पुस्तक संस्कृति को देना होगा प्रोत्साहन

Friday, Apr 23, 2021 - 01:10 AM (IST)

पुस्तकें मित्रों में सबसे शांत व स्थिर हैं, वे सलाहकारों में सबसे सुलभ व बुद्धिमान हैं और शिक्षकों में सबसे धैर्यवान। चाल्र्स विलियम इलियट की कही यह बात पुस्तकों की महत्ता को उजागर करती है। नि:संदेह पुस्तकें ज्ञानार्जन करने, मार्गदर्शन करने एवं परामर्श देने में विशेष भूमिका निभाती हैं। पुस्तकें मनुष्य के मानसिक, सामाजिक, आॢथक, सांस्कृतिक, नैतिक, चारित्रिक, व्यावसायिक एवं राजनीतिक विकास में सहायक होती हैं।

दरअसल, 23 अप्रैल, 1564 को एक ऐसे लेखक ने दुनिया को अलविदा कहा था, जिनकी कृतियों का विश्व की समस्त भाषाओं में अनुवाद हुआ। यह लेखक था शेक्सपियर। जिन्होंने अपने जीवनकाल में करीब 35 नाटक और 200 से अधिक कविताएं लिखीं। साहित्य-जगत में शेक्सपियर को जो स्थान प्राप्त है उसी को देखते हुए यूनैस्को ने 1995 से और भारत सरकार ने 2001 से इस दिन को विश्व पुस्तक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।

भले ही आज के इंटरनैट फ्रैंडली वल्र्ड में सीखने के लिए सब कुछ इंटरनैट पर मौजूद है लेकिन इन सब के बावजूद जीवन में पुस्तकों का महत्व आज भी बरकरार है क्योंकि किताबें बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हमारे सच्चे दोस्त का हर फर्ज अदा करती आई हैं। बचपन में मां और परिवार से सीखने के बाद जब बच्चा स्कूल जाता है तब उसकी मुलाकात किताबों से होती है जो उसे जीवन की वास्तविकता से मिलवाती हैं और जीने की कला सिखाती हैं और जब उम्र का सफर पार करते हुए व्यक्ति बुढ़ापे की तरफ बढ़ता है तब भी ये किताबें ही उसके अकेलेपन को सांझा करती हैं।

महात्मा गांधी ने कहा है , ‘‘पुस्तकों का मूल्य रत्नों से भी अधिक है, क्योंकि पुस्तकें अत:करण को उज्ज्वल करती हैं।’’ डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के शब्दों में -‘‘पुस्तकें वे साधन हैं, जिनके माध्यम से हम विभिन्न संस्कृतियों के बीच पुल का निर्माण कर सकते हैं।’’ पुस्तक की महत्ता को स्वीकारते हुए लोकमान्य तिलक कहते हैं कि मैं नरक में भी पुस्तकों का स्वागत करूंगा क्योंकि इनमें वह शक्ति है कि जहां ये होंगी वहां अपने आप स्वर्ग बन जाएगा।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पुस्तकों के महत्व पर लिखा है कि तोप, तीर, तलवार में जो शक्ति नहीं होती  वह शक्ति पुस्तकों में रहती है। तलवार आदि के बल पर तो हम केवल दूसरों का शरीर ही जीत सकते हैं, किंतु मन को नहीं। लेकिन पुस्तकों की शक्ति के बल पर हम दूसरों के मन और हृदय को जीत सकते हैं। ऐसी जीत ही सच्ची और स्थायी हुआ करती है, केवल शरीर की जीत नहीं ! वस्तुत: पुस्तकें सचमुच हमारी मित्र हैं। वे अपना अमृतकोश सदा हम पर न्यौछावर करने को तैयार रहती हैं। उनमें छिपी अनुभव की बातें हमारा मार्गदर्शन करती हैं।

कुछ लोगों का मानना है कि इंटरनैट एवं ई-पुस्तकों की उपलब्धता के बाद कागजी पुस्तकों से लोगों का लगाव धीरे-धीरे कम होता जाएगा, किंतु ऐसा मानना किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं है। इंटरनैट पुस्तक का विकल्प कभी भी नहीं हो सकता। इंटरनैट के लिए इंटरनैट कनैक्शन की आवश्यकता होती है, जो हर जगह उपलब्ध नहीं होता। वास्तव में इंटरनैट से पुस्तकों के महत्व में वृद्धि हुई है, न कि इसके कारण पुस्तकों के प्रति लोगों के लगाव में कमी। सही मायने में देखा जाए, तो ई-पुस्तक भी तो कागजी पुस्तक का ही आधुनिक रूप है। अत: यह कहना सर्वथा गलत होगा कि आने वाले दिनों में पुस्तक की महत्ता कम हो जाएगी। लेकिन किताबों के प्रति तेज गति से हो रहा मोहभंग ङ्क्षचताजनक है। हाल ही में 24 राज्यों के 26 जिलों में ‘असर’ (एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) द्वारा किए गए सर्वे में आश्चर्यजनक नतीजे सामने आए हैं।

इन राज्यों के 60-60 गांवों में किए गए सर्वे में यह बात निकलकर आई कि वहां 94 फीसदी लोगों के पास मोबाइल और करीब 74 फीसदी के पास टैलीविजन है। किताबें और मैगजीन के मामले में यह आंकड़ा बेहद निराशाजनक है। केवल 10 फीसदी लोगों के घरों में ही किताबें और मैगजीन मिली हैं। वहीं दुनियाभर की 285 यूनिवॢसटियों में से ब्रिटेन और इटली की यूनिवॢसटी ने संयुक्त अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला है कि जो छात्र डिजिटल तकनीक का अधिकतम उपयोग करते हैं, वे पढ़ाई के साथ पूरी तरह नहीं जुड़ पाते और फिसड्डी साबित होते हैं। इंटरनैट के ज्यादा इस्तेमाल से उन्हें अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता और उनमें अकेलेपन की भावना घर कर जाती है।

अध्ययन में 25 प्रतिशत छात्रों ने बताया कि उन्होंने दिनभर में 4 घंटे ऑनलाइन बिताए जबकि 70 प्रतिशत ने एक से तीन घंटे तक इंटरनैट का इस्तेमाल किया। इनमें 40 प्रतिशत छात्रों ने सोशल नैटवर्किंग का इस्तेमाल किया जबकि 30 प्रतिशत ने सूचना के लिए इसका इस्तेमाल किया।बकौल गुलजार - ‘‘किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से, बड़ी हसरत से तकती हैं, महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं, जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं, अब अक्सर गुजर जाती हैं, कम्प्यूटर के पर्दों पर, बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें....।’’

 


-देवेन्द्रराज सुथार

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