भाजपा नीतीश कुमार को ‘निपटाने’ का खेल तो नहीं खेल रही

Saturday, Feb 03, 2024 - 05:25 AM (IST)

अपने पाला बदल कार्यक्रम से नीतीश कुमार चाहे जो अच्छे-बुरे रिकार्ड बना रहे हों, भारतीय राजनीति में उनके माध्यम से बदलाव का एक दिलचस्प दौर शुरू हुआ है जिस पर गौर करने की जरूरत है। यह उनके 9 बार मुख्यमंत्री बनने या श्रीबाबू का रिकार्ड तोडऩे जैसे हिसाब से अलग और बड़ा है। योगेंद्र यादव जैसे राजनीति और चुनाव के विशेषज्ञ भी उनके पाला बदल की चर्चा में इन पक्षों की चर्चा नहीं करते हैं। 

नीतीश कुमार या भाजपा को एक अनैतिक गठबंधन के लिए कोसना, इंडिया गठबंधन के भविष्य की चर्चा करना, सरकार पलट के पीछे चले खेला और दाव-पेंच की चर्चा करना और कारणों का अनुमान लगाना जरूरी है लेकिन यह सब अनजान नहीं रह गया है। भाजपा और उसमें भी मोदी-शाह की जोड़ी की सत्ता की भूख और नीतीश कुमार जैसे लोगों की भूख कोई अनजान चीज नहीं है। यह भी ज्ञात है कि बाकी सबकी कीमत लग जाती है पर नीतीश की भूख सिर्फ और सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी से पूरी होती है और बिहार के महाबली लालू हों या मोदी-शाह, यह कीमत देने को मजबूर होते हैं जबकि नीतीश का राजनीतिक अर्थात वोट का आधार सिमटता ही गया है। लालू यादव तो सीधे-सीधे की लड़ाई भी लड़ते रहे हैं पर भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनाव में साथ रहकर भी शिखंडी जैसों की मदद से नीतीश को हराने की भरपूर कोशिश की और नीतीश इसको लेकर काफी फुनफुनाते भी रहे हैं। 

दरअसल आज चौतरफा गिरावट और भ्रष्टाचार वाली राजनीति में नीतीश अपनी कथित ईमानदारी और उससे भी ज्यादा अपने कथित समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की कीमत वसूल रहे हैं। अपने लगभग 20 साल के शासन में उन्होंने भ्रष्टाचार खत्म करने या धर्मनिरपेक्षता बढ़ाने का कोई यत्न नहीं किया है, समाजवाद लाने का कोई कदम नहीं उठाया है (सामंती बिहार में भूमि सुधार का नाम लेने पर वह भड़क जाते हैं), पलायन थामने या उद्योग लगवाने का यत्न नहीं किया है पर खुद पैसे जमा करने के चक्कर में नहीं आए हैं। उन्हें दंगाइयों से और जातिवादियों से बैर नहीं है लेकिन दंगे नहीं कराए हैं।

सांप्रदायिकता बढ़ती गई है, जातिगत गोलबंदियां ज्यादा मजबूत हुई हैं, क्रप्शन भी बढ़ा है (खासकर अधिकारियों और कर्मचारियों का) और सारी संस्थाएं बुरी तरह चौपट हुई हैं लेकिन नीतीश कुमार की ‘राजनीतिक गुड्डी’ आसमान में ही रही है। वह इस चलन के अकेले उदाहरण नहीं हैं। उनके उस्ताद जैसे वी.पी. सिंह, मनमोहन सिंह, योगी, ए.के. एंटनी और हर्षवद्र्धन जैसे कई और नाम आपको दिख जाएंगे जो भ्रष्टाचार के सागर में ईमानदारी के टापू जैसा दिखेंगे। 

नीतीश कुमार बड़ा संगठन खड़ा नहीं कर पाए और बड़े दल में लंबा नहीं रहे हैं इसलिए उनको बार-बार पाला बदलकर अपनी कीमत वसूलनी पड़ती है और इसमें वह उस्ताद बन गए हैं। वह सिर्फ नया रिकार्ड ही नहीं बना रहे हैं, नया चलन शुरू कर रहे हैं। इसमें मूल्यों, विचारों और नैतिकता का पैमाना आजमाने की गलती नहीं करनी चाहिए। लेकिन इन सबका समाज, शासन और चुनावी राजनीति पर तो असर होगा ही और कायदे से राजनीतिक पंडितों को उस पर गौर करना चाहिए। अगर मीडिया में एक झटके में राम मंदिर की जगह राम नीतीश छा गया तो मतदाताओं के मन पर भी इसका असर पड़ेगा ही और दिलचस्प बात यह है कि मीडिया मैनेजमैंट को सर्वाधिक महत्व देने वाली भाजपा ने पूरे होशो-हवास में आप्रेशन नीतीश कुमार ही नहीं चलाया बल्कि आप्रेशन कर्पूरी ठाकुर अलंकरण आप्रेशन भी चलाया। 

अगर राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक पहचान की राजनीति के गलबहिया करने की तरह ये दोनों धाराएं भी हाथ मिला लें तब क्या होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। लेकिन अगला चुनाव इस असर को देखने के लिहाज से दिलचस्प होने जा रहा है। पर इस नवीनतम नीतीश कांड ने अयोध्या कांड के शोर को मद्धम कर दिया है। कर्पूरी जी को मरणोपरांत भारत रत्न देकर और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहनलाल यादव को बिहार घुमाकर भाजपा ने खुद भी यह काम किया है। 

अब सी.ए.ए. समेत कई और कदम उठाए जाने की चर्चा है जिससे चुनाव में मुद्दे चर्चा में रहेंगे। यह भी दिलचस्प है कि भाजपा ने अपने पुराने उप मुख्यमंत्रियों की जगह विजय सिन्हा और सम्राट चौधरी जैसे मुखर नीतीश विरोधियों को ही नहीं जीतनराम मांझी के पुत्र संतोष सुमन को भी साथ लगा दिया है। अब एक और नीतीश विरोधी चिराग पासवान के लोगों को भी ऊंची कुर्सी मिलने वाली है। और यह सब करते हुए किसी भी पक्ष को न मुसलमानों की याद आई और न महिला आरक्षण के ताजातरीन निर्णय की। अब यही देखना बाकी है कि चुनाव के पहले नीतीश कुमार कब ‘जय श्रीराम’ कहते हैं या भाजपा राष्ट्रव्यापी जातिवार जनगणना पर राजी होती है। यह देखना भी दिलचस्प होगा कि नीतीश के पाला बदलने के बाद क्या कांग्रेस और राहुल गांधी जातिवार जनगणना की मांग छोड़ देते हैं। 

और क्या भाजपा दिन-ब-दिन कमजोर होते गए और अपनी राजनीतिक पूंजी गंवाते गए नीतीश कुमार को ‘निपटाने’ का खेल खेलती है या उनके सहारे अति पिछड़ों, जिन्हें बिहार में ‘पंचफोडऩा’ जातियां कहा जाता है, में अपनी पैठ बढ़ाना चाहेगी। भाजपा नेतृत्व ने स्थानीय नेताओं की पूरी पुरानी पीढ़ी को एकदम हाशिए पर कर दिया है। यह भी देखना होगा कि क्या नीतीश कुमार को साथ लाकर उसने बिहार में अपना साफ दिख रहा नुकसान तो काफी काम कर लिया है लेकिन ये दोनों बदलाव अर्थात नीतीश का पाला बदलना और भाजपा द्वारा उनकी घेराबंदी बढ़ाकर भी उनको गद्दी सौंपना, बिहार और देश के मतदाताओं को किस हद तक पसंद आता है यह अगले चुनाव में दिलचस्पी का सबसे बड़ा मुद्दा होगा, भाजपा के 400 पार के लक्ष्य की तरह ही।-अरविन्द मोहन   
 

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