इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव ‘अनूठे’

Thursday, Oct 01, 2020 - 03:00 AM (IST)

सभी निगाहें आगामी बिहार के विधानसभा चुनावों पर टिकी हुई हैं तथा इनके नतीजे 10 नवम्बर को आएंगे। यह चुनाव कोविड महामारी के दौरान पहले नहीं हैं बल्कि इस वर्ष फरवरी माह में दिल्ली चुनावों के बाद भी पहले चुनाव हैं। दिल्ली चुनावों में आम आदमी पार्टी ने दोबारा सत्ता हासिल की थी। नि:संदेह बिहार राजनीतिक सचेत राज्यों में से एक है जहां पर जात तथा धर्म एक अहम भूमिका अदा करते हैं। हालांकि ज्यादातर विशेषज्ञों का यह मानना है कि श्रम शक्ति तथा संसाधन देने वाला यह राज्य देश का आॢथक तौर पर पावर हाऊस हो सकता है। बिहार का रिकार्ड अभी तक ज्यादा शंका वाला रहा है। यह बिमारू राज्य जैसे बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश का हिस्सा है, जहां पर विकास की गति अन्य राज्यों की तुलना में धीमी है। 

बिहार के पिछड़े होने का दोष ज्यादातर राजनीतिक नेताओं पर बांटा जाना चाहिए जिन्होंने राज्य पर अपना प्रभाव छोड़ा। पहले तो लालू प्रसाद यादव तथा उनका परिवार था जिन्होंने करीब 15 वर्ष तक बिहार पर शासन किया, उसके बाद उनके प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार जो 15 वर्षों से सत्ता पर हैं। हां बीच में कुछ समय तक जीतन राम मांझी ने शासन किया। पाठकों को यह स्मरण रहना चाहिए कि लालू प्रसाद यादव तथा नीतीश कुमार ने आपस में हाथ मिलाया था और महागठबंधन का हिस्सा थे जिसने 2015 का चुनाव जीता था। मगर नीतीश कुमार ने बाद में महागठबंधन छोड़ा तथा भाजपा से गठबंधन किया। आगामी चुनाव नीतीश कुमार की जदयू तथा भाजपा के साथ संयुक्त रूप से लड़ा जाएगा, वहीं लालू प्रसाद इस समय जेल में हैं तथा उनके बेटे तेजस्वी पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं। उधर आजादी के बाद करीब 50 वर्षों तक राज्य पर अपना प्रभुत्व जमाने वाली कांग्रेस बिहार के चुनावी दृश्य में कहीं भी नजर नहीं आती और इस समय कोमा में है। वह महागठबंधन का मात्र एक जूनियर पार्टनर है। बिहार से इस समय कोई विशेष कांग्रेसी नेता नहीं हैं। 

कोविड महामारी के चलते बिहार के चुनाव इस बार अनूठे होंगे। यह जगजाहिर है कि लॉकडाऊन के बाद प्रवासियों का बहुत बड़ा समूह घर वापसी के लिए बिहार लौटा था। लाखों की तादाद में बिहारी प्रवासियों ने सैंकड़ों मील लम्बा सफर तय किया था। हाल ही के समय में यह सबसे दुखद मानवीय त्रासदी रही है। नीतीश कुमार की सरकार की भी कड़ी आलोचना हुई थी क्योंकि उन्होंने अपने राज्य के प्रवासियों को उनकी घर वापसी के लिए कोई इंतजाम नहीं किया था। उन्होंने अपनी सीमाओं को बंद किया था तथा अपने ही लोगों को राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी थी। उत्तर प्रदेश की तरह नीतीश कुमार ने कोटा जैसे शैक्षिक केंद्रों से छात्रों को वापस घर बुलाने के लिए बसें नहीं भेजी थीं। 

यहां तक कि जो लोग अपने घरों को लौट भी गए, उन्हें भी अपने पड़ोसियों तथा सरकार की उदासीनता झेलनी पड़ी थी। राज्य में रोजगार मौकों की कमी होने के कारण बहुत से लोग अपने कार्यस्थलों पर पहुंच गए थे जिस तरह से नोटबंदी के बाद लोगों ने अपने सब दुख भुला दिए, क्या बिहार के लोग भी अपना दुख संताप भुला देंगे? 

आगामी चुनाव के लिए राज्य में राजनीतिक दल राजनीति के कार्य में जुट गए हैं। सत्ताधारी गठबंधन के लिए संभावी मुख्यमंत्री को लेकर कोई शंकाएं नहीं हैं। नि:संदेह यह नीतीश कुमार ही होंगे। हालांकि राज्य में भाजपा 243 सीटों का आधा मांग रही है। जद (यू) ज्यादा सीटों की मांग कर रही है। अन्य गठबंधन सहयोगी रामविलास पासवान की लोजपा भी ज्यादा सीटों की मांग कर रही है। जिसके चलते गठबंधन में रिश्तों में खटास आ सकती है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन को मुस्लिम-यादवों का समर्थन प्राप्त है जो मतदाताओं का 30 प्रतिशत हिस्सा बनता है।  तेजस्वी अनुभवहीन हैं तथा पार्टी में जान फूंकने में नाकामयाब हैं। चुनावी मुहिम से लालू प्रसाद यादव जिन्हें यादवों तथा मुसलमानों का समर्थन प्राप्त है, की अनुपस्थिति चुनावों पर अपना प्रभाव छोड़ेगी। महागठबंधन के पक्ष के लिए केवल एक ही फैक्टर है वह यह कि नीतीश कुमार के 15 वर्ष के शासन के बाद सरकार विरोधी लहर जागृत है। 

नीतीश का रिकार्ड देखते हुए पता चलता है कि उनकी सरकार उद्योग स्थापित करने, कृषि को पुनर्जीवित करने, शिक्षा का स्तर सुधारने तथा रोजगार उत्पन्न करने में असफल रही। प्रवासियों तथा बाढ़ से संबंधित राहत कार्यों को निपटाने में भी सरकार असफल रही। बाढ़ के कारण 27लोगों की मौत तथा 83 लाख प्रभावित हुए हैं। ऐसे मुद्दों को लेकर महागठबंधन मतदाताओं का रुख अपनी ओर कर सकता है। हालांकि कोई भी विश्वसनीय नेता और बिहार के विकास के लिए कोई सशक्त रोडमैप न होने के कारण महागठबंधन को फर्क पड़ सकता है।-विपिन पब्बी 
 

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