बॉम्बे से मुंबई: 92 वर्षों में क्या कुछ बदल गया

punjabkesari.in Friday, May 28, 2021 - 06:21 AM (IST)

जिस शहर में मैं 92 वर्ष पूर्व जन्मा था, उसे बॉम्बे नाम दिया गया था जो अब बदल कर मुंबई कर दिया गया है जो सामान्य लोगों द्वारा किए जाने वाले उच्चारण के अनुरूप है। मगर केवल नाम ही नहीं बदला है, बहुत-सी चीजें बदल गई हैं जिनमें कानून को लागू करने का तरीका भी शामिल है। 

यदि मुझे दो दशक पूर्व भी यह बता दिया गया होता कि मेरे शहर के पुलिस कमिश्रर को कानून तोड़ते और कानून के प्रति अनादर रखने वालों के फलने-फूलने में राज्य के गृहमंत्री के साथ मिली भगत करनी पड़ेगी तो मैं बताने वाले के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रश्र जरूर उठाता। मगर नैतिकता तथा मूल्यों में धीरे-धीरे होने वाले क्षरण ने मुझे कंपा दिया है। 

मैं 1953 में भारतीय पुलिस सेवा में शामिल हुआ था। मैंने अपने पहले 15 वर्ष जिलों में बिताए और फिर महानगर की राह पकड़ी। 1968-69 में, जब मैं बॉम्बे शहर में एक जोन का प्रभारी बनाया गया, जो दादर से लेकर मुलुंड तक फैला था, शिवसेना नामक एक दृष्टांत ने शहर में जड़ें जमानी शुरू कर दी थीं। इसके नेता बाला साहिब ठाकरे ने स्थानीय मराठियों की निराशा को एक दिशा दिखाई, जिनमें से अधिकतर कोंकण के रहने वाले थे और राजनीतिक हिंसा को उस स्तर तक पहुंचा दिया जैसी कि शहर में पहले कभी देखी नहीं गई थी। 

जब तक शिवसेना ने सत्ताधारी कांग्रेस के मुख्य विपक्षी कम्युनिसटों की जगह नहीं ले ली पुलिस को मोर्चों, रैलियों तथा अन्य राजनीतिक प्रदर्शनों का सामना करना पड़ता था। पुलिस ऐसे विपक्षियों के साथ काफी आसानी से निपटने में सक्षम थी। 

यह सब तब बदल गया जब बाल ठाकरे ने शाखा प्रमुखों के साथ शिवसेना के कार्यकत्र्ताओं को अद्र्धसैनिक बलों की तर्ज पर संगठित किया और पुलिस के साथ झगड़े शुरू हो गए। 1968 में शहर ने पहला बड़ा अग्रिकांड देखा जिसमें प्रत्येक चॉल तथा बस्ती से शिवसैनिक शामिल थे, वे स्थानीय लोगों के लिए नौकरियां चाहते थे और इस मांग को काफी हद तक मान लिया गया और शिवसेना राजनीतिक परिदृश्य में कुछ पैठ बनाने में सफल रही। अब यह महाराष्ट्र में एक प्रमुख राजनीतिक दल है। ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी तेजी से गरीब लोगों के शहरों में आने के कारण धीरे-धीरे संयुक्त परिवार प्रणाली समाप्त हो गई। 

सारे देश में न्यायिक प्रक्रिया धीरे-धीरे स्थिरता की ओर बढ़ रही है। आपराधिक मामलों की सुनवाई शुरू होने में ही वर्षों लग जाते हैं। दोनों पक्षों के वकीलों द्वारा सुनवाई टालने के आग्रहों के कारण एक ऐसी स्थिति आ गई है कि लोग न्याय पाने के लिए विभिन्न शार्टकट अपनाने लगे। तुरन्त न्याय हासिल करने के पीछे एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है। यदि पुलिस अधिकारियों को जांच करने, मुकद्दमा चलाने तथा सजाएं दिलवाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है तो बदले में उन्हें वर्दीधारी अपराधी करार दिया जाता है।

कोलोनियल काल के बाद की कुशलता को बहाल किया जाना महत्वपूर्ण है। गत शताब्दी के 40वें दशक के अंत में एक युवा कानून विद्यार्थी के तौर पर मैं अदालतों में मुकद्दमों की सुनवाई देखा करता था। रोजमर्रा के आधार पर सुनवाई एक नियम था। मुकद्दमे आमतौर पर औसत 3 दिनों में समाप्त हो जाते थे तथा अपराध करने के एक वर्ष के भीतर निर्णय सुना दिया जाता था। अपराधी पाए जाने तथा सजा मिलना किसी व्यक्ति को गलती करने से बचने के लिए पर्याप्त था। जब से यह डर खत्म हुआ है अपराधों में वृद्धि हुई है। 

इस प्रणाली को वापस पटरी पर लाने के लिए न्यायिक प्रणाली पर राजनीतिज्ञों के चंगुल को ढीला करना आवश्यक है। शीर्ष पुलिस अधिकारियों, सरकारी वकीलों तथा जजों का चयन तथा नियुक्ति पर सूझवान जनता के ध्यान देने की जरूरत है। नियुक्तियों तथा स्थानांतरणों में राजनीतिक वर्ग की दखलअंदाजी नहीं होनी चाहिए।

यहां मैं मुंबई के एनकाऊंटर स्पैशलिस्ट वाजे का उल्लेख करना चाहूंगा जिसे तथा अन्य अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों को एक सहमति की धुन पर नाचने के लिए तैयार किया गया। वाजे पुलिस प्रमुख का बायां हाथ था।  हत्या के आरोप में वह लगभग 2 दशक तक निलंबन में था। उसे कैसे तथा क्यों बहाल किया गया तथा किसके द्वारा? क्या कोई जांच एजैंसी किसी अपराध के दो मुख्य आरोपियों में से एक को दोषमुक्त कर सकती है?

इस विशेष मामले में सारा पुलिस बल जानता है कि नाटक में कौन क्या भूमिका निभा रहा है। यदि राजनीतिज्ञों, पुलिस तथा अपराधियों के बीच गठजोड़ ऐसे ही चलता रहा तो सामान्य व्यक्ति के जीवन तथा संपत्ति की सुरक्षा दाव पर लगी रहेगी।-जूलियो रिबैरो( पूर्व डी.जी.पी.पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)


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