संक्रमण काल में खुद को बदलती भाजपा

Saturday, May 15, 2021 - 05:01 AM (IST)

यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी इस समय चुनौती के नए दौर से गुजर रही है। 7 साल से लगातार प्रधानमंत्री का पद संभालते हुए नरेंद्र मोदी स्वयं यह स्वीकार कर चुके हैं कि आज के हालात किसी भी देश के सामने सदियों में एक बार आते हैं और हम कोविड 2 कार्यकाल में ऐसी ही स्थिति देख रहे हैं। यह सच भी है कि कोविड के वर्तमान रूप ने देश को झकझोर दिया है। 

बदलाव के इस दौर से राजनीतिक दल भी अछूते नहीं हैं। भले ही वह विश्व का सबसे बड़ा दल होने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी ही क्यों न हो? भाजपा भी बदलाव और संक्रमण के दौर से गुजर रही है। वह ऐसे नए कदम उठा रही है, जो पहले कभी नहीं उठाए थे। 

पश्चिम बंगाल या असम, जहां भाजपा हारी या जीती है, दोनों जगह ऐसे नए प्रयोग किए हैं, जो भाजपा में सोचे भी नहीं जा सकते थे, खासतौर से सर्वोच्च पदों पर। इन दोनों ही राज्यों में पार्टी ने बड़ी जि मेदारी ऐसे लोगों को दी है, जो न तो मूलत: भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि से हैं और न ही भाजपा से कोई बहुत पुराना जुड़ाव है। 

असम के मुख्यमंत्री बनाए गए हिमंत बिस्वा सरमा पिछले 20 साल से विधायक हैं और 5 साल पहले (मई 2016) तक कांग्रेस में थे। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से बातचीत करने गए तो उन्होंने हिमंत से ज्यादा अपने कुत्ते को बिस्कुट खिलाने में रूचि ली तो यह अनदेखी बर्दाश्त न हुई और भाजपा में शामिल हो गए। पांच साल तक भाजपा के लिए ऐसे काम किया जैसे जन्म-जन्मांतर का रिश्ता हो। असम में ही नहीं पूरे उत्तर पूर्व की खातिर पार्टी के लिए काम किया। 

इसी तरह पश्चिम बंगाल में शुभेंदु अधिकारी विपक्ष के नेता बनाए गए हैं। भले ही ममता की पार्टी का परचम पूरे प्रदेश में फहरा रहा हो, लेकिन शुभेंदु ने दीदी को वह स्वाद चखाया जो उन्होंने पहले कभी विधानसभा चुनावों में चखा नहीं था । (40 साल के संसदीय इतिहास में वह सिर्फ 89 में कांग्रेस विरोधी लहर में लोकसभा का चुनाव हारी थीं)। अपने एक सफल नेता की जगह अगर भाजपा दूसरे दल से आए नेता पर इतना विश्वास जता रही है तो यह इस पार्टी की सोच में एक बड़ा बदलाव है। यह भविष्य की सोच है। यह आगे की तैयारी है। यह तैयारी पहले से जारी थी। भाजपा की नजर पूर्वोत्तर के सभी सातों राज्यों पर अपनी पकड़ मजबूत रखने की है। पार्टी ने पूर्वोत्तर के इन सातों राज्यों के लिए जो कमेटी बनाई थी, उसका चेयरमैन भी हिमंत को बनाया गया था। 

इसी तरह पश्चिम बंगाल में भी भाजपा ने अपने खांटी नेताओं को छोड़कर शुभेंदु पर ज्यादा भरोसा जता कर पार्टी की नीति में बड़े बदलाव का सीधा संदेश दिया है। बंगाल में शुभेंदु ही ऐसे नेता हैं, जो ममता से बराबरी का मुकाबला कर सकते हैं। वह तृणमूल में भी बेहद कद्दावर थे और उन्हें साल भर पहले तक मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का सबसे खास सिपहसालार माना जाता था। इसलिए वह दीदी की हर कमजोरी और मजबूती से वाकिफ हैं। उन्हें भाजपा के पुराने खांटी नेता दिलीप घोष और संघ में मजबूत जड़ें रखने वाले तथागत राय पर वरीयता देने की वजह भी यही है। इस तरह  यह अन्य पाॢटयों से भाजपा में आने वालों को भी सकारात्मक संदेश है कि पार्टी अब बदल रही है और कुछ नया कर रही है। (इससे पहले एक बार अवश्य बिहार में जनता दल से आए यशवंत सिन्हा को भाजपा विधायक दल का नेता बनाया गया था मगर तब राज्य में भाजपा की हैसियत बहुत सीमित थी। पार्टी वहां खड़े होने की कोशिश कर रही थी।) 

अब सवाल यह है कि तो क्या भाजपा ने अब पार्टी और संघ से बाहर के लोगों के लिए भी रास्ता खोल दिया है। क्या यह रास्ता मध्यप्रदेश में भी खुल सकता है ? हालांकि भाजपा को वहां अभी कोई इतनी जल्दबाजी नहीं है कि वह ज्योतिरादित्य सिंधिया को ही मु यमंत्री बना दे? वैसे भी ज्योतिरादित्य के लिए कहा जाता है कि वह ढाई जिले के नेता हैं। एक बड़े राज्य का मुख्यमंत्री बनने के लिए बड़ी स्वीकार्यता चाहिए। यह भी पहली बार हुआ कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह की भाजपा ने पहली बार किसी अपने मुख्यमंत्री को चलता किया हो। 

उत्तराखंड की चलती सरकार में त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह तीरथ सिंह रावत को कुर्सी दे दी गई। इसके पहले यह भी पहली बार हुआ कि किसी राज्यपाल को हटाया गया हो। किरण बेदी की पुड्डुचेरी से बर्खास्तगी भी एक बानगी रही। लेकिन अब देखना यह है कि भारतीय जनता पार्टी का यह बदला रूप यहीं तक सीमित रहता है कि आगे भी रास्ता लेता है। कोरोना ने सरकार की छवि को क्षति पहुंचाई, इसमें अब बहुत बहस की गुंजाइश नहीं रह गई है। तो ऐसे में, और अब जब मोदी सरकार के पास आगे के तीन साल बचे हैं, सवाल होगा कि ऐसे काम होंगे जो सरकार की छवि बदल सकें? एक तरीका तो यह है कि प्रशासन के स्तर पर लगातार कड़ाई के साथ काम किया जाए। काम किया ही नहीं जाए, बल्कि वो दिखे भी। सिर्फ प्रचार के स्तर पर नहीं, जमीन पर भी। 

यह हम सब जानते हैं कि मंत्रिपरिषद का गठन प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है तो भी अगर किसी में बदलाव की  सबसे ज्यादा किसी पर निगाह है, तो वह है केंद्रीय मंत्रिमंडल। इसका सबको इंतजार है। अपेक्षित भी है।  मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री समेत अभी 58 मंत्री हैं। 

यह साफ लगता है कि अगले मंत्रिमंडल विस्तार में सर्बानंद सोनोवाल की जगह होगी ही। मध्य प्रदेश से ज्योतिरादित्य सिंधिया और बिहार से सुशील मोदी को भी मान मिल सकता है। एन.डी.ए. के फिलहाल सबसे बड़े पार्टनर नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल-यू को भी प्रतिनिधित्व देने की कोशिश हो सकती है और भविष्य की रणनीति को देखते हुए उत्तर प्रदेश और बंगाल का प्रतिनिधित्व और बढ़ाया जा सकता है। हो तो बहुत कुछ सकता है। महाराष्ट्र से देवेंद्र फडऩवीस, छत्तीसगढ़ से रमन सिंह और राजस्थान से वसुंधरा राजे का इस्तेमाल बड़ा हो सकता है। बड़ी-बड़ी ऑटो कंपनियां अपना माइलेज बढ़ाने के लिए कई कलपुर्जों को बदलने में संकोच नहीं करतीं। शायद देश को इसका इंतजार है।-अकु श्रीवास्तव

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