राजनीति की भेंट चढ़ गई भारतीय किसान यूनियन

punjabkesari.in Wednesday, May 18, 2022 - 05:15 AM (IST)

देश में किसानों के बड़े नेता स्व. महेन्द्र सिंह टिकैत की 11वीं पुण्यतिथि पर ही उनकी बनाई भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) 2 धड़ों में बंट गई। सबसे बड़ी बात यह हुई कि किसान आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरे बाबा टिकैत के दोनों बेटों नरेश टिकैत और राकेश टिकैत को भारतीय किसान यूनियन से बर्खास्त कर दिया गया। फतेहपुर जनपद के राजेश सिंह को भारतीय किसान यूनियन, अराजनीतिक का नया अध्यक्ष बनाया गया है। वास्तव में किसान आंदोलन को राजनीतिक रंग देने और यू.पी. समेत तमाम राज्यों में भाजपा को चुनाव हराने की कोशिशों में लगे टिकैत बंधुओं की कार्यप्रणाली से संगठन के नेताओं में अनबन और मनमुटाव काफी समय से जारी था। असल में अराजनीतिक संगठन को टिकैत बंधु राजनीतिक संगठन की तरह चला रहे थे। उसी का नतीजा संगठन में दोफाड़ के तौर पर सामने आया है। 

इतिहास के पन्ने पलटें तो 1 मार्च, 1987 को महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों के मुद्दे को लेकर भाकियू का गठन किया था। 17 मार्च, 1987 को भाकियू की पहली बैठक हुई, जिसमें निर्णय लिया गया कि भाकियू किसानों की लड़ाई लड़ेगी और हमेशा गैर-राजनीतिक रहेगी। इसके बाद से पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाकियू किसानों के मुद्दे उठाने लगी। लेकिन 3 नए कृषि कानूनों के विरोध में हुए किसान आंदोलन में भाकियू केन्द्रीय भूमिका में रही, जिसके नेता राकेश टिकैत थे। किसान आंदोलन के दौरान हिंसा और अन्य घटनाएं किसान नेताओं के एक धड़े को शुरू से नागवार गुजरीं। 

इसमें कोई दो राय नहीं कि किसान आंदोलन के नेता सरकार के पास बातचीत का प्रस्ताव भेज कर सिर्फ आंदोलन को जिंदा रखने और इसे टूट से बचाने की कोशिश में लगे रहे। आंदोलन के समय तमाम किसान अपने नेताओं से पूछ भी रहे थे कि यदि सरकार से बातचीत नहीं होगी तो रास्ता कैसे निकलेगा। कोरोना महामारी के समय आंदोलन जारी रखने पर भी किसान नेता बंटे हुए थे। खासकर कोरोना को लेकर भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत जिस तरह की बेसिर-पैर की बातें कर रहे थे, उससे किसानों में कुछ ज्यादा ही गुस्सा था। कई किसान नेता तो खुलकर कह रहे थे कि यह किसान नहीं सियासी आंदोलन बन गया है। नाराजगी और फूट की बड़ी वजह तब पैदा हुई, जब केंद्र द्वारा कृषि कानून वापस लेने के बाद भी कुछ किसान नेता हठधर्मिता पर अड़े रहे। 

आंदोलन के नाम पर हिंसा की गई। भाजपा को हराने के लिए किसान आंदोलन के नेता चुनावी राज्यों मे पहुंच गए। इसी वजह से लगने लगा था कि किसान नेताओं का मकसद किसानों की समस्याओं का समाधान कराना नहीं, बल्कि केंद्र सरकार को झुकाना है। इसी वजह से आम किसानों ने आंदोलन से दूरी बना ली। सबसे दुख की बात यह है कि किसान नेता कोरोना महामारी की भी खिल्ली उड़ा रहे थे। कभी कहते थे टीका नहीं लगवाएंगे, तो कभी कहते थे आधे टीके धरना स्थल पर ड्यूटी दे रहे पुलिस वालों को लगाए जाएं ताकि हमें विश्वास हो जाए कि सरकार हमारे साथ कुछ गलत नहीं कर रही। किसान नेताओं की यह जिद के अलावा और कुछ नहीं था, कि वे कोरोना संक्रमण के भीषण खतरे के बावजूद धरना देने में लगे हुए थे। 

दिल्ली में 26 जनवरी को हुई हिंसा के बाद जब किसान आंदोलन खत्म होने की कगार पर था तब राकेश टिकैत के आंसुओं ने कमाल किया और देखते ही देखते किसानों का हुजूम नए जोश के साथ फिर से उठ खड़ा हुआ। उसके बाद किसानों के मंच पर राजनीतिक दलों के नेता भी दिखाई दिए तो राकेश टिकैत के गांव सिसौली में हुई महापंचायत में नरेश टिकैत ने कहा कि हमने भाजपा को जिता कर बड़ी भूल की है, हमें अजीत सिंह को नहीं हराना चाहिए था।

इधर, यू.पी. में भाजपा को छोड़ सभी राजनीतिक दलों में किसान आंदोलन को समर्थन देने की होड़-सी लग गई। लाल किले की हिंसा के बाद से पंजाब के किसान नेता नेपथ्य में चले गए और पूरे किसान आंदोलन की कमान राकेश टिकैत के हाथ में आ गई, जिन्होंने इस अवसर को पूरी तरह भुनाया। पंजाब, हरियाणा, यू.पी, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत तक दौरे करके वह अपनी सियासत चमकाने लगे। किसान महापंचायत में ‘वोट की चोट’ की राकेश टिकैत की घोषणा भी देशवासियों ने सुनी। कृषि कानूनों के खिलाफ किए जा रहे आंदोलन को जब 383 दिनों बाद खत्म किया तो एक बड़ा सवाल जो दिमाग में आया कि इस आंदोलन में हीरो की तरह उभरे राकेश टिकैत का अगला कदम क्या होगा। न न बोलकर क्या वह ‘राजनीति को हां’ कहेंगे? सपा और रालोद के पोस्टरों पर उनकी तस्वीरें दिखाई दीं, जिनका उन्होंने विरोध किया। राकेश टिकैत राजनीति में तो नहीं उतरे, लेकिन उन्होंने भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने का काम जरूर किया। 

वहीं दिल्ली बार्डर पर साल भर चले किसान आंदोलन की राजनीतिक फसल पंजाब विधानसभा चुनाव के वक्त सामने भी आ गई, जब किसान आंदोलन का प्रमुख चेहरा रहे गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने राजनीतिक पार्टी का ऐलान किया। वजह चाहे जो भी रही हो किसान यूनियन का दोफाड़ होना अफसोसनाक है। भारतीय किसान यूनियन के नए अध्यक्ष राजेश सिंह चौहान जुझारू प्रवृत्ति के नेता हैं। उनकी किसानों के बीच सीधी पैठ है। उन्होंने दावा किया है कि वे किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़ेंगे, महेन्द्र सिंह टिकैत के मार्ग पर चलेंगे और अपने सिद्धांतों के विपरीत नहीं जाएंगे। अब यह देखना होगा कि भारतीय किसान यूनियन खुद को राजनीति से कैसे अलग रखकर कैसे किसानों की आवाज बन पाती है। वहीं किसान आंदोलन के समय सरकार और किसानों के बीच जिन बिंदुओं को लेकर समझौते हुए थे, उनको अमली जामा पहनाने की जिम्मेदारी भी नए संगठन के कंधों पर रहेगी।-राजेश माहेश्वरी
 


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