40वें वर्ष में भाजपा और ‘मजबूत’ हुई

Monday, Jun 22, 2020 - 02:33 AM (IST)

राजग ने शुक्रवार को राज्यसभा में 100 सीटों को पार कर लिया और अपने 40वें वर्ष में भाजपा भारत के प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में और मजबूत हो गई। भारतीय जनता पार्टी का गठन अप्रैल 1980 में किया गया था, जब उसके सदस्यों को जनता पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था, उस संयुक्त विपक्षी दल से, जिसका निर्माण 3 साल पहले इंदिरा गांधी का मुकाबला करने के लिए किया गया था। जनता पार्टी के घटकों में से एक भारतीय जनसंघ भी था, जिसे 1951 में बनाया गया था। 

अपने खुद के रिकॉर्ड के अनुसार, जनसंघ तीन घटनाओं का परिणाम था। पहला दिसंबर 1950 में वल्लभभाई पटेल की मृत्यु, दूसरा उसी साल नेहरू सरकार से श्यामा प्रसाद मुखर्जी का इस्तीफा और 1950 के चुनाव और उसके बाद पी.डी. टंडन को कांग्रेस अध्यक्ष पद से मजबूरन हटाया जाना। टंडन को नेहरू की धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ एक हिंदू रूढि़वादी नेता के रूप में देखा गया था और पटेल की मृत्यु के बाद नेहरू ने टंडन को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया।

एक अन्य घटना, जिसे जनसंघ ने अपने गठन के लिए महत्वपूर्ण माना है, 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) पर प्रतिबंध लगना और उसके नेता एम.एस. गोलवलकर की गिरफ्तारी। आर.एस.एस. एक राजनीतिक संगठन के रूप में पंजीकृत नहीं था और 1949 में इस शर्त पर प्रतिबंध को हटा लिया गया कि आर.एस.एस. संविधान को अपनाएगा, जिसके लिए वह सहमत हो गया। 

इस समय आर.एस.एस. के अंदर  और उसके मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में प्रकाशित लेखों में इस बात पर बहस शुरू हो गई कि आर.एस.एस. को राजनीति में क्यों भाग लेना चाहिए। गोलवलकर का हल यह था कि आर.एस.एस. को खुद को राजनीतिक निकाय नहीं बनना चाहिए, बल्कि कार्यकत्र्ताओं को पार्टी बनाने की अनुमति देनी चाहिए। वह हिंदू महासभा के प्रमुख रह चुके श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जुड़ गए और भारतीय जनसंघ का गठन किया जिसके नेता मुखर्जी बने। गोलवलकर ने अपने कुछ लोगों को पार्टी की संरचना में शामिल होने के लिए कहा, जिनमें दीन दयाल उपाध्याय भी शामिल थे, जो उत्तर प्रदेश में प्रचारक थे। बाद में ऑर्गेनाइजर के लिए फिल्म समीक्षा लिखने वाले अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण अडवानी को भी शामिल होने के लिए कहा गया। 

इस समय तक आर.एस.एस. को स्थापित हुए 25 साल हो चुके थे और वह नागपुर से आगे फैल गया था। इस प्रकार वह जनसंघ को अपनी शुरूआत के समय कई राज्यों में उपस्थिति दर्ज कराने के लिए आवश्यक ढांचा प्रदान करने में सक्षम था। मुखर्जी पूर्व कैबिनेट मंत्री थे, लेकिन उनका आधार केवल बंगाल में ही था। 1953 में मुखर्जी की मृत्यु का मतलब था कि आर.एस.एस. पार्टी पर नियंत्रण स्थापित कर सकता था। भारत के शुरूआती चुनावों में जनसंघ को केवल कुछ ही सीटें मिलीं और यह स्थिति 1970 के दशक तक बनी रही जब वाजपेयी के नेतृत्व में बाकी विपक्ष के साथ इसका जनता पार्टी में विलय हो गया। 

जब 1980 में संघ के सदस्यों को निष्कासित कर दिया गया और उन्हें एक नई पार्टी बनानी पड़ी, तो वाजपेयी ने दोबारा इसका नाम भारतीय जनसंघ रखने के आह्वान को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा कि बड़े समूह का हिस्सा बनकर मिले अनुभव से उन्हें काफी सीख मिली है। इससे आए दो बदलावों में से पहला था, भारतीय जनता पार्टी (जैसा कि इसका नाम वाजपेयी ने रखा था) ने अपने कैडर का विस्तार किया और पार्टी में गैर-आर.एस.एस. व्यक्तियों को लिया। दूसरा, भाजपा का संविधान जनसंघ से अलग हो गया और यह भारत की धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के प्रति निष्ठा का वादा करता है। भाजपा के संविधान और शपथ दोनों में अभी भी यह अनूठी विशेषता है कि यह अपने सभी सदस्यों को हस्ताक्षरित करने को कहता है। 

इस पार्टी ने भी अच्छा प्रदर्शन नहीं किया और 1984 के उन चुनावों में उसे केवल 2 सीटें मिलीं जिसमें राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने विपक्ष को ध्वस्त कर दिया। पार्टी की किस्मत में बदलाव तब आया जब विश्व हिंदू परिषद द्वारा बाबरी मस्जिद में पूजा करने की इजाजत मांगते हुए आंदोलन शुरू किया गया, जहां दिसंबर 1949 में राम और सीता की दो मूर्तियां रखी गई थीं। नए अध्यक्ष अडवानी के तहत धर्मनिरपेक्षता की शपथ को नजरअंदाज किया गया और पार्टी ने विहिप की मांग को अपनाया, हालांकि अयोध्या योजना न तो मस्जिद के अंदर मूर्तियों को रखे जाने के कुछ महीने बाद ही बनाई गई जनसंघ के घोषणापत्र पर थी और न ही उस समय तक भाजपा के। 

अयोध्या योजना को आगे बढ़ाने के अपने निर्णय से अडवानी ने भारतीय समाज में जो ध्रुवीकरण पैदा किया, उसने आखिरकार आर.एस.एस. को वह सफलता दिलाई जिसकी उन्हें तलाश थी और भाजपा ने 1989 में 85 सीटें जीत लीं। वह जनता दल नामक एक अन्य गठबंधन का हिस्सा बनी लेकिन इस बार बाहर से ही इसका समर्थन किया।

जब सरकार गिरी  तो अडवानी बाबरी मुद्दे पर लौट आए और आखिरकार दिसंबर 1992 में उस भीड़ का नेतृत्व किया, जिसने इसे ध्वस्त किया और इसके बाद हुए दंगों में 2000 भारतीय मारे गए। विध्वंस और हिंसा के बाद पार्टी ने अपनी लोकप्रियता में और वृद्धि की और वापस प्रभारी बन चुके वाजपेयी के नेतृत्व में 1998 के चुनाव में इसने अपनी संख्या दोगुनी करते हुए 182 कर ली। 1999 में हुए अगले चुनावों में 180 सीटें जीतकर इसने अपनी यही स्थिति कायम रखी और फिर 2004 में 138 पर फिसल गई। 

सत्ता में रहते हुए भाजपा अपने अयोध्या और मुस्लिम विरोधी दृष्टिकोण से दूर चली गई। बदलाव 2002 के गुजरात दंगों में आया जिसके बाद वाजपेयी ने मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाने की असफल कोशिश की। आगे जो हुआ, वह वैचारिक दलों में देखने को मिलने वाला सबसे क्लासिक उदाहरण है। नेता हमेशा ही उस व्यक्ति के प्रति संवेदनशील रहता है जो उससे अधिक चरम पर है और करिश्माई है। लिहाजा, वाजपेयी के मोदी से निपटने में विफल रहने के बाद शेष दीवार पर लिखा है।-आकार पटेल

Advertising