‘एक देश-एक चुनाव’ का ब्लू प्रिंट

punjabkesari.in Saturday, Sep 07, 2024 - 05:34 AM (IST)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक बड़ी सफलता मिलती दिखाई दे रही है। राजनीतिक सूत्रों का कहना है कि एन.डी.ए. के सहयोगी दल जे.डी.यू., तेलुगू देशम पार्टी और एल.जे.पी. (राम बिलास) ‘एक देश-एक चुनाव’ और ‘धर्म निरपेक्ष नागरिक संहिता’ पर सहमत हो गए हैं। जाति जनगणना पर भी सहमति बनती दिखाई दे रही है। मतलब साफ है कि भाजपा 2029 के लोकसभा चुनावों के साथ सभी राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के लिए नया कानून ला सकती है। ‘एक देश-एक चुनाव’ निश्चित तौर पर एक अच्छी धारणा है। संभव हो तो पंचायतों और नगर परिषदों के चुनाव भी एक साथ ही हो जाएं तो लोकतंत्र के लिए और अच्छी बात होगी। इससे चुनाव के भारी-भरकम खर्च में कमी आएगी। समय की बचत होगी। बार-बार चुनाव के काम में लगा दिए जाने वाले कर्मचारियों को अपना काम करने का अधिक मौका मिलेगा। राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को भी चुनाव पर अधिक खर्च नहीं करना पड़ेगा। इसके चलते राजनीतिक भ्रष्टाचार पर भी थोड़ा बहुत अंकुश लग सकता है। 

‘एक देश-एक चुनाव’ कोई नई बात नहीं है। आजादी के बाद 1952 से 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते थे। समस्या 1967 के बाद शुरू हुई। इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी को लोकसभा में तो बहुमत मिल गया लेकिन बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। 

चुनाव पर बढ़ता खर्च : पिछले 5 वर्षों में चुनाव का बढ़ता खर्च देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बनता जा रहा है। सैंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक आजादी के बाद 1952 में देश के चुनाव पर साढ़े 10 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। तब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे। 2019 में लोकसभा और आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, अरुणाचल प्रदेश व सिक्किम विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए जिस पर करीब 50 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए। 2024 में ये खर्च बढ़कर करीब 1 लाख करोड़ रुपए होने का अनुमान है। जाहिर है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते तो लगभग इसी खर्च में दोनों अनुष्ठान पूरे हो जाते। लोकसभा के चुनाव का खर्च केंद्र सरकार और विधानसभा चुनाव का खर्च राज्य सरकार देती है। दोनों चुनाव एक साथ होने पर खर्च दोनों में बंट जाता है। विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग होने से सरकारी तंत्र, मंत्री और राजनीतिक दल हमेशा चुनाव की तैयारी में व्यस्त नजर आते हैं। 

प्रधानमंत्री और भाजपा सभी चुनावों को एक साथ कराने पर जोऱ दे रहे हैं। लेकिन कांग्रेस सहित ज्यादातर विपक्षी दल एक साथ चुनाव पर सहमत नहीं हैं। खास कर क्षेत्रीय पार्टियों को डर है कि एक साथ चुनाव होने पर सत्ता उनके हाथ से निकल जाएगी। विपक्ष का ये डर बहुत तार्किक नहीं लगता है। 

सरकार नहीं चली तब क्या होगा? : केंद्र सरकार के लिए लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना मुश्किल नहीं है। संविधान की धारा 356 के जरिए विधानसभाओं को भंग करके एक साथ चुनाव कराए जा सकते हैं। इसका उपयोग कई बार हो चुका है। 1977 में जनता पार्टी की सरकार केंद्र में आई तो कांग्रेसी राज्य सरकारों को इसी धारा का उपयोग करके भंग कर दिया गया और राज्यों में विधानसभा के चुनाव कराए गए। 1980 में कांग्रेस केंद्र में लौटी तो राज्यों में जनता पार्टी की सरकारों को भंग करके चुनाव कराए गए। किसी राज्य विधानसभा या लोकसभा का मध्यावधि चुनाव कराने की नौबत आ जाए तो क्या होगा? क्या फिर सभी विधानसभाओं और लोकसभा के एक साथ चुनाव कराए जाएंगे? इसे तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता है। एक देश-एक चुनाव के नाम पर केंद्र सरकार को राज्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप का अधिकार फिर से देना राज्यों की स्वायत्तता को खत्म करने जैसा होगा। 

जरूरी है राजनीतिक सुधार : देश में राजनीतिक दलों की भीड़ बढ़ती जा रही है। राज्यों में नए नेता उभर रहे हैं। लोकतंत्र के लिए यह एक शुभ संकेत है। लेकिन क्षत्रप नेताओं की महत्वाकांक्षा एक बड़ी समस्या भी है, जिसके चलते सरकारें 5 साल का समय पूरा नहीं कर पाती हैं। एक देश -एक चुनाव लागू करने पर इस समस्या से कैसे निपटा जाएगा इसका कोई ब्लू प्रिंट अब तक सामने नहीं आया है। प्रधानमंत्री को यह साफ करना होगा कि पूरे कार्यकाल तक सरकार नहीं चलने पर क्या होगा? एक तरीका ये हो सकता है कि लोकसभा या विधानसभा का कार्यकाल 5 साल पूरा नहीं होने पर सिर्फ बचे हुए कार्यकाल के लिए मध्यावधि चुनाव कराए जाएं। लेकिन दूसरी बार भी किसी पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिले और सरकार फिर नहीं चले तब क्या होगा? एक रास्ता यह भी हो सकता है कि उम्मीदवारों को वोट देने की जगह पार्टियों को वोट देने की व्यवस्था शुरू की जाए। इस प्रणाली में पार्टी को जितने प्रतिशत वोट मिलें उस हिसाब से उसके उम्मीदवारों को लोकसभा और विधानसभा में सीटें दे दी जाएं। वोट प्रतिशत के हिसाब से ही पंचायतों और नगर निकायों में भी सीटें तय की जा सकती हैं। इस पर भी राजनीतिक दलों में सहमति आसान नहीं है।-शैलेश कुमार


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