जाफरी प्रकरण में उड़ा ‘इंसाफ का मजाक’

Wednesday, Jun 29, 2016 - 12:16 AM (IST)

गुजरात हाईकोर्ट के प्रति पूरे आदर के साथ, मैं उसके इस निर्णय से असहमति प्रकट करना चाहता हूं कि एहसान जाफरी के गोली चलाने से भड़की भीड़ ने उनकी हत्या की। मैं उन्हें जानता था और वह एक पक्के कांग्रेसी थे। गुलबर्ग सोसायटी नरसंहार लोगों को तंगदिल बनाने की उम्मीद में स्थानीय गुजराती नेताओं की ओर से किया गया काम था।

जब जाफरी हिन्दुओं की भीड़ से घिरे थे तो बावला बनी अपने चारों ओर खड़ी भीड़ से बाहर निकालने के लिए उन्होंने मुझे फोन किया। मैंने दिल्ली में गृहमंत्रालय को फोन किया और उनके फोन के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि वे राज्य के गृह मंत्रालय के संपर्क में हैं और परिस्थितियों पर नजर रखे हैं। मैंने जैसे ही टैलीफोन रखा, घंटी फिर बज उठी और वह मुझसे कुछ करने का आग्रह कर रहे थे क्योंकि भीड़ उन्हें बाकायदा मार डालने की धमकी दे रही थी। मदद के लिए की गई उनकी पुकार आज भी मेरे कानों में गूंजती है।

मैं स्वीकार करता हूं कि गृह मंत्रालय को फोन करने के अलावा मैं कुछ नहीं कर सका। इसलिए न्यायालय का यह निर्णय गलत है कि जाफरी ने भीड़ को उकसाया। यह न्याय का मजाक है। लेकिन, फिर न्यायालय को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि उसे तो उन सबूतों के आधार पर तय करना है जो उसके सामने रखे गए हैं। पक्षपाती पुलिस ने न तो अपना काम किया और न ही गहराई से तैयारी की, इसलिए न्यायालय इस निर्णय पर पहुंचा कि उकसावा जाफरी की ओर से आया।

मुझे उम्मीद है कि मामला सुप्रीम कोर्ट में आएगा और वास्तविक तथ्य ज्यादा लोगों के सामने आएंगे। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि सामान्य समझ यही है कि जाफरी का दोष है। दुख की बात यह है कि जज भी अब पुलिस की ओर से किए गए घिनौने काम के झांसे में आ जाते हैं। भारत एक विविधता वाला देश है और संविधान से शासित होता है जिसे हिन्दू, मुसलमान और सिखों ने संविधान सभा में साथ मिलकर स्वीकार किया था।

यह श्रेय  राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं को जाता है कि उन्होंने एक सैकुलर संविधान को स्वीकार किया जबकि हिन्दू 80 प्रतिशत के भारी बहुमत में थे। हिन्दू महासभा, जिसने जनसंघ को जन्म दिया, लोकसभा में 10 सदस्य भी नहीं भेज पाई। वास्तव में, इस पार्टी ने अपनी स्थिति सुधार ली है और आज सदन में अपने दम पर बहुमत में है। लोकसभा में इसकी 283 सीटें हैं जो इसे स्पष्ट बहुमत देती हैं। शिव सेना जैसी इसकी निकट की सहयोगी इसकी ताकत को और बढ़ाती है।

भारत की बीमारी यह है कि सरकारी मशीनरी सत्ता में रहने वाली पार्टी की विचारधाराओं को दर्शाती है। यह उतना ही कांग्रेस पर लागू होता है जितना भाजपा पर। यहां तक कि कम्युनिस्ट भी निर्दोष नहीं हैं। हम इन खामियों का कानून के राज के साथ किस तरह समाधान करते हैं यह राष्ट्र के सामने सबसे बड़ी समस्या है। सभी पाॢटयां इसकी दोषी हैं, इसलिए रोशनी की कोई किरण दिखाई नहीं देती है।

दुर्भाग्य से, आक्रमण के मुख्य शिकार आज अल्पसंख्यक और हाशिए के लोग हैं। अगर कानून के राज को बहाल नहीं रखा गया तो समाज के सभी लोग चपेट में होंगे और बारी-बारी से इसके शिकार होंगे। अभी दोष मुसलमानों को दिया जा रहा है, कल समाज के दूसरे लोगों को दोषी बताया जाएगा। यहकहां तक जाएगा? कानून के राज का कोई विकल्प नहीं है।

सौभाग्य से, कुछ कार्यकत्र्ता अभी भी लोकतंत्र को पटरी पर लाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन वातावरण इतना दूषित हो गया है कि उनका काम काफी कठिन, लगभग असंभव दिखाई दे रहा है। अंतत: संसद ही मध्यस्थता करने वाली है। राष्ट्र को देखना होगा कि यह ऐसे लोगों को चुनता है जिनका विश्वास कानूनके राज और उस संविधान में है जो 1950 में लागू हुआ।

वास्तव में, संविधान सभा के सामने कई विकल्प थे। सलाहकार बी.एन. राव जिन्होंने दुनिया में चल रही व्यवस्थाओं को देखने के लिए यात्रा की, संविधान सभा की सलाहकार समिति के सामने अमरीका में चल रही राष्ट्रपति प्रणाली और फ्रांस में चल रही व्यवस्था को रखा। जवाहरलाल नेहरू, जिनके विचार उस समय प्रबल थे, ने संसदीय प्रणाली को प्राथमिकता दी। यह आरोप लगाया जाता है कि हैरो और कैम्ब्रिज में उनकी शिक्षा ने उनके विचारों को ढाला। यह सच हो सकता है लेकिन वह एक ऐसी व्यवस्था चाहते थे जिसमें सभी वयस्क हिस्सा ले सकें।

डा. राजेेंद्र प्रसाद, जो अध्यक्षता कर रहे थे, चाहते थे कि मतदाताओं के लिए कुछ शैक्षणिक योग्यता हो। नेहरू  ने इसका जवाब दिया कि आजादी की लड़ाई में अशिक्षित और अज्ञानी ही मुख्य ताकत थे। अब देश आजाद हो गया तो क्या हम उनसे कहें कि वे वोट देने के काबिल नहीं हैं। आंदोलन की एक प्रेरणा थी-सैकुलरिज्म। यह संविधान में निहित है जो एक व्यक्ति को एक वोटका अधिकार देता है चाहे उस समुदाय की कितनी भी संख्या क्यों न हो।संभव है आज समाज के कुछ तबकों में यह सोचा भी नहीं जा सकता लेकिन बहुसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधियों ने इस सिद्धांत को स्वीकार किया।

इससे भी ज्यादा, संविधान सभा में मुसलमानों के प्रतिनिधियों ने विधायिका, शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण या कोटा लेने से मना कर दिया जो उन्हें ब्रिटिश शासन में मिला हुआ था। यह आज भी चल रहा है लेकिन निजी क्षेत्र में पक्षपात हो रहा है। हिन्दुओंं के प्रतिष्ठानों मेें बहुत कम मुसलमान कर्मचारी हैं। वास्तव में, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ओर से बनाई गई सच्चर कमेटी ने कहा है कि मुसलमानों की हालत दलितों से भी खराब है। उस समय से आज तक बहुत कम सुधार दिखाई दे रहा है।

वैसे फैसले, जैसा एक जाफरी मामले में आया है, हिन्दुत्व की भीड़ को यह तर्क मुहैया कराते हैं कि मुसलमानों की आक्रामकता हिन्दुओं को साम्प्रदायिक लाइन अपनाने को मजबूर करती है। संभव है मैं बहुत ज्यादा आशावादी हूं लेकिन मैं अभी भी यह यकीन करता हूं कि समाज मोटे तौर पर यह महसूस करेगा कि इतनी सारी जटिलताओं वाला यह देश विविधतावादी और लोकतांत्रिक आधार पर ही टिक सकता है। लोग खुद ही देखेंगे कि संविधान के मूल्य क्या हैं और व्यवहार में जो हो रहा है, उसमें कितना भेद है। विविधता सिर्फ एक पंूजी के रूप में रखने वाली विचारधारा नहीं है, बल्कि संजोने वाली ऐसी चीज है जो देश की अखंडता के लिए जरूरी है।
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