‘भाजपा-पी.डी.पी. गठजोड़’ तलवार की धार पर

Saturday, Apr 21, 2018 - 04:21 AM (IST)

क्या भाजपा-पी.डी.पी. गठबंधन की मोहलत पूरी हो चुकी है? कठुआ प्रकरण इसी मोड़ का सूचक है। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती तो ऐसी स्थिति में गठबंधन आंख के फोर में तोड़ देतीं लेकिन उन्हें यह डर सता रहा है कि ऐसा किया तो राज्यपाल शासन लग जाएगा और मध्यवर्ती विधानसभा चुनाव के बाद अगले वर्ष उमर अब्दुल्ला की नैशनल कांफ्रैंस धमाकेदार जीत हासिल करते हुए सत्ता में वापसी करेगी। 

भाजपा भी कोई कम चिंतित नहीं। गठबंधन भंग होता है तो देश के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य में इसकी महत्वाकांक्षाओं को जबरदस्त धक्का लगेगा। फिलहाल जम्मू-कश्मीर के भाजपा के विधायकों ने बेशक इस्तीफे दे दिए हैं और अब मंत्रिमंडल के नए फेरबदल का बहाना बना रहे हैं, फिर भी गठबंधन को कोई खतरा नहीं। वैसे यह गठबंधन उधार की सांसों पर ही जीवित है। भाजपा के साथ 3 वर्ष पूर्व गठबंधन बनाकर पी.डी.पी. ने आंशिक रूप में अपना मुस्लिम जनाधार खो दिया था। जनवरी 2016 में मुफ्ती मोहम्मद सईद की मृत्यु और इसके बाद गत 2 वर्षों दौरान कुप्रबंधन के चलते पी.डी.पी. का वोट बैंक इससे और भी विमुख हो गया। यदि आज चुनाव करवाए जाते हैं तो नैशनल कांफ्रैंस कश्मीर वादी में अपने विरोधियों का बिल्कुल सफाया कर देगी। महबूबा के भाई तसद्दुक हुसैन वादी में व्याप्त आम जनभावनाओं की अभिव्यक्ति करते हुए कहते हैं :

‘‘पी.डी.पी. और भाजपा एक ऐसे अपराध में एक-दूसरे की भागीदार हैं जिसकी कीमत कश्मीरियों की एक पूरी पीढ़ी को अपने खून से अदा करनी पड़ सकती है।’’ लगातार 6 वर्षों तक नीरस प्रशासन देने वाली उमर अब्दुल्ला की नैशनल कांफ्रैंस को दिसम्बर 2014 के चुनाव में सत्ता से हाथ धोने पड़े थे। इस शासनकाल दौरान 2010 की गर्मियों में पत्थरबाजी की संगठित घटनाओं में 100 से भी अधिक कश्मीरियों को जान से हाथ धोने पड़े थे। यह कश्मीर का दुर्भाग्य ही है कि इसकी राजनीति दो परिवारों यानी अब्दुल्ला और मुफ्ती की जायदाद बन कर रह गई है। इन दोनों का कोई तीसरा दमदार विकल्प उभर ही नहीं रहा। भाजपा-पी.डी.पी. गठबंधन तीसरा विकल्प तलाश करने का एक प्रयास था लेकिन इसको  पहले दिन से ही कोई बुरी नजर लग गई थी। 

गठबंधन सरकार की विफलता के लिए भाजपा को अवश्य ही जिम्मेदारी में हिस्सा बंटाना होगा। इसने कश्मीरी पंडितों की समस्या सुलझाने और उनके पुनर्वास का वायदा किया था लेकिन इस वायदे को पूरा नहीं किया। 2014 में कश्मीर में आई विनाशकारी बाढ़ के लिए धनराशि की व्यवस्था करने में भी इसने ढिलमुल रवैया अपनाए रखा। इसने न तो प्रदेश के सिविल आधारभूत ढांचे में सुधार किया है और न ही शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में पर्याप्त मात्रा में निवेश किया है। इसी बीच पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी के वहाबीकरण की अपनी नापाक योजना यथावत जारी रखी हुई है। सुरक्षा बलों ने लश्कर-ए-तोयबा, हिजुबल मुजाहिद्दीन और जैश-ए-मोहम्मद के संबंधित 250 से भी अधिक  आतंकियों को निष्प्रभावी कर दिया है लेकिन इस प्रकार के आतंकी पाकिस्तानी सेना के लिए एक बिकाऊ जिन्स से बढ़ाकर और कुछ नहीं हैं। इसे तो जेहाद के नाम पर ‘शहीद’ होने के लिए तथा परिवारों को बहुत उदारतापूर्वक वित्तीय मुआवजा मिलने के कारण घोर गरीबी के शिकार युवा जेहादियों की एक कभी न खत्म होने वाली आपूर्ति हो रही है। 

यदि कश्मीर बदहवास कर देने वाली अराजकता में डूबता जा रहा है तो इसका मूल कारण प्रदेश की परिवारवादी राजनीति की जहरीली प्रवृत्ति तथा एक के बाद एक केन्द्रीय सरकारों द्वारा अपनाई गई लचर नीतियां हैं। महबूबा ने राजनीतिक शक्ति अपने पिता से विरासत में हासिल की थी। उन्होंने अपने छोटे भाई तसद्दुक हुसैन को प्रदेश का पर्यटन मंत्री बना दिया। कश्मीर का दूसरा राजनीतिक परिवार भी किसी तरह कम जहरीला नहीं है। आजादी से लेकर अब तक अब्दुल्ला परिवार की तीन पीढिय़ों ने प्रदेश पर शासन किया है। प्रदेश की यात्रा पर आने वाला कोई भी व्यक्ति इस बात का गवाह है कि आधारभूत ढांचा किस हद तक जर्जर है और वह यह सवाल पूछे बिना नहीं रहेगा कि अब्दुल्ला परिवार ने 1947 से लेकर अब तक इस राज्य के लिए किया क्या है? कभी दिन थे जब श्रीनगर में बॉलीवुड और हॉलीवुड की नवीनतम फिल्में सिनेमाघरों में दिखाई जाती थीं लेकिन इस्लामीकरण की एक लहर ने श्रीनगर को सिनेमाघरों से मुक्त करा दिया है।

विडम्बना देखिए कि जहां पुरातनपंथी सऊदी अरब ने 1970 से लेकर सिनेमाघरों को अपने यहां अनुमति दी है, वहीं उसी के वित्त पोषण से जम्मू-कश्मीर में इस्लामीकरण की आंधी चल रही है। सांस्कृतिक खुलेपन के मामले में जम्मू-कश्मीर का सऊदी अरब  से भी बुरा हाल हो जाना इस तथ्य को प्रतिङ्क्षबबित करता है कि प्रदेश के 2 प्रमुख राजनीतिक परिवारों ने दशकों दौरान किस प्रकार की घटिया गवर्नैंस जनता पर थोपी है। शेख अब्दुल्ला का जवाहर लाल नेहरू के साथ रिश्ता बहुत उतार-चढ़ाव भरा था। नेहरू ने उन्हें कई वर्षों तक जेल में बंद रखा था लेकिन नेहरू के वंशज राजीव गांधी के साथ फारूक अब्दुल्ला के संबंध कुछ अधिक मधुर थे। ये संबंध इतने मधुर थे कि दोनों पर यह आरोप लगा था कि 1987 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने बड़े पैमाने पर हेरा-फेरी की थी। इसी का परिणाम था कि प्रदेश में व्यापक आक्रोश फैल गया जिसकी परिणति 1989 में आतंकवाद की शुरूआत के रूप में हुई। अब यह आतंक अपने 30वें वर्ष में से गुजर रहा है और इसने कश्मीरियों का उससे कहीं अधिक खून बहाया है जितने की तसद्दुक हुसैन अगली पीढ़ी के मामले में कल्पना कर सकते हैं। 

कश्मीरी जानते हैं कि सीमा पार पाकिस्तान में उनके लिए कोई बेहतर विकल्प मौजूद नहीं। वे हर रोज देखते हैं कि पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर (पी.ओ.के.) में किस तरह हर रोज कश्मीरियों पर अत्याचार होते हैं। वे पाकिस्तान में पशुओं जैसा जीवन व्यतीत नहीं कर सकते। भारतीय सेना पर पत्थरबाजी तथा पाकिस्तान समर्थक झंडे लहराने की घटनाएं पूरी तरह घाटी में मौजूद पाकिस्तानी एजैंटों द्वारा प्रायोजित होती हैं। हुर्रियत के अलगाववादी सही अर्थों में इन एजैंटों का सबसे प्रत्यक्ष चेहरा हैं जिन्हें पाकिस्तान से न केवल पैसा बल्कि प्रशिक्षण और प्रचार सामग्री भी हासिल होती है। कश्मीर के स्वतंत्रता प्रिय युवाओं के लिए पाकिस्तान से हाथ मिलाना कोई विकल्प नहीं क्योंकि वे तो आई.ए.एस. बनना चाहते हैं। 

आई.पी.एल. में खेलना चाहते हैं और भारत के गुंजायमान तकनीकी परिदृश्य में ‘टैक्नीकल स्टार्टअप’ बनना चाहते हैं। जब वे पाकिस्तान के कभी अत्यंत सभ्य रह चुके शहर लाहौर की ओर देखते हैं तो वहां ‘‘अहमदियों को अनुमति नहीं’’ जैसे बोर्ड देखकर भयभीत हो जाते हैं। इस्लाम परस्त पंथक टकराव में पाकिस्तान गहरा से गहरा डूबता जा रहा है। कश्मीरी लोग पाकिस्तान के साथ मिलकर अहमदियों जैसा हश्र करवाने को तैयार नहीं। तो फिर जम्मू-कश्मीर का भविष्य क्या होगा? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऐसे वर्ष में राज्यपाल शासन लगाने का शायद जोखिम नहीं उठाएंगे जब बहुत जोर-शोर से चुनावी युद्ध लड़ा जाएगा। फिर भी ऐसी बातें हो सकती हैं जिनकी किसी ने इच्छा न की हो। भाजपा-पी.डी.पी. गठबंधन हिचकोले खाते हुए भी जारी रहेगा, जैसे अब तक रहा है। महबूबा भाजपा मंत्रियों के इस्तीफों से विचलित हुए बिना गठबंधन में अपना दबदबा बनाए रखेंगी। 

इसका नतीजा यह होगा कि भाजपा को कश्मीर घाटी और जम्मू दोनों ही क्षेत्रों में नुक्सान उठाना पड़ेगा। घाटी में तो पहले ही इससे बहुत नफरत की जाती है लेकिन जम्मू क्षेत्र में मुख्य आधार होने के बावजूद मतदाता खुद को भाजपा के हाथों ठगा हुआ महसूस करते हैं क्योंकि चुनाव पूर्व किए वायदे इसने वफा नहीं किए। वास्तव में भाजपा-पी.डी.पी. गबंधन सुविधा की राजनीति से बढ़कर कुछ नहीं। जब आप कश्मीर के जहरीले परिवारवादियों में से एक के साथ इस प्रकार का गठबंधन बनाते हैं तो आपको कभी भी बेदाग बचे रहने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।-एम. मर्चैंट

Pardeep

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