‘बोल-कुबोल कुछ भी बोल’ हमारी संस्कृति नहीं
punjabkesari.in Wednesday, May 03, 2023 - 05:50 AM (IST)

आसन्न विधानसभा चुनावों को लेकर कर्नाटक में प्रचार अपने चरम पर है। बढ़ती गर्मी के साथ राजनीतिक बदजुबानी का तापमान भी रंग दिखाने लगा है। विरोधी दल अथवा केंद्रीय नेतृत्व के नुमाइंदे पारस्परिक कीचड़ उछाल के खेल में सभी शामिल हैं।
हाल ही में कर्नाटक के कलबुर्गी में अपनी चुनावी रैली के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने नरेन्द्र मोदी को ‘जहरीला सांप’ बताया। हालांकि बाद में आपत्तिजनक टिप्पणी पर स्पष्टीकरण देते हुए उन्होंने कहा कि यह बयान व्यक्तिगत तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के लिए न होकर भाजपा की विचारधारा पर निर्देशित था। इस विषय में भाजपा विधायक बासनगौड़ा भी कहां पीछे रहे? विरोधी दल पर पलटवार करते हुए उन्होंने भी सोनिया गांधी को ‘विषकन्या’ जैसा असभ्य संबोधन दे डाला।
ऐसा परिदृश्य पहली बार देखने में नहीं आया। संसद सत्र हो अथवा चुनावी रैलियां, विरोधी धड़ों के खिलाफ अपशब्दों की आग उगलने तथा एक-दूसरे पर व्यक्ति गत हमला करने में कोई भी दल पीछे नहीं रहता। विजय का गर्व हो अथवा पराजय का भय, टीका-टिप्पणी के नाम पर अमर्यादित शब्दों का चयन निश्चय ही सभ्य समाज को स्तब्ध एवं क्षुब्ध करने वाला है। मूढ़, निरक्षर, अज्ञानी अथवा असभ्य, आखिर क्या संज्ञा दें ऐसे जनप्रतिनिधियों को, जो भाषा की गरिमा तक से परिचित नहीं?
मौजूदा राजनीति में आ रही गिरावट स्पष्ट तौर पर दो प्रकार से देखी जा सकती है; एक तरफ मुद्दे तो दूसरी ओर व्यक्तिगत हमले के तौर पर प्रयुक्त होने वाली भाषा, जिसके दोहराव में भी संकोच हो। पप्पू, नामदार, एक्सपायरी बाबू, स्पीड ब्रेकर, जहर की शीशी आदि राजनीतिक नामकरण के चंद उदाहरण हैं। हमारे ‘माननीय सांसदों’ द्वारा की जाती निर्लज्ज टिप्पणियों की भी कोई कमी नहीं। कभी किसी को ‘मौत का सौदागर’ आंकना, कभी किसी पर बेबुनियाद आरोप जड़कर नीच किस्म का आदमी बताना, कभी स्त्री गरिमा को भत्र्सना योग्य वचनों से चोटिल करना तो कभी नागरिक-रजिस्टर बनाने की बात करते हुए संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना के विरुद्ध समुदाय विशेष पर निशाना साधने की सोच रखना; क्या कुर्सी के मद में अंधे नेता मर्यादा सीमोल्लंघन के साथ राष्ट्रहित की भावना भी दरकिनार कर चुके हैं?
कतिपय राजनीतिज्ञों के आचरण से हमारी नवीनतम राजनीतिक भाषा इतनी अद्भुत हो चुकी है, जिसमें न तो विस्मयादिबोधक अवयवों का प्रयोग किया जाता है, न ही शील-अश्लील की विभाजक रेखाएं होती हैं तथा न ही अनर्गल प्रलाप-विलाप को अर्धविराम-पूर्ण विराम की परिधि में ही बांधा जा सकता है। यहां तक कि मुद्दे भी वही स्वीकार्य होते हैं, जो ‘ब्रेकिंग न्यूज’ बनकर खुलेआम तहलका मचा पाएं। बेचारे शिष्ट संवादों की क्या बिसात, जो इलैक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों में इनके समक्ष पांव जमा सकें? ऑ
अशिष्ट दंगल में उलझे इन राजनीतिक प्रलापियों के लिए आवश्यक है कि वे ऐतिहासिक पन्नों में दर्ज आदर्श राजनीतिज्ञों के जीवन वृत्तांतों पर दृष्टिपात करने हेतु कुछ समय अवश्य निकालें। जनहित कार्यों से इतर ये राजनीतिज्ञ महापुरुष इसीलिए कहलाए, चूंकि उनकी संयमित वाणी में भाषाई मर्यादा को कतई ताक पर नहीं रखा गया। भारतीय राजनीति में इससे उत्कृष्ट उदाहरण क्या होगा कि जनसंघ विरोधी होने के बावजूद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अटल बिहारी वाजपेयी के करिश्माई नेतृत्व के खासे प्रशंसक रहे। वहीं, संसद में दिवंगत नेहरू जी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अटलजी ने उनके देहावसान को जीवन की अमूल्य निधि लुटने जैसा बताया।
विरोधी गुटों की विचारधारा में भेद होना सामान्य है, चुटीले अंदाज में शालीन प्रहार होना भी दलगत राजनीति का ही हिस्सा है, किंतु प्रहार और उद्गार की उत्कंठा में अभद्रता पर उतर आना सामान्य नहीं कहला सकता। वाद-विवाद और संवाद के माध्यम से मर्यादा का चीरहरण होना प्रत्येक दृष्टि से त्रासदीपूर्ण है। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने एक बार कहा था कि ‘राजनीति बुराई से लड़ती है। अल्पकालिक धर्म राजनीति है और दीर्घकालिक राजनीति धर्म।’
संभवत: आधुनिक राजनीति स्वयं में बुराई इसलिए भी है क्योंकि इसका लक्ष्य मात्र अगले चुनाव पर ही टिका है, जिसमें दीर्घकालीन लक्ष्य हैं ही नहीं। आश्चर्य है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस विशेषाधिकार का सदुपयोग राष्ट्र के समग्र्र विकास के निहितार्थ क्यों नहीं होता? अनर्गल वार्तालाप प्रकरणों द्वारा देश की छवि धूमिल करने के स्थान पर राजनीति को समस्याओं के समाधानिक उपकरण बनाने की दिशा में प्रतिबद्घता क्यों नहीं दिखाई जाती?
‘बोल-कुबोल, कुछ भी बोल’ न तो कभी हमारी समृद्ध संस्कृति का हिस्सा रहे और न ही हो सकते हैं। आलोचना हो अथवा वाद-विवाद परिचर्चा, सम्मान का पात्र उसे ही माना जाता रहा है, जो शोभनीय भाषा में तर्कशील ढंग से अपना पक्ष रखने की विधा से वाकिफ हो। इस विषय में आधुनिक जनता को ‘कूप मंडूक’ समझना राजनीतिज्ञों की सबसे बड़ी भूल है। एक भी मतदान के हेर-फेर से समस्त कुचालें ढेर होते देर नहीं लगतीं।
ये शब्द ही तो हैं जो हमारे व्यक्तित्व के वास्तविक परिचायक हैं। भाषा के आधार पर स्वयं को कहां रखा जाए, इस विषय में सभी दलों के लिए विचार करना आवश्यक है। सियासत व सियासतदानों का दौर भले ही बदल जाए, किंतु व्यक्तित्व की छाप अमिट है, जो जीवनोपरांत भी अपना वजूद बनाए रखती है।-दीपिका अरोड़ा