर कांग्रेसी नेताओं को यह पाठ पढ़ाया जा रहा है कि अगर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में समझौता हो सकता है और उस समझौते से गोरखपुर और फूलपुर के बाद कैराना और नूरपुर की जंग जीती जा सकती है तो फिर दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में समझौता क्यों नहीं हो सकता। 

दरअसल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच समझौते की या फिर विपक्ष की एकता की सुगबुगाहट उस समय शुरू हुई जब बेंगलूर में कुमारस्वामी की शपथ ग्रहण के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सर्वेसर्वा अरविन्द केजरीवाल को पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा का फोन आया। सच्चाई यह है कि जब कांग्रेस इस शपथ ग्रहण समारोह को विपक्ष की एकता के रूप में भुनाने का शो बनाने में जुटी थी, उस समय केजरीवाल का नाम कहीं नहीं था। सोशल मीडिया पर यह चर्चा भी शुरू हो गई थी कि विपक्ष की इस एकता में केजरीवाल को अलग-थलग रखा गया है। यह बात इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण नजर आ रही थी कि गैर-भाजपाई सारे मुख्यमंत्रियों को तो इस समारोह में शिरकत के लिए बुलाया जा रहा था लेकिन केजरीवाल को नहीं। 

इस लिस्ट में ममता बनर्जी भी थीं तो सीताराम येचुरी और डी. राजा भी थे। अखिलेश भी थे और मायावती भी। जब चंद्रबाबू नायडू भी थे जो कांग्रेस के धुर विरोधी हैं तो फिर केजरीवाल क्यों नहीं? यही माना गया कि केजरीवाल को विपक्ष की इस एकता से अलग-थलग रखा जा रहा है। केजरीवाल ने सारे राजनीतिक दलों से जिस तरह के रिश्ते बनाए हैं उसमें वह कामना भी नहीं कर सकते थे कि राहुल गांधी उस लिस्ट में केजरीवाल को रखेंगे। मगर, अगले दिन कुछ और घट गया। देवेगौड़ा दिल्ली आए और केजरीवाल को बेंगलूर आने की दावत दे दी। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि केजरीवाल ने ममता बनर्जी से अपनी दोस्ती का वास्ता देकर यह दावतनामा मंगवाया था, लेकिन इस दावतनामे ने राजनीति में खिचड़ी पकानी शुरू कर दी। केजरीवाल बेंगलूर गए और सिर्फ एक फोटो में ममता बनर्जी व चंद्रबाबू नायडू के साथ नजर आए। जब सोनिया और राहुल की एंट्री हुई तो केजरीवाल न जाने कहां छिप गए, मगर बेंगलूर में उनकी मौजूदगी ने उन्हें विपक्ष के साथ एक मंच जरूर दे दिया। 

केजरीवाल के बेंगलूर जाने के बाद यह चर्चा शुरू हो गई है कि आखिर दिल्ली में केजरीवाल का कांग्रेस के साथ समझौता क्यों नहीं हो सकता? केजरीवाल ने दिल्ली में कांग्रेस को शून्य करने में जो भूमिका निभाई है उसे देखते हुए केजरीवाल कांग्रेस का दुश्मन नंबर एक होना चाहिए था, लेकिन यहां लोग दूसरी ही बातें कर रहे हैं। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय माकन, पूर्व अध्यक्ष अरविन्दर सिंह लवली और दिल्ली के बाकी कांग्रेसी नेता इस तरह की चर्चा से साफ इन्कार करते हैं और समझौते की किसी संभावना का आधार ही नहीं मानते, लेकिन फिर भी यह चर्चा गर्माई रही। कांग्रेस इस चर्चा से हतप्रभ है क्योंकि सच्चाई यह है कि इस चर्चा से सबसे ज्यादा नुक्सान कांग्रेस को हो रहा है। 

इसीलिए चर्चा की आग में विधानसभा में विपक्ष के नेता विजेन्द्र गुप्ता ने यह कहकर घी डाल दिया कि अगला लोकसभा चुनाव कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिलकर लड़ेंगे। आम आदमी को यह चर्चा इसलिए माफिक आ रही है कि इससे एक खास संदेश जा रहा है। संदेश यह है कि कांग्रेस को मजबूरन आम आदमी पार्टी से समझौता करना पड़ रहा है, यानी कांग्रेस एक कमजोर पार्टी के रूप में खड़ी नजर आती है। एक तरफ कांग्रेस यह प्रचार कर रही है कि आम आदमी पार्टी का दिल्ली में आधार सिमट रहा है लेकिन दूसरी तरफ अगर वह उसी से समझौता करने की चर्चा में रहती है तो फिर संदेश यही जाता है कि कांग्रेस अपनी बुनियाद ढूंढने में नाकामयाब हो रही है। 

ऐसे में जाहिर है कि नुक्सान में तो कांग्रेस ही रहेगी। जहां आम आदमी पार्टी दिल्ली के साथ-साथ हरियाणा और पंजाब में भी कांग्रेस से समझौते की बात कर रही है, वहीं यह तथ्य भी सामने आता है कि दिल्ली में उसका वोट बैंक 54 से 29 फीसदी तक आ गया है। पंजाब में शाहकोट में पिछले साल 41 हजार से ज्यादा वोट लेने वाली ‘आप’ सिर्फ 1900 तक सिमट गई है। हरियाणा में तो अभी उसे अपने आपको साबित ही करना है, ऐसी हालत में वह किस आधार पर कांग्रेस से दिल्ली मांग रही है। कांग्रेस ने 2013 में अपने पांवों पर उस समय खुद कुल्हाड़ी मारी थी जब उसने दिल्ली में केजरीवाल को सरकार बनाने का मौका दे दिया था।

कांग्रेस की यह एक ऐतिहासिक गलती थी जिसका खमियाजा उसे 2015 के चुनावों में भुगतना पड़ा जब कांग्रेस शून्य होकर रह गई। दरअसल 28 सीटें जीतने के बाद भी भाजपा आम आदमी पार्टी को दिल्ली में सरकार नहीं बनाने देना चाहती थी, मगर ऐन वक्त पर सभी को हैरान करते हुए कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी सरकार को बिना शर्त समर्थन दे डाला। कांग्रेस के नेता तब यह समझ रहे थे कि बिजली हाफ और पानी माफ जैसे वायदे करके 28 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी एक भी वायदा पूरा नहीं कर पाएगी और जनता उसे खुद ही कुर्सी से अलग कर देगी। 

कांग्रेस को लगता था कि यह असंतोष इतनी जल्दी पैदा होगा कि आम आदमी पार्टी पानी के बुलबुले से ज्यादा वक्त तक नहीं टिक पाएगी। मगर हुआ इसके उलट। केजरीवाल ने इस मौके को खूब भुनाया। उन्होंने सरकार बनाते ही सबसे पहले सबसिडी देकर बिजली हाफ और पानी माफ  को साकार कर दिया। किसी ने सोचा नहीं था कि केजरीवाल सबसिडी देकर इस तरह जनता को बेवकूफ बनाएंगे, लेकिन जनता पर तो उनका जादू चल गया। जनता को 49 दिन की सरकार में ही यह विश्वास हो गया कि केजरीवाल जो कुछ कह रहे हैं उसे करके दिखाएंगे। इसका नतीजा यह निकला कि 2015 के चुनावों में कांग्रेस कहीं की नहीं रही और हालत तो यह हो गई कि केजरीवाल ने भाजपा को भी कहीं का नहीं छोड़ा। 

अब लोग यह मान रहे हैं कि अगर कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के साथ समझौता कर लिया तो फिर वह उसी गलती को दोहराएगी जो वह कई राज्यों में कर चुकी है। कांग्रेस ने सबसे बड़ी गलती उत्तर प्रदेश में उस वक्त की थी जब उसने मुलायम सिंह यादव की जनता दल सरकार को समर्थन दिया था। नतीजा यह निकला था कि जिस तरह अब दिल्ली में केजरीवाल ने कांग्रेस को हाशिए पर धकेला है, मुलायम सिंह ने यू.पी. में कांग्रेस को धकेल दिया था। कांग्रेस ने वही गलती बिहार में दोहराई और लालू यादव की पिछलग्गू बनी तो अब वह बिहार के नक्शे में ढूंढने से ही मिल पाती है।

कांग्रेस कर्नाटक में भाजपा को रोकने के लिए जनता दल (एस) को समर्थन देने के लिए मजबूर हुई है जिसके नतीजे भी उसे भविष्य में ऐसे ही निपटने पड़ सकते हैं। यही वजह है कि अब कांग्रेस दिखा रही है कि हम यह गलती नहीं करना चाहते। दिल्ली के सारे कांग्रेसी भी एक स्वर में ऐसे समझौते को नकार रहे हैं। नतीजा क्या निकलेगा यह तो भविष्य ही बताएगा लेकिन बैठे-बिठाए ‘आप’ को यह कहने का मौका मिल गया कि कांग्रेस हमसे समझौता कर सकती है और भाजपा को यह मौका मिल गया कि ये दोनों मौसेरे भाई हैं।-दिलबर गोठी

Pardeep

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