तृणमूल कांग्रेस के गढ़ में भाजपा का नया नारा ‘एबार बांग्ला’

Saturday, Jul 14, 2018 - 04:26 AM (IST)

2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में भाजपा की नजरें प. बंगाल की कुल सीटों में से 22 पर हैं, जिनमें से फिलहाल उनका फोकस जनजातीय जिलों झारग्राम, पुरुलिया, वैस्ट मिदनापुर तथा बांकुड़ा से तीन सीटों पर है। इन क्षेत्रों ने पंचायत चुनावों में भाजपा को अप्रत्याशित सफलता दिलाई है। 

चुनावी गड़बड़ी के आरोपों तथा सत्ताधारी पार्टी द्वारा दी गई धमकियों तथा हिंसा के बावजूद पुरुलिया तथा झारग्राम में कांटे की टक्कर के बावजूद भाजपा नेताओं को विश्वास है कि जनजातीय पट्टी में राजनीतिक हवाएं उनके पक्ष में बदल रही हैं। सरकार के खिलाफ शिकायतें बढ़ रही हैं और अब समय है कि इसका लाभ उठाया जाए। बंगाल में 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए प्रचार की शुरूआत करने हेतु प्रधानमंत्री मोदी ने जनजातीय बहुल वैस्ट मिदनापुर जिले को चुना है। यहीं से वह अपने किसान हितैषी अभियान की शुरूआत करेंगे जिसमें धान तथा अन्य एक दर्जन से अधिक कृषि उत्पादों पर एम.एस.पी. बढ़ाना शामिल है।

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जब 28 जून को पुरुलिया में थे तो उन्होंने एक रैली को सम्बोधित करते हुए तृणमूल कांग्रेस तथा पार्टी अध्यक्ष ममता बनर्जी की सरकार पर हमला बोला। इतना निश्चित है कि मोदी सिर्फ और सिर्फ अपनी सरकार की केन्द्रीय योजनाओं के पक्ष में आवाज उठाएंगे और पूछेंगे कि उनके लाभ जनता तक पहुंचे हैं कि नहीं। यह जानकारी मिलने पर कि जनजातीय समुदाय राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली योजनाओं में अनियमितताओं, भुगतान में देरी तथा सबसे बढ़कर लाभों के वितरण के राजनीतिकरण को लेकर असंतुष्ट है, प्रधानमंत्री केन्द्रीय योजनाओं के लेन-देन में पारदर्शिता पर जोर देंगे जहां भुगतान सीधा लाभ प्राप्तकत्र्ता के बैंक खाते से जुड़ा है। उनके तरकश में और भी कई तीर होंगे। 

भाजपा ने बंगाल में चुनाव प्रचार करने के लिए कई शीर्ष नेताओं को चुना है। खुद मोदी कुछ जिलों का दौरा करेंगे जहां पार्टी को अपने भाग्यशाली होने की आशा है। आखिरकार इस चुनाव का नारा ही ‘एबार बांग्ला’ अर्थात ‘अब बंगाल’ है। सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस कुछ चिंतित है क्योंकि उसे भाजपा से कड़ी टक्कर मिलने की सम्भावना है क्योंकि बंगाल में वामदल तथा कांग्रेस की उपस्थिति कोई खास मायने नहीं रखती और इन जनजातीय क्षेत्रों में सत्ता विरोधी लहर के वोट बंटने की सम्भावना नहीं है क्योंकि यहां लोगों को बहुत अधिक दलों को आजमाने के लिए नहीं जाना जाता। 

यदि यहां कोई उम्मीदवार किसी जनजातीय दल से होगा अथवा जनजातीय लोग किसी आजाद उम्मीदवार को खड़ा करते हैं तो मुकाबला हमेशा दो के बीच होगा-सत्ताधारी उम्मीदवार तथा जनजातीय लोगों के बीच। मगर यदि जनजातीय लोग यह महसूस करते हैं कि उनकी ताकत पर्याप्त नहीं है तो वे सामान्यत: विपक्ष का समर्थन करते हैं, जिससे उन्हें अपनी आकांक्षाएं पूरी होने की आशाएं होती हैं। फिलहाल भाजपा एकमात्र विकल्प दिखाई देती है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जनजातीय गांवों में पैठ को देखते हुए सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस एक कठिन स्थिति में फंस गई है। हालांकि सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी। वह चुनावों में जाने से पूर्व अपनी कमजोरियों को दूर करने के लिए अपनी पूरी ताकत जुटा रही है। पंचायत चुनाव के परिणाम आंख खोलने वाले हैं तथा मुख्यमंत्री, जो आमतौर पर अपनी पार्टी की कमियों से बेखबर दिखाई देती हैं, उन्हें भी एहसास हो गया है कि समझदारी इसी में है कि समस्याओं को स्वीकार कर उनका समाधान खोजा जाए। 

जो पहला काम उन्होंने किया वह था जनप्रतिनिधियों को हटाना जो मंत्रियों तथा विधायकों के तौर पर काम कर रहे थे और उनके लिए एक बोझ बन गए थे। स्थानीय लोग उनसे असंतुष्ट थे। सत्ता ने उन तक लोगों की पहुंच असंभव बना दी थी और वे बहुत अमीर हो गए थे। जहां जनप्रतिनिधियों के सामान्य घर महलों में परिवर्तित हो गए तथा साइकिलों ने एस.यू.वीज के लिए जगह खाली कर दी, जनजातीय समुदाय दो जून का खाना हासिल करने के लिए संघर्षरत था। यहां तक कि सबसिडीयुक्त राशन, नरेगा की मजदूरी तथा अन्य सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं के लाभ प्राप्त करना इस बात पर निर्भर करता था कि जनजातीय लोग राजनीतिक दादाओं के कितने करीब हैं।-आर. दत्ता

Pardeep

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