भीतरी और बाहरी दुश्मनों से सावधान!

punjabkesari.in Thursday, Feb 27, 2025 - 05:35 AM (IST)

अनादिकाल से भारत एक महान आध्यात्मिक शक्ति रहा है। 250 वर्ष पहले तक हम विश्व की सबसे मजबूत आर्थिक शक्ति थे। लगातार संघर्ष के बाद भी हम लगभग 600 वर्षों इस्लाम, तो 200 साल अंग्रेजों के अधीन रहे। यह तब हुआ, जब हम शौर्य और किसी भी साधन में कम नहीं थे। शताब्दियों तक चली इस परतंत्रता का एक बड़ा कारण वह वर्ग रहा, जो अपने निहित स्वार्थ के लिए किसी न किसी शत्रु से जा मिला और हम कमजोर होते गए। क्या इस दुखद इतिहास में हमने कुछ सीखा? शायद नहीं। हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मतदान प्रतिशत बढ़ाने के नाम पर भारत में 182 करोड़ के भारी-भरकम अमरीकी वित्तपोषण का खुलासा करते हुए इसे बंद कर दिया। यह पर्दाफाश इस बात को रेखांकित करता है कि बढ़ते भारत पर लगाम लगाने के लिए विदेशी शक्तियां किस तरह बेसब्र हैं। 

अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पूर्ववर्ती बाइडेन प्रशासन पर आरोप लगाया कि उसने भारत में चुनाव प्रभावित करने के लिए 21 मिलियन डालर खर्च किए। ट्रंप ने सवाल उठाया कि क्या इसके जरिए बाइडेन किसी और को जिताने की कोशिश कर रहे थे। ट्रंप का यह बयान उस समय आया, जब अमरीकी ‘सरकारी दक्षता विभाग’ ने 16 फरवरी को अपनी एक रिपोर्ट में ‘यूनाइटेड स्टेट्स एजैंसी फॉर इंटरनैशनल डिवैल्पमैंट’ (यू.एस.-एड) द्वारा भारत में मतदान प्रतिशत हेतु अमरीकी वित्तपोषण का भंडाफोड़ किया था। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि बंगलादेश में राजनीतिक हालात मजबूत करने के नाम पर भी 29 मिलियन डालर (251 करोड़ रुपए) खर्च किए गए थे। बंगलादेश में पिछले साल एक नाटकीय घटनाक्रम में शेख हसीना को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना और अपनी जान बचाने के लिए देश छोड़कर भागना पड़ा था। तब से वहां अल्पसंख्यक, विशेषकर बंगलादेशी हिंदुओं को चिन्हित करके प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रशासनिक समर्थन से उनका मजहबी दमन किया जा रहा है। ऐसे में ट्रंप के खुलासे से मामले की गंभीरता से कहीं अधिक बढ़ जाती है।

दरअसल, यह बाहरी दखल उस तानाशाही और विस्तारवादी सोच की नुमाइंदगी करता है, जिसका काम अपने स्वार्थ और एजैंडे के लिए इतिहास, भूगोल और संस्कृति को बदलना है। वह जमाना लद चुका, जब सेना भेजकर किसी देश पर कब्जा करके वहां के स्थानीय समाज-संस्कृति को मिटा दिया जाता था। वह मानसिकता आज भी जिंदा है, लेकिन उसका तरीका बदल गया है। अब इनके हथियार राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, मजहब और आर्थिकी से जुड़े झूठे नैरेटिव हैं। वे चिन्हित देशों में ऐसे बिकाऊ लोगों की फौज खड़ी करते हैं, जो कई मुखौटे (एन.जी.ओ. सहित) पहनकर उनके एक इशारे पर अपने ही देश के खिलाफ काम करने लगते हैं। इनमें से कई वैचारिक, राजनीतिक और मजहबी कारणों से, तो कुछ सिर्फ चंद पैसों के लिए देश विरोधी गतिविधियों में शामिल हो जाते है। इसी कुनबे में कुछ राजनीतिज्ञों के साथ मीडिया का एक वर्ग और कई स्वयंसेवी संगठन (एन.जी.ओ.) भी शामिल हैं। वे न केवल विदेशियों से सत्ता पाने के लिए सहयोग लेते हैं, बल्कि विदेश जाकर खुलेआम ‘लोकतंत्र बचाने’ के नाम पर मदद भी मांगते हैं। 

यह दिलचस्प है कि स्वयं अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप सार्वजनिक रूप से चार बार से अधिक भारतीय चुनाव में अमरीकी दखलअंदाजी की बात स्वीकार कर चुके हैं, लेकिन भारत में एक वर्ग इसे झुठलाने में लगा है। कहीं यह अपनी असलियत सामने आने की बौखलाहट तो नहीं? यह कोई पहली बार नहीं है। विशेषकर 2014 के बाद जब भी किसी देशविरोधी कृत्यों में शामिल होने के आरोप में किसी एन.जी.ओ. या व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई होती है, तो उसे ‘वाम-जिहादी-सैकुलर’ कुनबा ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ और ‘लोकतंत्र पर कुठाराघात’ बता देता है। सच तो यह है कि आजादी के बाद कई राजनीतिक दलों ने अलग-अलग समय, देश में विदेशी शक्तियों से उपजे खतरे का संज्ञान लिया है। चाहे वर्ष 1984 में सी.पी.एम. नेता प्रकाश करात हों, या 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह या फिर 2022 में केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन— इन सभी ने अलग-अलग शब्दों में विदेशी ताकतों (एन.जी.ओ. सहित) के जहरीले मंसूबों को रेखांकित किया है। 

एक आंकड़े के अनुसार, वित्तवर्ष 2017-18 और 2021-22 के बीच एन.जी.ओ. को लगभग 89 हजार करोड़ रुपए का विदेशी चंदा प्राप्त हुआ था। वर्ष 2012 से 2024 तक गृह मंत्रालय कुल 20,721 एन.जी.ओ. का विदेशी अंशदान पंजीकरण (एफ.सी.आर.ए.) रद्द कर चुकी है। आखिर विदेशों से एन.जी.ओ. को मिल रहे बेहिसाब पैसे का असल मकसद क्या है? क्या यह सच नहीं कि पर्यावरण या मानवाधिकार आदि का मुखौटा लगाकर कुछ संगठन और व्यक्ति-विशेष विदेशी शक्तियों के एजैंडे मे भारत की स्वतंत्रता को कमजोर करना, उसकी एकता-अखंडता को तोडऩा और उसकी आॢथक तरक्की को रोकना चाहते हैं? पिछले साल अमरीकी तकनीकी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में आगाह किया था कि चीन भारत में चुनावों को ‘आर्टीफिशियल इंटैलीजैंस’ (ए.आई) से प्रभावित करने की कोशिश कर सकता है। इसी पृष्ठभूमि में बीते दिनों ही चीन ने अपना स्वदेशी ए.आई. उपक्रम ‘डीप-सीक’ विकसित किया है, जो तकनीकी इंकलाब कम, विस्तारवादी चीन का भोंपू ज्यादा है। उपरोक्त घटनाक्रम से हमें समझना होगा आधुनिक युद्ध अब सिर्फ सरहदों पर ही नहीं लड़े जाते। हमें बाहरी शत्रुओं के साथ अंदरुनी दुश्मनों से भी सावधान रहना होगा। एक बहुत बड़ी मानवीय-भौगोलिक कीमत चुकाकर जब हम सदियों की गुलामी से आजाद हुए, तो 40 साल की वामपंथ प्रेरित समाजवादी बेडिय़ों ने हमारी कमर तोड़ दी।-बलबीर पुंज
    


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