भाजपा खुद को ‘दक्षिणपंथी’ नहीं मानती

Monday, Jun 25, 2018 - 03:04 AM (IST)

इस सप्ताह कर्नाटक गायिका अरुणा रॉय, लेखक टी.एम. कृष्णा और एक्टिविस्ट निखिल डे की हिस्सेदारी वाली जो दिलचस्प चर्चा हुई उसमें मेरी भी छोटी-सी भूमिका थी। रॉय और डे मजदूर किसान शक्ति संगठन का अंग हैं। यह एक ऐसा आंदोलन है जिसके संघर्ष के परिणामस्वरूप भारत को सूचना अधिकार कानून नसीब हुआ। 

रॉय पूर्व सरकार की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में भी शामिल थी जिसके मार्गदर्शन में भारत में मनरेगा, भोजन अधिकार और शिक्षा अधिकार जैसे कानूनों सहित आर.टी.आई. जैसे अत्यंत मानववादी कानून पारित हुए थे। भारत के इतिहास में मैं 5 साल का एक भी ऐसे कालखंड का स्मरण नहीं कर सकता। जिसमें इन दूरगामी और आधारभूत बदलाव लाने वाले कानून पारित हुए हों, हालांकि हर सरकार का मुख्य काम कानून पारित करना ही होता है। 

चर्चा के अंत में पूछे गए सवालों में से एक सुश्री रॉय को संबोधित था। उनसे पूछा गया था कि वह भारत में केवल दक्षिणपंथियों का ही विरोध क्यों करती हैं जबकि वामपंथियों के विरुद्ध एक शब्द तक नहीं कहतीं। यह प्रश्र पूछे जाने की देर थी कि मध्य मार्गीय अलग-थलग पड़ गए। रॉय ने उत्तर दिया कि किसी भी वाम पार्टी के साथ उनका कभी कोई संबंध नहीं रहा। फिर उन्होंने कहा (या उनसे पूछा गया) कि जो लोग गरीबों के लिए भोजन या शिक्षा के अधिकार की मांग करते हैं, क्या उन्हें वामपंथी माना जाए? इसके उत्तर में रॉय ने कहा कि यह आधारभूत मानवाधिकार हैं जोकि सभी को उपलब्ध होने चाहिएं। और जब इस तरह के अधिकारों की मांग की जाती है तो किसी भी विचारधारा के अनुयायियों को व्यथित नहीं होना चाहिए। 

मेरा मानना है कि सुश्री रॉय का ऐसा कहना बिल्कुल सही था। मुझे तो इस तथ्य में रुचि पैदा हुई कि गत कुछ वर्षों दौरान भारत में दक्षिण पंथी ‘तथा दक्षिण’ जैसे शब्द भी प्रचलन में आ गए। हमें लगातार यह पर्यवेक्षण जारी रखना होगा कि हमारे परिप्रेक्ष्य में इन शब्दों का तात्पर्य क्या है? यूरोप में इस शब्द का अभ्युदय फ्रांसीसी संसद में सीटों की व्यवस्था के कारण हुआ था। लेकिन यह शब्द पूरी तरह पारिभाषित अमरीकी परिप्रेक्ष्य में ही हुए थे जहां राजनीति में ‘राइट’ यानी दक्षिण पंथी का अर्थ किसी विशिष्ट घटनाक्रम से होता था। इसका अर्थ यह था कि यह एक ऐसा आंदोलन है जो सामाजिक दर्जाबंदियों को अक्षुण्ण बनाए रखता है तथा सनातनवाद को बढ़ावा देता है। ऐसे में भारत में हमें इस शब्द को और इसके समर्थकों को किन अर्थों में समझने की जरूरत है? 

यह देखनेे के लिए हमें सर्वप्रथम ‘वाम’ और ‘उदारपंथी’ को समझने की जरूरत है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त होने वाला वाम शब्द भी फ्रांसीसी संसद की सीट व्यवस्था के आधार पर विकसित हुआ है। आज इसका अर्थ उन लोगों से है जो सत्तातंत्र में अधिक मात्रा में समाजवाद देखना चाहते हैं। यानी कि सत्तातंत्र को शासकीय स्वामित्व वाली सेवाओं के माध्यम से नागरिकों को अधिक सेवाएं उपलब्ध करवानी चाहिएं। इसके साथ-साथ वामपंथ का अभिप्राय: प्राइवेट व्यवसायों के प्रति संदेह की भावना भी है। वामपंथ का आग्रह है कि सत्ता तंत्र गरीबों यानी कि श्रमिक वर्ग और कृषकों का पक्षधर बने। भारत तथा विश्व के अन्य स्थानों पर समाजवादी विचारों के लोग अपने आपको वामपंथी के रूप में पारिभाषित करते हैं और उन्हें वामपंथी पुकारे जानेे पर कोई आपत्ति नहीं है। 

‘वाम’ की तरह ‘उदारवादी’ शब्द भी सार्वभौमिक है। शब्दकोष में ‘उदारवादी’ को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पारिभाषित किया गया है जो अपने से भिन्न विचार या व्यवहार रखने वाले लोगों को भी स्वीकार करने और उनका सम्मान करने को तैयार हो तथा व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रताओं का पक्षधर हो। उदारपंथियों को भी ‘उदारपंथी’ कह कर संबोधित किए जाने पर कोई आपत्ति नहीं और शब्दकोष के दृष्टिगत इस नतीजे पर पहुंचना बहुत आसान है कि अधिकतर लोग उदारपंथी  बनने की कामना क्यों करते हैं? 

अब हम शब्द ‘दक्षिणपंथी’ की ओर आते हैं जोकि भारत में केवल एक ही दल यानी भाजपा की राजनीति को पारिभाषित करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा स्वयं अपनी विचारधारा को दक्षिण पंथी या पुरातनपंथी के रूप में नहीं देखती। इसकी नीतियों और एजैंडे के संबंध में भी यही बात लागू होती है। अमरीका में ‘दक्षिण पंथी’ विशिष्ट मुद्दों का प्रतीक सामाजिक मुद्दों पर दक्षिण पंथी होने का भाव यह है कि वह गर्भपात तथा समलैंगिक अधिकारों का विरोधी है जबकि आर्थिक मुद्दों पर दक्षिण पंथी उस व्यक्ति को समझा जाता है जो टैक्स दरें घटाने का पक्षधर हो तथा  बाजार व्यवस्था में सरकारी हिस्सेदारी का विरोध करता हो। 

क्या भारत में दक्षिणपंथ और वामपंथ में इस तरह का अंतर देख सकते हैं? नहीं, कदापि नहीं। भाजपा न तो गर्भपात का विरोध करती है और न समलैंगिक अधिकारों का। तथ्य तो यह है कि अदालत में सबसे पहले पिछली सरकार दौरान कांग्रेस ने ही समलैंगिक अधिकारों का विरोध किया था। हालांकि बाद में उसने अपने पैंतरे में पूरी तरह अद्र्धवृत्त की स्थिति अपना ली थी। अब देखते हैं कि क्या भाजपा टैक्सों का स्तर नीचा रखने की पक्षधर है? इस मामले में हम देखते हैं कि भाजपा सरकार ने नागरिकों पर टैक्सों के बोझ में वृद्धि ही की है। बेशक व्यक्तिगत रूप में मैं यह मानता हूं कि सरकार का ऐसा करना बिल्कुल सही कदम था। फिर भी इसे दक्षिणपंथ से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। 

इस शब्द का दूसरा पहलू है सामाजिक व्यवस्था को यथावत बनाए रखना। यानी कि पुरातन व्यवस्था से चिपके रहना। भारत के परिप्रेक्ष्य में तो पुरातन व्यवस्था का तात्पर्य है जाति व्यवस्था। लेकिन भाजपा जाति व्यवस्था की निरंतरता को बढ़ावा नहीं देती और यदि कोई ऐसा करने का प्रयास करे तो संविधान उसे अनुमति नहीं देगा। इसलिए हमें अनिवार्य तौर पर इस बात से सहमत होना पड़ेगा कि भाजपा न तो खुद को दक्षिणपंथी मानती है और न ही इसकी राजनीति को मोटे रूप में दक्षिणपंथी के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है। 

तथ्य यह है कि भाजपा के पास अपनी विचारधारा की एक स्पष्ट परिभाषा है और इस विचारधारा का नाम है हिन्दुत्व। हमें शब्द ‘दक्षिणपंथ’ को हिन्दुत्व के साथ गडमड नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा किया जाता है तो यह मुद्दे को धुंधलाने के तुल्य होगा क्योंकि यह भाजपा को ऐसी खूबियों व त्रुटियों का उलाहना देगा जो उसमें नहीं हैं और न ही वह चाहती है। भाजपा की विचारधारा भारतीय समाज के एक खास वर्ग के विरुद्ध लक्षित है। यह मेरी ओर से कोई दोषारोपण नहीं है बल्कि भाजपा नेे अपने आपको तराशा ही कुछ ऐसे अंदाज मेें है। जब भी हम इस विषय पर बात करते हैं तो शब्दावली मेें स्पष्टता होने से हमें लाभ ही होगा। बेशक हम भाजपा के समर्थक हों या विरोधी।-आकार पटेल

Punjab Kesari

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